रोहित
का आज आठवीं कक्षा का परिणाम घोषित होना था। पिछले वर्ष वह प्रथम आया था, इस वर्ष भी
उसे यही उम्मीद थी। विघालय में प्रतिवर्ष परीक्षा परिणाम घोषित करने के लिये एक बडा
आयोजन होता था। जिसमें सभी बच्चों के अभिभावक आमंत्रित किये जाते थे। किसी कारणवश
रोहित के पिता जी आज इस समारोह में नही आ सके थे।
परिणामों
की घोषणा हुयी, और उम्मीद के अनुसार, रोहित इस वर्ष भी अपनी कक्षा मे प्रथम स्थान पर
रहा। उसे अपने पिता जी के ना आने का दुख हो रहा था।
रोहित
आयोजन समाप्त होने का बेसब्री से इन्तजार करने लगा कि कब वो घर पहुचे और कब अपने पिता
जी को रिपोर्ट कार्ड दिखा कर उनसे पुरस्कार ले।
घर
आते ही उसने पिता जी को जैसे ही अपना रिसल्ट दिखाया, उनके चेहरे पर खुशी की जगह उदासी
की लकीरें देख रोहित हैरान हो गया। उसे लगा शायद पिता जी ने मेरा प्रथम स्थान नही देखा।
अधीर होते हुये उसने पिता जी से कहा- पापा में इस बार भी फस्ट आया हूँ, यह सुनकर उसके
पिता जी ने कहा- रोहित प्रथम नही तुम तो अन्तिम आये हो। रोहित को कुछ समझ नही आ रहा
था। फिर भी उसे यकीन था उसके पिता जी यदि यह कह रहे है तो कोई तो बात होगी। बहुत सहज
होकर उसने कहा- कैसे पिता जी।
पिता
जी ने कहा- रोहित पिछले वर्ष की तुलना में तुम्हारे अंको का प्रतिशत काफी कम है। कक्षा
हो या जीवन हमारी प्रतियोगिता स्वयं से होनी चाहिये। तुम अपनी कक्षा में जरूर प्रथम
हो तब जब तुम अपने साथ पढने वाले छात्रों को अपना प्रतियोगी समझते हो, किन्तु यदि तुम
स्वयं के प्रतियोगी होते हो तुम प्रथम नही आते।
रोहित
को समझ आ रहा था कि उसके पिता जी उससे क्या कहना चाह रहे थे।
हम
सबको भी हमेशा स्वयं का प्रतियोगी होना चाहिये। दूसरों के साथ की गयी तुलना वास्तविक
नही है। और कई बार यही तुलना हमारे लिये ईर्ष्या बन जाती है। स्वयं से की गयी प्रतियोगिता
सदैव सकारात्मक परिणाम ही देती है।