आज
मै एक ऐसे शख्स से मिली, जो मेरी नजर में खुदा से कम नही मगर समाज उन्हे हिराकत भरी
नजर से देखता है, कोई उनके साथ तो क्या आस पास भी नही रहना नही चाहता। आज सुबह जब मैं
अपने घर के लॉन में बैढी अखबार पढ़ रही थी कि एक करीब ६० वर्ष की महिला आयी, मुझे लगा
कि जरूर पैसे मांगने वाली होगी, मगर नही वो तो काम माँगने आयी थी, मैने कहा- अरे इस
उम्र में क्या काम करोगी और मै पाँच रुपये देने लगी, जो अभी थोडी देर पहले टमाटर खरीदने
से बचे थे और मैने पल्लू में बाँध लिये थे। कहने लगी - बिटिया कुछ काम पर रख लो, जो
चाहे दे देना , मुझ बुढिया को चाहिये भी क्या, बस दो बखत की रोटी। मुझे लगा ये ऐसे
पैसे नही लेने वाली मगर ऐसे कैसे काम पर रख ले, वो भी संजय से बिना पूँछे, मैने कहा
- अम्मा ऐसा करो इस लॉन की घास निकाल दो। वो काम करने लगी, तो मैने कहा - अम्मा तुम्हारे
कोई बेटा बहू नही है क्या जो इस उम्र में ऐसे काम ढूँढ रही हो , तो उसने कहा - अरे
ये सब मेरा नसीब कहाँ , जब आज तक घर ही नही मिला तो बेटा तो बडी दूर की बात हो गयी,
उसकी इस एक बात ने मेरे मन में हजारों सवाल खडे कर दिये,मैने कहा - आप ऐसा क्यों कह
रही हैं, तो वो बोली- अरे हम तो नाच गाना करके कमाने खाने वाली हैं, जब तक उम्र रही
हुनर का खाया मगर और अब तो ना उमर का जोर रहा ना पैसे का, दो रोटी के भी लाले पडे हैं, सारी जिन्दगी मेहनत का ही खाया अब भीख माँग कर नही खाया जाता , और
मेरा कल जानने के बाद कोई अपने घर में मेरा साया पडने तक को मनहूसियत समझता है।
अब तक मैं ये तो समझ गयी थी कि ये कौन है, मगर अब मेरे मन में नये प्रश्न जन्म लेने
लगे कि आखिर क्यो इन्होने ये काम किया, मैने कहा अम्मा तो क्या तुम पैदाइशी से इसमें
थी या.... मुझे बीच में रोकते हुये और कुछ याद करते हुये बोली - नही नही, पैदा तो मैं
बहुत बडे खानदान में हुयी थी, उन दिनों मेरे पिता जी का बडा रुतबा हुआ करता था, हम
लोग इलाहाबाद में रहते थे, बनारस गयी थी सबके साथ बाबा बिश्वनाथ के दर्शन करने, वही खो गयी , और ऐसी
खोयी कि वापस कभी घर की दहलीज नसीब नही हुयी कहते कहते वो कहीं खो सी गयी, उनकी बात सुनते
सुनते मेरी आँखों में पानी आ गया मगर उनकी आँखों मे नमी का कोई नामो निशान ना था,
शायद वक्त की मार ने उनके आँसू भी उनसे छीन लिये थे, मैने कहा- तो आप कितनी बडी थी
तब, अपना घर नही जानती थी क्या जो वापस नही जा पाई। आसमान की ओर देखते हुये बोली- सब
तकदीर के खेल हैं, मैं तब करीब सात या आठ बरस की थी, घर वालों से मेले में अलग हो गयी
थी, खडी रो रही थी, कि एक आदमी आया और कहने लगा कि यहाँ मत रो मेरे साथ आओ, उधर की
तरफ कैंप लगा है वही सारे खोये बच्चे हैं वहाँ तुम्हारे पिता जी तुमको लेने के लिये
आये होंगें, और मैं उअसके साथ चल पडी, ना जाने उसने मुझे क्या सुंघाया, कि जब आँख खुली तो बस अपने सामने तबले
और घुंघरू ही देखे, बहुत कोशिश की निकलने की मगर रज्जो को नूरजान बनने से नही बचा पायी,
और अचानक उनकी आँखों से पानी की वो धार बह निकली जो शायद बरसों से बादल बन कर कही रुकी
हुयी थी, मैं उनके पास चली गयी, अम्मा कुछ बहुत बुरा याद आ गया क्या? तो कहने लगी
, बुरा या भला ये तो दुनिया ही जाने, करीब वहाँ आने के तीन साल बाद की बात है,
उस दिन जब मैं मुजरा कर रही थी तो सामने एक शख्स को देखा जिसको देखने के बाद मेरे पैर
वही जम से गये, दिल जोर से धडकने लगा, और मन में नयी जिन्दगी की आस जाग पडी, पता है
वो इन्सान कौन था वो मेरा अपना खून, मेरा भाई था, उस दिन एक पल को लगा कि धरती मैया यही फट जाओ
और मैं समा जाऊँ, और दूसरे पल लगा कि शायद ईश्वर को मुझ पर दया आ गयी और मेरा भाई आज
राखी का फर्ज निभाने आया है, मगर नही वो तो बस ये कह कर निकल गया कि हम सबने ये मान
लिया है कि तुम मर चुकी हो, और तुम भी यही मान लेना, मरे हुये लौट कर नही आया करते।
उस
दिन मेरे मन में एक ही बात आयी थी जो आज भी बस सवाल ही है कि जब एक रज्जो नूरजान बन
सकती है तो फिर एक नूरजान रज्जो काहे नही बन सकी.............
और
मेरे सामने अमीरन और उमरावजान की तस्वीर उभर आयी जो मैने बचपन में देखी थी.........