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सोमवार, 16 जून 2014

बेबस बेबसी....


ना ये गजल है, ना कविता, ये सिर्फ भावनाओं को शब्दों मे उकेरने की एक कोशिश है, भावानाये जो लाचार हैं, बेबस हैं, मजबूर हैं........ 
एक ऐसी  निर्दोष लडकी की भावनायें, जिसे समाज के चंद सभ्य कहलाये जाने वाले लोग, उसके आंचल को मैला करने की कोशिश करते है, वो लोग जो एक स्त्री के स्त्रीत्व हनन करने को ही पुरुषार्थ समझते है, जो समझते हैं कि स्त्री सिर्फ एक आकार है, और वो सिर्फ भोग्या है। वो भूल जाता है, एक स्त्री ने ही उसे धरती पर आने का अधिकार दिया है, पुरुष तो याचक है, स्त्रीत्व का अपमान करके वो यह सिद्ध कर देता है कि वो मानव रूप में अमानव है। उसमें ये क्षमता ही नही कि कभी वो यह समझ सके कि भावनायें भले ही आकारहीन होती है, मगर आधारहीन नही होती। एक स्त्री , एक मजबूर स्त्री, परिस्थितियों मे उलझी स्त्री पर भले ही कोई बल प्रयोग करके उसको अपमानित कर ले, मगर प्रकृति के खिलाफ किया गया उसका ये आचरण उसे एक ना एक दिन ऐसी राह में ले कर आता है, जब उसको प्रायश्चित का भी मौका नही मिलता। पुरुष यदि यह समझता है कि स्त्रीत्व ही स्त्री को परिभाषित करता है तो यह उसकी अज्ञानता को ही प्रदर्शित करता है, क्योकि स्त्री की महिमा को तो आज तक उसका रचयिता भी नही समझ सके। स्त्री अनन्त है, अविचल है, अव्यक्त है। स्त्री कभी कमजोर नही है, उसकी प्राकृतिक संरचना पर किया प्रहार कुछ पल के लिये उसको विचलित कर देता है मगर स्त्री को ईश्वर ने वो गुण दिया है कि वो टूट कर भी जुड सकती है, जी सकती है, क्योकि जीवन देने की शक्ति की वो ही स्वामिनी है, पुरुष सदैव ही भिक्षुक है............... और स्त्रीत्व की भले ही कितनी डकैती क्यो ना कर ले वो जीवनदाता नही बन सकता।
ये चंद पंक्तियां एक ऐसी ही लडकी की व्यथा को लिखने की कोशिश है, शायद मेरी ये कोशिश उन लुटेरों को सही मार्ग दिखा सके, जो भटक गये है, वो समझ सके कि किस पीडा से गुजरती है एक बेबस की गयी लडकी, और कितनी धन्य होती है वो जो ऐसी त्रासदी को झेल कर भी जीवन को जीतती हैं, क्या किसी के भी पुरुषार्थ मे है ऐसी पीडा को सहने की शक्ति.........


थी रात वो पूनम की, पर काली थी, धुंधली थी,
लगता था नही होगी, कोई सुबह अब उजली सी।

कुछ बेबस से हम थे, या पूरे बंधे ही थे,
सब हार गये थे या, कुछ सपने बचे तो थे,
आँखों मे था जब सावन, अरमानों में बंदिश थी
लगता थी नही...........................................

रातों के घने साये में, हम कितने उलझे थे,
महफिल में तमाशे थे, पर खुद में अकेले थे,
टकराये तो थे दो जाम, पर हुयी मै घायल थी,
लगता थी नही...........................................

कुछ होता नही है खुदा, दिल मे ये आया था,
जीवन से भला हमने, तब मौत को पाया था,
कातिल था वो मेरा, जिसकी कभी कायल थी
लगता थी नही...........................................

13 टिप्‍पणियां:

  1. सोचने को मजबूर करता लेख

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  2. मैं आपके ब्लॉग को दूसरी बार देख रहा हूँ। पहली बार " कुछ कहना है " पोस्ट को पढ़ा था। बहुत पसंद आई आपकी रचनायें/लेख। ……विनम्र आभार!

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  3. ISWAR AAP KO HAMESA ISI TRAH SE SAMAL PRADAN KARTA RAHE.SUBHKAMNAWO SAHIT RAJIT RAM YADAV RESEARCH SCHOLAR CSED MNNIT ALLAHABD

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  4. मैं आपके ब्लॉग को..........................आपकी रचनायें पसंद आई.

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  5. रातों के घने साये में, हम कितने उलझे थे,
    महफिल में तमाशे थे, पर खुद में अकेले थे,
    टकराये तो थे दो जाम, पर हुयी मै घायल थी,
    लगता थी नही...........................................
    ​बहुत बढ़िया

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  6. बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती पंक्तियाँ ...

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  7. गंभीर और चिन्तन मनन योग्य रचना

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  8. मगर स्त्री को ईश्वर ने वो गुण दिया है कि वो टूट कर भी जुड सकती है, जी सकती है, क्योकि जीवन देने की शक्ति की वो ही स्वामिनी है.....ekdam sateek

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  9. बहुत खूब ! मंगलकामनाएं आपको !

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  10. Bahut gambheer gahan prastuti.... Aapkaa mere blog par swagat karti hun kripyaa zaroor aayein...!!

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