पलाश सिर्फ अपनी डाल पर लगता है और खिल कर धरती पर गिर जाता है। वह सिर्फ अपने लिए अपनी डाल पर ही सीमित रहता है। और डाल से अलग होते ही अपने अस्तित्व को समाप्त कर देता है। यही है उसका पूर्ण समर्पण उस डाल के प्रति जिसने उसको जीवन दिया ।
मंगलवार, 30 नवंबर 2021
कौन चाहता है
गुरुवार, 18 नवंबर 2021
तेरे आने से पहले
दिल
में फिर, इक ख्वाब पल रहा है,
जमाना
फिर हमसे, कुछ जल रहा है
उनके आने के लम्हे, ज्यों करीब हुये
इंतजार
कुछ जियादा, ही खल रहा है
पुलिंदे शिकायतों के, मुंह ढकने लगे
तूफा
ए अरमां, बेइंतेहा मचल रहा है
जाने क्या हाल हो, सनम से मिलकर
ख्यालएमौसम,
पल पल बदल रहा है
यादों की गली से, ख्वाबों के शहर तक
पैंडुलम
सा बेचैन, ये दिल टहल रहा है
हर लम्हा सौ बरस सा, है लगने लगा
किसी सूरत,
ना दिल ये बहल रहा है
ऐ चंदा छुप जाना, चुपचाप बादलों में
मेरा
चांद मेरी छत पे, निकल रहा है
घडी घडी देखे नजर, घडी की तरफ
सब्र पलाश से अब ना, सम्भल रहा है
आखिर क्यों
हर एक जिंदगी
में, ना जाने कितने आखिर क्यों
हर मन को भेदता, कभी ना कभी आखिर क्यों
किसी का क्या बिगाडा था, हुआ जो साथ ये मेरे
किया जो होम तो फिर, जला ये हाथ आखिर क्यो
किसी को मिल गया पैसा, किसी के पास शोहरते
मेरे दामन में
ही कांटे, हजार आये है आखिर क्यों
जिसे बरसों से जाना था, फक्र उसके हुनर पर था
जिंदगी में
मेरी उसने, जहर घोला है आखिर क्यों
बचाया गुनहगारों को उनके रुतबों और बुलंदी ने
हुई मजबूर मरने को बेगुनाह मासूम आखिर क्यों
बहुत कमजोर हो चली है, याददाश्त इस बुढापें में
जिसे चाहा भुलाना वो, भूला पाये ना आखिर क्यों
कहां बेनकाब होती नियत, उजले चिकने चेहरों की
बाद धोखे के सोचे दिल, किया ऐतबार आखिर क्यों
ताकतों सत्ता और दौलत की, चमकतीं जब तलवारें
दफन हो जाते
कितने ही, बेबस लाचार आखिर क्यों
मौसम की तरह आते जाते हैं, पलाश गमों खुशियां
बदल जाती वजहें
पर, अटल रहता ये आखिर क्यों
सोमवार, 15 नवंबर 2021
सरप्राइस
बरसों से मन मे दबी भावनाओं को बस एक बार वह उस पर जाहिर कर देना चाहता था, मगर क्या यह इतना आसान था एक पति, एक पिता और एक परम आज्ञाकारी पुत्र के लिये। जीवन की सारी जमापूंजी का एक ही पल में खो देने का भय सिर से लेकर पांव तक उसके शरीर में विघुत की सी तरंग उत्पन्न कर रहा था। किंतु अगले ही पल मन की कोमल एवं विशुद्ध भावनाए उसे नयी ऊर्जा से संचारित कर रहीं थी।
अंततं उसने निश्चय किया कि जीवन में मिले
इस सुनहरे अवसर को वह यूं ही नही जाने दे सकता। जो अवसर उसे जीवन के पंद्रह वर्षो में
नही मिला था, आज उसके सामने था, हां ये और बात थी कि यदि यह अवसर उसे पंद्रह वर्ष पहले
मिला होता तो शायद उसके जीवन का रंग और आकार बहुत संभव है कुछ और ही होता। मगर उसने
भी पूरे भाव और विश्वास से नियति को ईश्वर की इच्छा समझ स्वीकार किया था, शायद आज तभी ईश्वर
ने ही उसे यह अवसर दिया था कि जीवन में एक बार वह उन पलों का अनुभव कर ले जिसकी ख्वाइश उसके मन में
कब जन्मी शायद इसकी स्मॄति करना अब उसके लिये संभव नही था।
एक सीधा सच्चा व्यक्ति ताने बाने बुनना
