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रविवार, 27 अक्तूबर 2013

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाज में नारी की स्थिति की विवेचना

प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु ने कहा है कि स्त्री की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति निर्भर है।
यूएनडीपी के महिला विकास रिपोर्ट २०११ के अनुसार १३६ देशों में वैश्विक लैंगिक अंतर सूचकांक मे भारत की स्थिति १०१, स्वास्थ्य मे दूसरा निम्नतम स्तर १३५, आर्थिक भागीदारी मे १२४ एवं शिक्षा में १२० है। ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव और संयुक्त राष्ट्र विकास  कार्यक्रम (यूएनडीपी) मानव विकास रिपोर्ट २०११  के अनुसार बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) 2010 मे भारत की स्थिति १०३ देशों मे ७३ है| संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन., २०११  के अनुसार कृषि में भारत की स्थिति १३३ देशो मे ९८ है । अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष. 8 अक्टूबर 2013 को उपलब्ध आकडों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद (नाममात्र) प्रति व्यक्ति में भारत की स्थिति १८४ देशों मे १३८ है|
     इन सभी आकडों से यह स्वतः ही अरस्तु का कथन सत्य प्रतीत होता है।  मनु स्म्रुति में भी कहा गया है कि .....
स्त्री प्रसन्न है तो सारा कुल ही आनंदमय हो जाता है ! पत्नी के रूप में नारी पति, पुत्र तथा गृहस्थ की सुखशांति की संरक्षिका भी मानी जाती थी ! इसलिए तो वेद उसे जागरूक रहने का आदेश देता है !
वेदों में,नर के रूप को जहाँ परमपुरुष कहा गया वही नारी को आदिशक्ति परम चेतना कहा गया ।मोहम्मद अली जिन्ना  ने भी औरत की शक्ति को कलम और तलवार से भी बडा माना हैं । सरल, सहज, समर्पण, सेवा,एंव  त्याग की प्रतिमूर्ति नारी,  आज २१ वीं सदी में भी उत्पीड़ित है।
स्वतंत्रता के पश्चात् पुरूषों के समक्ष बराबरी से आने का हौसला नारी में हुआ लेकिन नारी मुक्ति का आंदोलन आज भी जारी है। स्त्री मुक्ति मांग रही है, गृहिणी, घर में काम करती स्त्री, दफ्तर में काम करती स्त्री, कारखाने में काम करती स्त्री, मानवीय रिश्तों में बंधी स्त्री, पुरूष प्रेम के द्वन्द्व में दुविधाग्रस्त स्त्री, बौद्धिक बनती स्त्री, अक्षर ज्ञान से रहित स्त्री, साक्षर स्त्री, उच्च पदस्थ स्त्री, स्त्री........? स्त्री....? मुक्ति चाहती है। मुक्ति को परिभाषित करते हुए फ्रायड कहते हैं कि ‘‘चयन और निर्णय की स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व एवम् मनोविज्ञान के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।‘‘
वैदिक काल की उच्च प्रस्थिति प्राप्त नारी का सच, पुरूष व्यवहार के समक्ष उजागर हो जाता है। विद्वानों का मानना है कि वैदिक युग में महिलाओं को मर्दों के बराबर का हक प्राप्त था और स्वयंवर के द्वारा वे खुद अपने जीवनसाथी का चुनाव करती थीं। ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रन्थ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमे मैत्रेयी और गार्गी के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतीय संस्कृति की उदगम स्थली गंगोत्री तो वेदमाता ही है। जीवन को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पवित्र धामों में स्नान कर मुक्ति का अधिकारी बनाने वाले वेद को माता कहा जाता हो, गायत्री को ,‘ गंगा को , गाय को, देश की पवित्र भूमि को माता कहा गया है, क्योकि उस समय स्त्री सम्मान का सूचक थी, अशिक्षित गंवार एवं मूर्खा नारी को बनाना भारत का कभी धर्म नही रहा।
अगर भारत का इतिहास पलटकर देखें तो सीता , दुर्गा , पार्वती को माता का दर्जा दिया गया है , चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में इस प्रकार की प्रशिक्षित महिलाओं का उल्लेख किया गया है । अवस्ता और पहलवी में ,नर और नारी की शिक्षा में थोड़ी सी विभिन्नताएँ थीं। जिससे परिवार संभालने के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक जिम्मेदारी को भी बखूबी निभा लेती थी । बौद्ध काल में भी विदुषी होने का प्रमाण मिलता है। बावजूद नारियाँ, शिक्षा ग्रहण करने संघ में जाया करती थीं। जहाँआरा, जेब्बुनिसा, नूरजहाँ, रजिया सुल्ताना, बेगम हजरज मुगलकाल युग में स्त्रियों की स्थिति का प्रतिनिधित्व करती नजर आती हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के साथ महात्मा गांधी की सामाजिक न्याय की प्रक्रिया ने स्त्री को पुरूष के बराबर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन ने नारी को समानता का स्थान प्रदान करने के लिए संगठित किया। भारतीय नारी जागरण का कार्य इसी काल में राजा राम मोहन राय, विवेकानंद, तिलक, दलपतराय, दुर्गाराम, मेहता जैसे पुरूष समाज सुधारकों द्वारा प्रारंभ किया गया। राजा राम मोहन राय द्वारा प्रारंभ किये गये इस सामाजिक आंदोलन में नारी की दुर्दशा को आर्थिक कारणों से जोड़ा गया। इंदिरा गाँधी, सरोजिनी नायडू, मदर टेरेसा , रानी लक्ष्मी बाई जैसी महिलाओं ने कर्मों की बदौलत अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज करवाया है।
आज सभी जगह चाहे वह घर हो या बाहर, पुरूष वर्ग की उच्चता और निम्नता के भाव के साथ महिलाओं के प्रंति अत्याचार का स्वरूप दैहिक मानसिक और लैगिंग उच्चतम रूप में सर्वत्र दिखाई देता है और इन अत्याचार एवं अपराधों के उपचारार्थ बनाये गये कानून सामाजिक पहलुओं के अनुरूप नहीं है। सामाजिक दृष्टिकोण से अनुपयुक्त है। वर्तमान न्याय प्रक्रिया न्यायालय और न्याय को समर्थ बनाने वाली नहीं है।

