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रविवार, 30 मार्च 2014

जीवन गीत....



वो गीत दुआ बन जाते हैं, जो दर्द मे राहत देते हैं
कांटों मे भी जीवन होता है, ये फूल चमन के कहते है......

कोई रात सदा की होती नही, कोई गम भी सदा तो जीता नही
कोई चाहे भी तो चाह के भी, हर पल को खुशियां मिलती नही
इस रात की काली चादर में, ही तो तारे झिलमिल सजते है....
वो गीत दुआ..............

मिलती है उसे ही सच्ची खुशी, जो दर्द मे भी खुश रहता है
फिर हों अपने या हों बेगाने, पीडा सबकी ले लेता चलता है
देने सबको जैसे जीवन, पी कर विषप्याला शिव हसते है........
वो गीत दुआ..............

हैं जख्म मिले जो दुनिया से, तो कैसा शिकवा किस्मत से
जो आज नही कोई साथ मेरे, तो क्यों रूठे हम कुदरत से
वो लोग ही कुन्दन बनते हैं, जो वक्त की आंच में तपते हैं....

वो गीत दुआ..............

रविवार, 23 मार्च 2014

दीवारें- The Walls of Mankind


कभी कभी सोचती हूँ कि आखिर वो कौन लोग थे जिन्होने जाति और धर्म की दीवारे बनाई, क्यों ये दीवारें इतनी मजबूत हैं कि दिलों को भी अलग कर देती हैं। आखिर क्यों हम इंसानियत को सबसे बडा धर्म कहते हैं, जबकि इसका तो कही अस्तित्व ही नही दिखता।
ऐसा नही था कि ये विचार पहली बार मेरे दिल दिमाग में दस्तक दे रहे थे, मगर कल की घटना ने मुझे कही अन्दर तक हिला कर रख दिया था ।
करीब एक महीने पहले बहुत बुरी तरह से दर्द से पीडित किसी व्यक्ति को लेकर माधवी मेरे अस्पताल आई थी। अस्पताल में काफी भीड थी, मगर फिर भी उस भीड में भी पन्द्रह साल पहले मिली माधवी को पहचानने में एक क्षण भी ना लगा। उसकी आँखों में कुछ अलग ही बात थी। मगर मैं चाह कर भी अपनी सीट से उठ नही सकी, बस अपने असिस्टेंट से माधवी की तरफ इशारा करते हुये कहा - राजेश उस मरीज को पहले भेज दो, लगता है कुछ सीरियस केस है।
समय की परेशानियों ने शायद माधवी की यादों पर संघर्ष की एक परत चढा दी थी , वो मुझे एक झलक में पहचान ना सकी, मगर नैनपरी कहते ही वो बोल उठी, अरे बदरा तुम , दरअसल उसकी सुन्दर आंखों के कारण मै उसको नैनपरी और मेरे घने लम्बे बालों के कारण वो मुझे बदरा कहा करती थी। उसकी आँखे तो आज भी वैसी ही खूबसूरत थी मगर मेरा बदरा नाम मुझ पर अब नही जचँता था । उस मरीज को देखने के दौरान ही पता चला कि वो व्यक्ति कोई और नही उसका पति रंजन है। सारी टेस्टिंग्स के बाद पता चला कि रंजन की एक किडनी तो पूरी तरह से फेल हो चुकी है और दूसरी की भी हालत ठीक नही । रंजन को मैने अपने ही हास्पिटल मे एडमिट कर लिया था। मै देखती थी रंजन की सेवा में अकेली माधवी ही लगी रहती थी। फिर एक दिन मेरे पूँछने पर पता चला कि, उन दोनो की शादी में रंजन के परिवार वालों की कोई सहमति नही थी, शादी के आठ साल और दो बेटे होने के बाद भी ससुराल वालों ने कभी मुड कर नही देखा । शादी के दो साल बाद माधवी के माता पिता जी एक दुर्घटना में नही रहे थे। आज उसके जीवन की धुरी इन तीन जीवन स्तम्भों पर टिकी थी।  
एक दिन मैं अपने केबिन मे थी कि माधवी मेरे पास आई - बोली रितिका एक परेशानी है समझ नही आता क्या करूँ, मै अक्सर देखती हूँ, ये अपने माँ पिता जी को बहुत याद करते है, कहते तो कुछ नही मगर मुझे लगता है कि वो उनके पास जाना चाहते है, उनसे मिलना चाहते हैं, मुझे समझ नही आ रहा क्या करूँ? कहते कहते उसका गला रुंध सा गया। फिर मेरी सलाह पर उसने अपने ससुराल वालों को उनके पुत्र की तबियत की सू्चना दी । और फिर कल माधवी ने स्तब्भ भाव से आ कर मुझे एक कागज पकडा दिया ।
यह उसके पत्र का उत्तर था, उस पत्र का संक्षेप बस यही था कि वो अपने पुत्र को ना सिर्फ देखने के लिये आ सकते हैं बल्कि उसका इलाज कराने और अपने साथ रखने को भी तैयार है, मगर उसके लिये माधवी और उसके पुत्रों को ये मान लेना पडेगा कि रंजन की दुनिया में उनका कोई अस्तित्व नही है।
पत्र पढकर कुछ पल के लिये यूँ लगा जैसे मैं ऐसी जगह हूँ जहाँ सिर्फ अन्धकार है। मै हतप्रभ थी, कि क्या जाति का जीवन में इतना अहम स्थान है जो अपने बीमार पुत्र को उसकी पत्नी के साथ स्वीकार नही कर सकता । क्या रंजन और माधवी ने सच में अंतर्जातीय विवाह करके समाज की उस व्यवस्था को बिगाडा है जहाँ प्रेम, त्याग, समर्पण जैसी भावनाये दम तोड दे। क्यों समाज की व्यवस्था ने माधवी के सामने एक ऐसी स्थिति ला दी जहाँ उसे खुद को अपराधी समझना पडे।

इन सारी परिस्थितियों मे यदि वह स्वयं को शून्य मानकर रंजन और उसके माता पिता के बीच की दीवार गिराती है तो एक नयी दीवार खडी होती है जिसके एक तरफ रंजन और दूसरी तरफ उसके पुत्र होंगें। 
क्या सच में ऐसा कोई रास्ता नही था, जो एक दीवार गिराने पर दूसरी एक दीवार नही , बल्कि दो घरों को एक कर देता ............
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