प्रशंसक

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

शेष..............


प्रिया की आँखों में कभी एक भी आंसू नही देख पाता था, मगर आज वो फफक फफक कर रो रही थी और मैं कुछ भी नही कर पा रहा था। नवप्रिया- हमारी दो साल की बेटी, ये नाम मैने और प्रिया ने मिलकर ये सोचते हुये रक्खा था कि वो हम दोनो के प्यार का ईश्वर का दिया अनमोल रत्न है, हम दोनो का अंश,तो नाम भी ऐसा हो जिसमें हम दोनो का अंश हो।वो हम दोनो की जान थी, भला कभी उसकी किसी बात को मैने या प्रिया ने टाला था,  पिछले दो सालों में ऐसा कभी नही हुआ, मगर आज उसकी किसी ख्वाइश को मैं पूरा नही कर पा रहा था।
मुझे याद है, इससे पहले कभी खुद को इतना लाचार और मजबूर कभी नही पाया था। मगर जीवन की एक घटना ने मेरे जीवन की दशा और दिशा दोनो को ही मोड दिया। आज सोचता हूँ कि क्या वाकई में उस समस्या का जो हल मैने निकाला था वही सिर्फ एकमात्र रास्ता था, उस समस्या से निकलने का। कितनी बार प्रिया ने कहा था- आप मुझे कुछ क्यों बताते क्यो नही, पता नही कौन सी चिंता आपको परेशान करती रहती है अगर कुछ पैसों की बात है तो आप चाहे तो मेरे सारे गहने बेच दो या गिरवी रख दो, सारे पैसे का इन्तजाम बडे आराम से हो जायगा, पर उन गहनों को मै हाथ भी कैसे लगा सकता था, एक भी गहना तो बनवा कर कभी नही दे पाया था उसे, हाँ शायद मेरे पिता जी या माता जी होते तो वो अपनी बहू को जरूर कुछ ना कुछ देते। मगर मेरे जैसा एक अनाथ लडका जो स्वयं का ही पिता होता है और मां भी, वो उसे सूखे प्यार के सिवा किसी भी वस्तु से अलंकृत नही कर सका था। आज जो कुछ भी प्रिया के पास था वो सब कुछ उसके पिता यानी मेरे श्वसुर की अकूत सम्पदा का एक छोटा सा अंश था, देना तो वो बहुत कुछ चाहते थे, मगर शायद प्रिया मेरे स्वभाव को जानती थी, और इसीलिये उसने पिता जी के लाख बार कहने पर भी उनके राजनगर वाले घर पर रहने को मना कर गोविन्द्पुर के एक छोटे से किराये के फ्लैट को अपने प्यार से किसी महल में परिवर्तित कर दिया था। मगर शादी के दिन से ही मैने मन में ढान लिया था कि प्रिया को बहुत बडा ना सही मगर उसे उसका एक घर जरूर बना कर दूंगा। पिछले तीन सालों में कडी मेहनत के बाद भी कुछ नही कर पा रहा था, और मकान की कीमतें थी कि दिन पर दिन आसमान छूती जा रहीं थीं। एक छोटी सी नौकरी से एक छोटा सा घर बनाना भी आसमान के तारे तोडना जैसा प्रतीत होने लगा था। मगर अपना घर बनाने का स्वप्न मन के कोने में हर पल सांस लेता था।
और फिर चार महीने पहले, मेरे आफिस के एक मित्र ने बताया कि नेहरु नगर में एक घर बिकने वाला हैं कीमत भी कुछ ज्यादा नही है सिर्फ पन्द्रह लाख, सात लाख रुपये का डाउन पेमेंट दे कर बाकी का पैसा इन्स्टालमेंट में दे देना, हाँ चार लाख कैश देना पडेगा। मैने कहा- सात लाख से कम नही हो सकते तो उसने कहा- ना यार उनको पैसे की जरूरत है इसीलिये तो मकान बेच रहे हैं। अपने सारे एल आई सी और बाकी जगहों से किसी तरह पैसा इकट्ठा करके मकान मालिक को पैसा देने जाने ही वाला था, कि अचानक आफिस से बॉस का फोन आया और मुझे तुरंत दिल्ली जाने को बोला। कल ही राजेश ने बताया था कि मकान मालिक को अगर आज पैसे ना दिये तो वो किसी और को मकान देने वाले है, सो