मै तो मुसाफिर हूँ,
रास्ते घर हैं घर मेरा
मुझे बसने के लिये, दीवार
नही उठानी है
मेरे दोस्त कुछ फूल भी
है, कुछ कांटे भी
मेरी जिन्दगी अखबार नही,
बहता पानी है
रात से दिन कब हुआ है,
चांद के जाने से
यहाँ अंधेरा भी, कुछ महलो
की निशानी है
बहुत हो रहे हैं चर्चे,
गांव में तरक्कियों के
फिर किसी खेत की मिट्टी,
ईट हो जानी है
न बचपन खुश, न बुढापे को सुकून
ओ चैन
जाने किस काम मसगूल, देश
की जवानी है
इज्जतो आबरू से खेल, इस
कदर आम हुआ
कैसे कहे ये मुल्क,
तहजीबों की राजधानी है
पलाश लिखती है इतिहास,
उजडे जज्बातों का
जहाँ जिन्दगी कभी शायरी
तो कभी कहानी है