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बुधवार, 11 मार्च 2015

आखिरी पन्ना


ना जबान को किसी स्वाद की ख्वाइश थी, ना तन कभी फैशन के दायरों में बंध सका था, सुधा जी कितनी ही बार खीझ सी जाती थीं जब वो बिना नमक वाली दाल को भी ऐसे प्रेम से खा जाते थे जैसे कोई मोहन भोग हो। सारा जीवन ही तो उन्होने दो जोडी धोती और कुर्ते में काट दिया था, जीवन का हर पल किसी ना किसी के लिये समर्पित था, जब से मैने देखा हमेशा उन्हे किसी ना किसी काम को करते ही पाया। हर रिश्ते के साथ उन्होने अपने दायित्व का पालन किया, बेटे, भाई, पति, पिता सभी की भूमिका में उनको आदर्श माना जाता था। कभी किसी भी मुश्किल में उनके माथे पर चिन्ता की एक भी लकीर नही खिंची थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि अस्सी वर्षों का उम्र का सफर आत्महत्या पर जा कर रुका।
करीब तीस वर्ष पहले मैं प्रभाकर जी के घर किरायेदार बन कर आया था, सदैव ही मुझे उनसे पिता समान स्नेह मिला। उन्होने ही मेरी भेंट दिव्या से करायी थी, और विवाह वेदी पर कन्यादान कर किरायेदार से दामाद बना मुझे अपना आशीर्वाद दिया था। यदि मुझे उनकी प्राकृतिक मृत्यु का समाचार मिला होता तब मुझे दुख तो अवश्य ही होता किन्तु उनकी आत्महत्या करने की खबर ने मेरे मन में हजारों प्रश्नों का जाल सा बिछा दिया।
आत्महत्या भी ऐसे की गयी जिसे किसी भी तरह से दुर्घटना नही माना जा सकता। उनके पार्थिव चेहरे पर कही भी तो कोई अशान्ति का चिन्ह नही था, कितना शान्त, निर्मल, ओजमय था वो मृत शरीर। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बस अभी निद्रा टूटेगी और वो चल देगें अपने किसी अधूरे काम को पूरा करने।
आज उनके देहावसान को एक सप्ताह गुजर चुका था, मगर प्रश्न अभी तक अनुत्तरित ही थे। समय की कमी के कारण तेरह दिन के क्रिया कर्म को तीन दिन तक सीमित कर, दोनो पुत्र कल वापस लौट गये थे। बेटे के इम्तेहान थे सो दिव्या को भी मैने वापस भेज दिया था । मै सवालों को खुला नही छोड सकता था, या ये कहे कि शेष किसी के पास ना तो समय था ना जिज्ञासा कि वो खुद को सवालों के जाल में उलझाता।
घर मे बस तीन लोग बचे थे, मै, दिव्या की माता और कुन्दन। वो कुछ अस्वस्थ थीं, तो उनको दवा देकर, सुला कर मै स्ट्डी रूम में कुछ पढने के उद्देश्य से आ गया। मै और प्रभाकर जी अक्सर अपना खाली समय यही बिताया करते थे।
टेबल पर हफ्ते भर के अखबारों का ढेर लगा हुआ था। प्रभाकर जी को यही बैठकर अखबार पढने का शौक था, तो कुन्दन सुबह उठते ही अखबार ला कर मेज पर रख देता था, शायद ये कार्य उसकी दिनचर्या का ऐसा हिस्सा बन गया था कि बिना ये सोचे कि अब इस घर में कोई भी स्ट्डी टेबल पर आ कर अखबार पढने वाला नही है, रोज पेपर ला कर रख दिया करता था। अरे आप लोगों को कुन्दन का परिचय देना तो मै भूल ही गया। कुन्द्न नेपाल का निवासी था, अपनी सौतेली माँ के अत्याचार से दुखी हो एक दिन घर छोड कर भाग आया था, जिस ट्रेन से प्रभाकर जी दिल्ली आ रहे थी, उसी की सीट के नीचे छुपा हुआ था। फिर अपने प्रभाकर जी तो थे ही सहदय सो उसको अपने साथ घर ले आये, ये घटना कोई सात आठ साल पहले की है, तबसे कुन्दन घर का नौकर कम मालिक ज्यादा था, क्या चीज प्रभाकर जी को खानी है क्या नही खानी है इसका निर्णय उसके ही हाथ था, सुबह प्रभाकर जी की नींद खुलने से पहले उठता और उनके सोने के बाद ही सोता था।