कानून बने, पर उन्हें माना किसने: बाल विवाह सन 1929 में गैरकानूनी घोषित हुआ, फिर भी आज लड़कियों की औसतन 14-15 वर्ष की उमर में शादी हो जाती है. शहरी लड़कियों की शादी की औसत उम्र 18-20 वर्ष तथा ग्रामीण लड़कियों की शादी 10 साल से कम उम्र में ही हैं. विधवा विवाह कानून सन 1856 में पारित हुआ था लेकिन सच बात तो यह है कि आज भी इक्के-दुक्के पुरुष ही विधवा से शादी करने का साहस जुटा पाते हैं. बाकी तो उसे जूठन समझ कर शादी से साफ इनकार कर देते हैं. हिंदू कोड बिल सन 1955 में पास हुआ, पर कितनी स्त्रियां पति के दुराचारों को, तलाक के अधिकार का उपयोग़ कर, चुनौती दे पाती हैं ? आज हमारे पास बलात्कार (धारा 376 आईपीसी),अपहरण और अपहरण निर्दिष्ट उद्देश्यों (धारा 363 -373 आईपीसी), दहेज के लिए हत्या मौतें या उनके प्रयास (धारा 302/304-B ​​आईपीसी), अत्याचार - मानसिक और शारीरिक दोनों (धारा 498 ए आईपीसी), छेड़छाड़ (धारा 354 आईपीसी), यौन उत्पीड़न (धारा 509 आईपीसी), लड़कियों के आयात (21 तक उम्र के वर्ष) (धारा 366 बी आईपीसी) जैसे बहुत से कानून होने के बाद भी, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की २०१२ की महिलाओं के खिलाफ अपराध के रिकार्ड के अनुसार के केवल २०१२ मे, प्रति २ मिनट में अपराध की रिपोर्ट घटना दर्ज की गयी, अपराध की दर महिलाओं के खिलाफ 2012 में 41.7 था.
आसाम में यह उच्चतम है जो कि ८९.५  है। इसी ब्यूरों की रिपोर्ट मे पांचवे अध्याय की ५ अ सारणी मे, २००७ से २०१२ के बीच के आकडों के औसत निकाला गया, जिसके अनुसार , भारत में प्रति १ घंटे में तीन रेप ,४-५  अपहरण , एक दहेज , २ -३ दहेज के कारण मृत्यु, १०-११ का पति द्वारा शोषण , और ५-५ महिलाओं की शालीनता पर हमले की घटनाएं होती हैं।

