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शनिवार, 13 जून 2020

छोड़ भी दे



डॉ.रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी का हार्दिक आभार, जिन्होने यह गजल पढने के बाद मेरे ब्लाग पर न केवल टिप्पणी के माध्यम से मुझे सुधार बताये बल्कि मेरे अनुरोध पर उन्होने गलज लिखने की मूल्यवान जानकारी भी साझा की। चाचा जी, मेरा मार्गदर्शन करने हेतु आपको मेरा प्रणाम और धन्यवाद। 



चाह आसरों की रखना छोड़ भी दे
सूखे शाखों से लिपटना छोड़ भी दे 

खुश रखना खुद को तेरी जिम्मेदारी
ये रोना धोना सिसकना छोड़ भी दे

चांद का झूला महज किताबी कहानी
जज़्बातों में बहके रहना छोड़ भी दे

होते नहीं ख्वाब ख्यालों से मुकम्मल
लकीरें ताबीजें आजमाना छोड़ भी दे

बेमतलब के रिश्ते हुए गुजरा जमाना
बेमकसद घुलना मिलना छोड़ भी दे

दो पल भी दुनिया नहीं याद करेंगी
तू ख्वाइशें दफन करना छोड़ भी दे

नकाबपोशी का चलन है जोरों पर
खामख्वाह चेहरे पढ़ना छोड़ भी दे

झुकती है दुनिया शोहरतों से पलाश
अब पत्थर नींव का बनना छोड़ भी दे

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छे अशआर हैं
    मगर मतले का शेर भी होना चाहिए ग़ज़ल में।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. चाचा जी, नमस्कार। मुझे आपसे सीखना है। कृपया अपना नम्बर दे। ताकि हम आपसे बात कर सकें। धन्यवाद

      हटाएं

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और लेखन को सुधारने के लिये आवश्यक

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