मैं उसको पैसे दे कर दिल्ली चला गया, ये कह कर कि वो आज ही मकान मालिक को पैसा जमा कर दे। मगर दो दिन बाद, दिल्ली से वापस आने पर जब मैने राजेश से पैसे की रसीद मांगी तो उसने कहा दे दूंगा रसीद कहाँ चली जा रही है जैसे तेरे पास वैसे ही मेरे पास, और ऐसे करीब महीना निकल गया। फिर एक दिन जब आफिस गया तो पता चला कि राजेश नौकरी छोड कर कही और चला गया है, और जो पैसे मैने उसको अपने मकान के लिये दिये थे उन पैसों से उसने मेरे नही अपने मकान के लिये इटावा में कही जगह खरीद ली है।
मुझे कुछ समझ नही आ रहा था, कि अब मै क्या करूँ, ये भी जानता था, कि मेरे रहते प्रिया कभी अपने पिता से किसी भी तरह की कोई मदद नही लेगी। और मेरे पास आज घर चलाने तक के पैसे नही थे, आफिस से भी तीन लाख रुपये उधार लिये थे ये सोच कर कि पांच हजार महीने तनख्वाह से कटा भी दूंगा तो भी दस हजार में किसी तरह खर्च चल ही जायगा। बाकी कुछ और काम कर लूंगा तो उससे बाकी का कर्ज निकल जायगा। मगर सब कुछ बदल गया था, लेनदार भी कब तक चुप रहने वाले थे। आज आफिस में मांगते थे कल घर आ कर मांगते। 
मेरे पास सिर्फ और सिर्फ एक ही रास्ता बचा था, मेरे ना रहने पर प्रिया के पिता सहारा बन कर मेरी पत्नी और मेरी बेटी को वो सब दे सकते थे जो अब मै इस जीवन में नही दे सकता था।
और फिर कल मैने स्वयं को खत्म करने के निर्णय को सत्य करते हुये अपने दिल पर पत्थर रखते हुये नींद की गोलियां खा कर , अपनी पत्नी और पुत्री के जीवन की हर नींद को सुखमय करने का रास्ता निकाल ही लिया।
मेरे जाने के बाद जैसा मैने सोचा था मेरे श्वसुर जी आये और प्रिया से अपने साथ रहने को कहा, मगर ये क्या प्रिया ने तो जाने के लिये बिल्कुल मना कर दिया, बोली- पिता जी वो घर तो मेरे लिये उसी दिन पराया हो गया था जिसे दिन आपने अपना आशीर्वाद देकर मेरा हाथ इनके हाथ मे दे कर कहा था- बेटी अब नवीन के साथ ही तुम्हारी दुनिया है। अब आप ही बताओ कैसे मै उसकी उजडी दुनिया को छोड कर कही और जाऊँ, आप बिल्कुल चिन्ता ना कीजिये, मगर जीवन में कभी भी किसी की जरूरत हुयी तो सबसे पहले आपको याद करूंगीं। आप बस मुझे आशीर्वाद दो कि मै उनके सारे अधूरे सपने पूरे कर सकूँ। फिर वृद्ध पिता अपनी पुत्री से कुछ भी  ना कह सका बस चुपचाप बैठ कर अपने दामाद को चिरनिद्रा में लीन होते देखता रहा। प्रिया की अश्रुधार सावन की मूसलाधार वर्षा जैसी रुकने का नाम ना लेती थी। रोते रोते बस एक ही बात खुद से कहती जाती- कि मै आपकी पत्नी तो बन गयी मगर आपकी साथी नही बन सकी, आप दिन रात परेशान रहे और मैं पता तक ना कर सकी कि आप क्यों इतने परेशान हो। मुझे मकान नही घर चाहिये था, और वो तो उसी दिन मिल गया था जब आप मुझे मिले थे, उधर नवप्रिया रो कर बार बार अपनी तोतली आवाज में कभी अपनी माँ कभी अपने नाना से कहती- पापा से कहो उडे ना , पापा ने प्रामिस किया था , मेरी गुलिया लेने चलेगें......