शक्ति और सामर्थ्य के अतिरिक्त मानसिक दृष्टि से हीनता की भावना उसमें भरने में समाज अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
नारियों के साथ एक और विडंबना यह है कि नारीपुरुष यौन संबंधों का सारा प्रतिफल उन्हें ही भुगतना पड़ता है गर्भ के रुप में। पुरुष तो हाथ झाड़कर अलग हो जाता है और नारी को नौ महीनों तक कुछेक क्षणों का परिणाम साथ-साथ रखना पड़ता है. इस कारण नारी को डरना पड़ता है और पुरुष निर्भीक रह्ता है।चिकित्सकीय साक्ष्य भी साथ ही साथ पुलिस विभाग का व्यवहार ये संपूर्ण प्रक्रिया न्याय को हासिये में ला खड़ा कर देते है । शारीरिक अपराध संबंध में महिलाएं जब पुलिस थाना में जाकर रिर्पोट लिखाने में आज भी एक भय सा महसूस करती है । प्रत्येक विज्ञापन आज स्त्री के स्त्रीत्व को छलता हुआ दिखाई देता है। कोई भी वस्तु चाहे उसका उपयोग केवल पुरुष द्वारा किया जा रहा हो, ब्लेड, डिओ, आदि सभी पर एक असामान्य आकर्षण द्वारा स्त्री की भोग्या छवि को ही दर्शाया जा रहा है। उसे इंसान नही ग्लैमर डाल के रूप मे ही देखा जा रहा है। जिससे समाज के भीतर उनकी छबि भी प्रभावित हो रही है। समाज का वातावरण हर ओर एक शंका से ग्रसित है। शिक्षित और आत्म्निर्भर नारी भी निर्भय हो कर कही भी कभी भी आ जा नही सकती, एक अनचाहा डर उसके व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से आकार नही लेने देता। 

 कार्मिक लोक शिकायत .विधि एवं न्याय विभाग की संसद की स्थायी समिति की 62वीं रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2009 तक कुल सरकारी र्कमचारियो मे महिलाओ का प्रतिशत 10.4 है तथा किसी भी विभाग मे उनका अनुपात 35प्रतिशत से ज्यादा नहीं है ।सर्वाधिक कर्मचारी वाले रेलवे विभाग मे केवल 6.43प्रतिशत तथा रक्षा क्षेत्र मे 11.77प्रतिशत महिलाएं है। 2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामला भारत में १६ दिसम्बर २०१२ में हुई एक बलात्कार तथा हत्या की घटना थी। 14 सितंबर २०१३ को इस मामले के लिए विशेष तौर पर गठित त्वरित अदालत ने चारों वयस्क दोषियों को फांसी की सज़ा सुनाई। सब लगभग सारा ही समाज इस संदर्भ मे जागरुक था, मीडिया अपना सहयोग दे रहा था , उस स्थिति मे भी न्याय मिलने में, १० माह का समय लगा। आज भारत में मातृत्व संबंधी मृत्यु दर दुनिया भर में दूसरे सबसे ऊंचे स्तर पर है. देश में केवल 42% जन्मों की निगरानी पेशेवर स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा की जाती है. यूएनडीपी मानव विकास रिपोर्ट (1997) के अनुसार 88% गर्भवती महिलाएं (15-49 वर्ष के आयु वर्ग में) रक्ताल्पता (एनीमिया) से पीड़ित पायी गयी थी। सरकार महिलाओ के सम्मान के प्रति कितनी जागरुक है इसका पता हम इस बात से ही लगा सकते है कि  सरकार ने राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान विदेशियों को सेक्स परोसने के लिए दिल्ली में 37900 सेक्स वर्कर पंजीकृत किए थे। 
जिस आजादी की लडाई में रानी लक्षमीवाई, रजिया सुल्ताना, बेगम हजरत मह,  रानी अवंतीबाई जैसी अनेक नारियों ने अपनी वीरता का परिचय देश को स्वाधीन कराने के लिये दिया उसी देश में, आजादी के ६६ वर्षों के उपरान्त भी ,स्त्री को आत्मरक्षा करने हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन, गौरव का विषय नही, आज हम स्वयं को उन लोगो से असुरक्षित महसूस कर रहे है, जो लोग जो घर मे हमारे अपने है,  जिनके साथ हम कंधे से कंधा मिला कर राष्ट्र निर्माण करना चाहते है, और वो समाज जिसमें स्त्री को वन्दनीय कहा जाता है। आज हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग को आवश्यकता है सोच परिवर्तन की, कानून का अस्तित्व तो घटना के बाद होता है,किन्तु जब तक सोच स्वस्थ नही होगी, नारी के स्थिति मे कोई चमत्कारिक परिवर्तन नही आने वाला, आरक्षण जैसी सुविधायें समाज में सकारात्मक सोच नही लाती, वरन पुरुषों मे महिलाओ के प्रति द्वेष उत्पन्न करने वाला मीठा जहर मात्र है। आज जरूरत है नारी को मानसिक स्तर पर सकारात्मक करने की, और यह  है जिम्मेदारी है समाज को बनाने वाली दो्नो इकाइयों- स्त्री एंव पुरुष की ही है।
** मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रोघोगिकी संस्थान में आयोजित एक कार्यक्रम में हुयी गोष्ठी में व्यक्त किये गये विचार जिसमें दितीय पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।




