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बुधवार, 13 अप्रैल 2016

सीमित जमीं सीमित आकाश


मुझे समझना ही होगा कि जिस आकाश जिस जमीं में मैने जन्म लिया है वो असीमित नही है। उसकी सीमायें हैं, बन्धन हैं।
जाने कैसा प्रेम है ये, जो खुशियों की दुआयें तो देता हैं मगर सिर्फ उन खुशियों की जो उनके सीमित आकाश सीमित जमीं का हिस्सा हो।
बचपन से पाठ पढाया गया, सभी से प्रेम करो। ना देखो कि ये हिन्दू है, मुस्लिम है, कोई छोटा या बडा नही होता, सब एक ही ईश्वर की रचना हैं, मगर बडे होते होते प्रेम भी सीमित हो गया। प्रेम की परिभाषा भी बदल गयी।
प्रेम का अर्थ है अच्छे से बात करना, जरूरत में काम आ जाना, मगर प्रेम का अर्थ ये नही कि एक थाली में बैठ कर खाया जाय।
एक थाली में खाने के लिये उसे हमारे सीमित आकाश सीमित जमीं का हिस्सा होना होगा।
सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं तो क्या हुआ, वही दो संताने एक साथ जीवन के स्वप्न देख सकती हैं जो सीमित आकाश और सीमित जमीं का अभिन्न हिस्सा हैं।

शब्दों की परिभाषाये किसी शब्द कोश से नही समझी जा सकती, वह तो समाज में गढीं जाती हैं। इस संसार में हर चीज कुछ दायरों में बधीं है, भावनायें भी मुक्त नही। मन के भाव भी समाज के रिवाजों के गुलाम हैं।
हम भले ही यह कह दे कि जोडियां तो ऊपर वाला बनाता है, कहने में क्या जाता है। मगर कितना सत्य होता है लोगो का ये कहना? जोडियां तो वही बन सकती है जो सीमित आकाश और सीमित जमीं में जन्मी है। ्वो ऊपर वाला क्या समझे कि दो अलग आकाश और अलग जमीं के लोग भी प्रेम से एक साथ रह सकते हैं। कौन कहता है एक आकाश है एक जमीं है- हमने देखी है इस एक जमीं पर बहुत सी जमीं, धर्मो की जमीं, जातियों की जमीं, गरीब जमीं अमीर जमीं , देशी जमीं विदेशी जमीं, अहंकार की जमीं, लालच की जमीं और भी ना जाने कितनी जमियां कितने आकाश है।
क्यों नही दिखता सभी को, क्यो अपने कहे को ही नही टटोलते, एक ही जमीं है, एक ही आकाश है, प्रेम की एक ही परिभाषा है, हर किसी को असीमित स्वप्न देखने , उनको जीने का अधिकार है।
वो विधाता जब अपनी कॄपा में अपने कोप में किसी जमीं किसी आकाश का भेद नही करता तो फिर हम उस सर्वशक्तिमान के विचार को क्यो नही आत्मसात कर लेते।
क्या कभी प्रलय में, भूकम्प मे, बाढ में आपने जमी या आकाश को विभाजित होते देखा है। अगर नही तो कुछ तो है जो अब भी हमे सीखना है......................

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-04-2016) को ''सृष्टि-क्रम'' (चर्चा अंक-2313) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वो विधाता जब अपनी कॄपा में अपने कोप में किसी जमीं किसी आकाश का भेद नही करता तो फिर हम उस सर्वशक्तिमान के विचार को क्यो नही आत्मसात कर लेते.....इंसानी फिदरत है..

    बहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बिन पानी सब सून - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति।पर.शायद चिंतन के अनन्त आकाश में अपनी
    अपनी जमीं तलाशनी होगी।

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  5. Osm writup and unfortunately it's true and ppl obey this.

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