चाह कर भी नवीन प्रिया से कैसे कहता कि - मुझे माफ कर दो | मै ही तुम्हारा पति तो बन गया था, मगर तुम्हारा साथी नही बन सका । बचपन मे ही अनाथ हो गया था सारा जीवन अनाथालय मे बिताया, जब स्कूल मे सारे बच्चों के पापा आते तो सोचता था मेरे पापा क्यों नही है और जब अपने श्वसुर के रूप मे पिता को पाया तो कभी उन्हे पिता मान ना सका। आह! क्यो नही समझ सका कि पिता से मदद लेने में अभिमान नही होना चाहिये था, क्यो नही उनके घर को अपना घर नही मान सका, सारा जीवन अनाथ आश्रम में बिताने के बाद जब मुझे घर में रहने का सौभाग्य मिला तो क्यों उनके घर को सिर्फ एक मकान समझने की भूल कर बैठा। क्यों नही समझ सका कि प्रिया के सिवा मेरे श्वसुर का और कोई भी तो नही था, तो जो कुछ भी उनका था वो आखिर और किसको देते। क्यों नही समझा कि वो सब जो मैं ईश्वर से मांगता था, उसने वो सब मुझे दिया था, मगर मैं ही पहचान ना सका था।
और आज जब मै ईश्वर के द्वार पर खडा हो कर उनसे अपनी पत्नी और पुत्री की खुशियों की याचना कर रहा हूँ कि प्रभु मेरी इस भूल को क्षमा कर दो, मेरे निर्जीव पडे हुये शरीर में वापस मेरे प्राण डाल दो तो क्यों ईश्वर मेरी भूल माफ नही कर रहे हैं। ठीक ही तो है- अपनी भूल की इससे बडी सजा और क्या हो सकती है कि मुझे उनकी तकलीफों को देखते हुये एक ऐसे जीवन को जीना है जिसका ना तो धरती पर कोई अस्तित्व है ना आकाश में, मुझे अपने शेष जीवन चक्र को पूरा करना है जो ना हो कर भी है, एक ऐसा जीवन जहाँ मेरे जैसे बहुत से लोग हैं मगर सभी अपने मे अकेले साथ होकर भी एक भीड जैसे कोई किसी को नही जान सकता, कोई किसी की आवाज नही सुन सकता, सिर्फ देख सकता है। हर कोई अपनों को दुखी होते, रोते बिलखते देखता है, कभी ईश्वर से माफी मांगता है तो कभी अपनी लाचारी पर चीखता और अपनी विवशता पर रोता है। चारो तरफ सिर्फ नैराश्य , करुण क्रन्दन, और बेबसी का साम्राज्य था। कर्म का यहाँ कोई अस्तित्व नही था, कितनी अकर्मणता का वास था यहाँ, धरती पर तो अपनी परेशानियों से निकलने के लिये हम कुछ उपाय कर भी सकते थे मगर यहाँ सिर्फ मौन हो कर देखने मात्र की क्रिया ही शेष थी। सभी को उस उम्र को जीना था जो शेष थी, वो उम्र जिसे दे कर हमे ईश्वर ने धरती पर भेजा था और हमने ईश्वरीय सत्ता के विरुद्ध आचरण करते हुये उसको जीने से मना किया था। मगर ईश्वर ने अपने लोक मे आने का हर द्वार तब तक के लिये बन्द कर दिया था जब तक हम उसकी दी हुयी आयु को जी नही लेते।  सच कहूं तो हममें से कोई भी आत्महत्या नही कर सका है, मृत तो सिर्फ शरीर हुआ है, आत्मा तो अभी शेष है, और इस आत्मा को अभी अपनी भूलों का प्रायश्चित करना शेष है..........

13 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर कहानी !.....हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर ,दीपावली की सुभकामनाएँ

    जवाब देंहटाएं
  3. भावनाओं से सजी सुन्दर कहानी |

    आइये, कीजिये:- "झारखण्ड की सैर"

    जवाब देंहटाएं
  4. आत्महत्या या खुदकुशी तो पलायन है समस्याओं से । कहानी बहुत मार्मिक है।

    जवाब देंहटाएं
  5. मार्मिक .. पलायन से हालात कब सुधरे हैं ...

    जवाब देंहटाएं
  6. "HAR KISI KO MUKAMAL JAHAN NAHI MILTI" ....

    जवाब देंहटाएं
  7. जूझना ही पड़ता है, जीवन की समस्याओं से।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुंदर !! भावना प्रधान कहानी के लिए हार्दिक बधाई ,प्रिय अपर्णा ।

    जवाब देंहटाएं

आपकी राय , आपके विचार अनमोल हैं
और लेखन को सुधारने के लिये आवश्यक

GreenEarth