आज उम्र के साठ सावन देखने के बाद
भी कभी कभी मन सोलह का हो जाता है, जाने क्या छोड आयी थी उस मोड पर जिसे जीने को मन
बार बार व्याकुल है, जाने क्यो आज भी मन अतृप्त ही है, कितनी बार कितने तरीको से मन
को टटोल कर उलट पलट कर देखा, मगर आज तक पा नही सकी उस खाली मन को, बस हमेशा एक हूक
सी उठ जाती है, उस उम्र को जीने की।
पता ही नही चला कब वो सब मुझसे छूट
गया जिससे बनती थी मेरी परिभाषा। जाने कब मेरी आशाओं ने अपने को चुपचाप एक गठरी में
बाँध लिया और ओढ ली असीमित खामोशी की चादर।
बारह साल की उमर जिसमें एक बचपन, लडके
या लडकी की सीमा में नही बँधता, उसे तो दिखता है सिर्फ खुला आकाश जिसमें कभी वो पतंग
उडाना चाहता है और कभी खुद उड जाना चाहता है। मगर आह रे मेरा भाग्य, ना मुझे आकाश मिला
ना पतंग, सिर्फ डोर बन कर रह गयी, जिसे सबने तरह तरह से उडाया। जाने कितनो ने बाँधी
इस पर अपनी हवस, लालसा, और वासना की पतंग। मेरे पिता ने मेरा भी कन्यादान किया मगर
ये कन्यादान मुझे ससुराल नही बाजार ले गया, और मै दुल्हन की जगह बन के रह गयी एक बिकाऊ
गुडिया।
आज ये गुडिया, एक बुढिया बन चुकी है,
समय चक्र ने मुझे उस जाल से तो निकाल दिया , जिसे मछली समझ कर कभी मुझ पर डाला गया
था, मगर फिर भी नही निकाल सकी हूँ मन में बसे उस स्वप्न को जिसमें सारी दुनिया को अपनी
डोर में बाँधे अपनी आशाओं की पतंग उडाती फिरती हूँ। कभी कभी पूरा जीवन ही एक ऐसा स्वप्न
बन जाता है, जिसकी कोई सुबह नही होती।