नही जानता, शायद इसीलिये परसों जब अचानक उससे मेरी भेंट मेरे एक घनिष्ट मित्र के घर हुयी और मुझे यह पता चला कि मेरा और उसका कार्यक्षेत्र एक ही है तो मैने उसको ऑफिस में अपनी प्रोजेक्ट टीम से मिलवाने का प्रस्ताव दिया जिसे उस सरल निश्छल हदया ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था, मगर मेरा मन पिछली दो रातें यही सोचता रहा कि किस तरह से मैंअपनी भावनाएं उसके सामने जाहिर करूं ताकि ना तो किसी
भी तरह उसके विश्वास को रंच मात्र भी ढेस पहुंचें और ना ही किसी मर्यादा का उल्लंघन
हो।रात के अंतिम पहर तक किसी निष्कर्ष तक ना पहुंच सका और निद्रा देवी भी आखिर कब तक
प्रतीक्षा करतीं सो मुझे स्वप्नों की चादर उढा मेरे सिरहाने बैठ गई।
सुबह कब हुई मुझे तब पता चला जब आरू मेरे
बिस्तर पर अपने भाई से लड कर मेरे पास छुपने के लिये आई। मैने उस छोटी सी परी को रोज
से ज्यादा कस कर अपनी गोद में छुपा लिया। मैने ऐसा क्यों किया यह ठीक ठीक ना तो मै
समझ पाया ना ही मेरी नन्ही परी।
मन किया कि आज ब्लू शर्ट पहन कर जाऊं,
मगर मेरे नहाकर निकलने से पहले श्रीमती जी ने यल्लो कलर की शर्ट निकालकर दी थी, किसी
भी और चीज में गलती हो सकती थी मगर गुरुवार को पीली कमीज निकाल कर ना रखी जाय यह उतना
ही असंभव था जितना अमावस्या के दिन चंद्र देव का दिखना। मेरे पास कोई दलील ना थी जो
मै ब्लू शर्ट पहन सकता सो चुपचाप पीली शर्ट पहन ली यह सोच कर कि भावनाओं का अपना ही
एक प्राकृतिक रंग होता है उसके लिये भला अप्राकृतिक रंगो की क्या आवश्यकता।
घर से निकलने से पहले मैने अपने नये घर
की चाबी कुछ इस तरह से अपनी जेब में रख ली जैसे मैं उस मकान का मालिक नही उस घर में
चोरी करने जा रहा हूं। ना तो मेरे चेहरे के हाव भाव सामान्य हो पा रहे थे ना चाल। इससे पहले कि श्रीमती
जी रसोई से आ कर रोज की तरह मुझे टिफिन थमायें और शाम को जल्दी आने के लिये कहें, मै किसी तरह मै जल्द से जल्द ऑफिस के लिये निकल जाना चाह रहा था।
ऑफिस पहुंचते थी मीटिंग्स ने ऐसा घेरा
कि मन की सारी भावनाएं वैसे ही सिमट गयी जैसे शाम के होते ही सूरज आकाश से अपनी सारी
किरणें समेट लेता है।
तभी मोबाइल पर एक मैसेज आया- मै निकल
रही हूं, तुम अपने ऑफिस का पता भेज दो।
एक बार फिर से ऑफिस के काम पर भावनाएं
हावी होने लगीं। मीटिंग लगभग खत्म होने को ही थी। मै मीटिंग रूम से सीधा कैंटीन की
तरफ गया, और कॉफी मंगाई। कॉफी का पेमेंट करने के लिये कैंटीन का कार्ड निकालने के लिये जेब में हाथ डाला तो कार्ड के साथ की रिंग भी साथ निकल आया। सुबह जो चाभी उठाई थी, ये उसी चाभी का की रिंग था, सुबह सिर्फ चाभी दिखी थी, अब उस की रिंग पर लिखा " हैप्पी फैमिली" भी नजर आया। चाभी धीरे धीरे धुंधली होती जा रही थी, शब्दों के साथ साथ बीते पंद्रह सालों के सुखद पल भी तैरने लगे थे।
कॉफी का हर एक सिप मुझे कुछ पलों बाद हो सकने वाले हर संभव परिणाम के स्टेशनों पर घूमाने लगा। कॉफी के आखिरी घूंट के साथ साथ, दो दिन से मन में चल रहा भावनाओं का अंतर्द्वंद भी खत्म हो गया। मैने श्रीमती जी को फोन लगाया- निशा, ऐसा करो बच्चो को लेकर अपने नये घर आ जाओ, लंच हम सब साथ ही करेंगें और वही तुमको एक सरप्राइस भी दूंगा।