आँखों में बसता है
मेरे
आसमां का इक छोटा सा
टुकडा
जिसमें देखती हूँ मै
खुद को उडते हुये
उस स्वच्छंद आकाश में
खुद को विचरते हुये
चंचल आतुर मन में
कुछ अनसुलझे सपनें
लिये
ढूँढती हूँ बादलों
के पार
अपनी आशाओं की इमारत
और तलाशती हूँ उसके
हर कोने में अपनी पहचान
तभी एक अनदिखा चेहरा
उरक सा जाता है बादलों
के बीच
और फैला के बाहें,
मौन निमन्त्रण दे
करता है कोशिश बांधने
की
असमंजस में पड कभी
उसकी ओर
कभी उससे दूर मै कदम
बढाती
कभी मन मचलता है इस
नये
अन्जाने बन्धन में
बंधने को
कभी तडपता, विचलित
हो जाता
दूर गगन से परे उड
जाने को
मगर जितना भी उडती
हूँ
आकाश विस्तृत होता
ही जाता
और ठहरती जहाँ भी मुझे
खडा नजर वो ही आता