8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (28-10-2013)
    संतान के लिए गुज़ारिश : चर्चामंच 1412 में "मयंक का कोना"
    पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आदर्शों की रेखा वांछित,
    फिर भी नर मन स्वार्थ झलकता।

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  3. सुंदर विवेचन अपर्णा बहन साधु वाद ..मेरे भी ब्लॉग पर आये.. सुभ दीपावली

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  4. विस्तृत आंकड़ों के साथ सार्थक विवेचन ...

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  5. It's very important about Women Impormwnt and safety..Trully Said...KP

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  6. आदरणीय महोदया ,
    सादर प्रणाम,

    पिछले कई दशक से हमारे समाज में महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा देने के सम्बन्ध में एक निर्थक सी बहस चल रही है. जिसे कभी महिला वर्ष मना कर तो कभी विभिन्न संगठनो द्वारा नारी मुक्ति मंच बनाकर पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाता रहा है. समय समय पर बिभिन्न राजनैतिक, सामाजिक और यहाँ तक की धार्मिक संगठन भी अपने विवादास्पद बयानों के द्वारा खुद को लाइम लाएट में बनाए रखने के लोभ से कुछ को नहीं बचा पाते. पर इस आन्दोलन के खोखलेपन से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है शायद तभी यह हर साल किसी न किसी विवादास्पद बयान के बाद कुछ दिन के लिए ये मुद्दा गरमा जाता है. और फिर एक आध हफ्ते सुर्खिओं से रह कर अपनी शीत निद्रा ने चला जाता है. हद तो तब हुई जब स्वतंत्र भारत की सब से कमज़ोर सरकार ने बहुत ही पिलपिले ढंग से सदां में महिला विधेयक पेश करने की तथा कथित मर्दानगी दिखाई. नतीजा फिर वही १५ दिन तक तो भूनते हुए मक्का के दानो की तरह सभी राजनैतिक दल खूब उछले पर अब १५ दिन से इस वारे ने कोई भी वयान बाजी सामने नहीं आयी.

    क्या यह अपने आप में यह सन्नाटा इस मुद्दे के खोख्लेपर का परिचायक नहीं है?

    मैंने भी इस संभंध में काफी विचार किया पर एक दुसरे की टांग खींचते पक्ष और विपक्ष ने मुझे अपने ध्यान को एक स्थान पर केन्द्रित नहीं करने दिया. अतः मैंने अपने समाज में इस मुद्दे को ले कर एक छोटा सा सर्वेक्षण किया जिस में विभिन्न आर्थिक, समाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक वर्ग के लोगो को शामिल करने का पुरी इमानदारी से प्रयास किया जिस में बहुत की चोकाने वाले तथ्य सामने आये. २-४०० लोगों से बातचीत पर आधारित यह तथ्य सम्पूर्ण समाज का पतिनिधित्व नहीं करसकते फिर भी सोचने के लिए एक नई दिशा तो दे ही सकते हैं. यही सोच कर में अपने संकलित तथ्य आप की अदालत में रखने की अनुमती चाहता हूँ. और आशा करता हूँ की आप सम्बंधित विषय पर अपनी बहुमूल्य राय दे कर मुझे और समाज को सोचने के लिए नई दिशा देने में अपना योगदान देंगे.

    http://dixitajayk.blogspot.com

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