आज के अखबार के पन्ने उलटने पलटने के साथ ही प्रभाकर जी की मृत्यु का कारण फिर से मुझे बेचैन करने लगा। उनके साथ बिताये पल किसी रील की तरह मेरे जेहन में उभरने लगे थे, मृत्यु के दो दिन पहले कहे उनके शब्द अचानक दिमाग में कौंध उठे - रत्नेश आज कल एक कहानी लिखने की सोच रहा हूँ, वैसे तो ये काम कभी नही किया मगर मरने से पहले कम से कम एक कहानी लिखने की इच्छा है, तुम्हे पता है मैने कहानी का शीर्षक भी सोच लिया है- आखिरी पन्ना।
स्टडी रूम में थोडी देर खोजने के बाद मेरे हाथ में थी उनकी लिखी पहली और आखिरी कहानी। ये क्या ये तो उनकी अपनी कहानी थी, पढते पढते मेरी उत्सुकता अपने चरम पर थी, हो ना हो उनकी मृत्यु का रहस्य भी इसमें जरूर था,
ये कहानी उनके जीवन का सार थी, इसमें एक ऐसा दिवाकर पांडे था, जिसे मै जानता भी था और नही भी जानता था। कितनी ही ऐसी बातें थी इस कहानी के पात्र की जो हू बहू प्रभाकर जी के चरित्र से मिलती थी, अगर ये पात्र काल्पनिक नही, वो स्वयं को ही केन्द्र में रख कर लिख रहे थे तो कई रंग थे इस पात्र के जिनसे मैं अब तक अछूता ही था।
शान्त सुलझे दिखने वाले व्यक्ति के मन में इतनी उथल पुथल,  शिव सा जीवन जी रहे थे, कंठ में कितना हलाहल भरे सबको जीवन दे रहे थे। आह कैसे उनके इतना निकट होते हुये भी कभी उनकी विवशताओं को समझ नही सका।
वसीयत में अपनी जायदाद का कुछ हिस्सा कुन्दन के नाम कर देने पर इतना बडा आरोप, वो भी उनके पुत्रों द्वारा। वो पुत्र जिनके लिये उन्होने जीवन की हर मुश्किल हर बाधा को खुद तक समेट लिया था, मगर उन पर कभी किसी तकलीफ की परछाई तक नही पडने दी थी। हर व्यक्ति तो जानता था कि कुन्दन उनके लिये पुत्र समान है , मगर पुत्र होने का आरोप ही लगा दिया गया। क्या जिसको उन्होने संरक्षण दिया उसका जीवन सुरक्षित करने का दायित्व निभाना गलत था, वो जो उनकी पिछले आठ सालों से एक बेटे से बढ कर सेवा कर रहा था, वो जिसका उनके सिवा दुनिया में कोई नही था, वो जिसके पास उनके आशीष के सिवा कोई छत नही थी, उसको अपनी पूंजी का कुछ भाग दे देना कोई अपराध था।
जीवन कितना मुश्किल हो जाता है, जब अपने ही आप पर विश्वास खो बैठे, अपना रक्त ही आपको दोषी मान ले, जिसके चरित्र को चरित्रार्थ करते लोगों की जबान ना थकती हो, उस पर ही उंगली उठ जाय। जिसने सारा जीवन ही चरित्र निर्माण में लगा दिया हो, वो कैसे उसको आरोपित होते देख सकता था।

मृत्यु के एक दिन पहले लिखी कहानी के आखिरी शब्द- जीवन सांसों के बन्धन में बंधा अवश्य होता है, मगर वो जीवन की धुरी नही। धुरी तो है चरित्र, जो आपके जीवन को परिभाषित करता है, मै लिखना चाहता हूँ एक ऐसा जीवन जिसका एक एक शब्द गंगा सा स्वच्छ , निर्मल और पवित्र हो, नही देख सकता कि कोई इस गंगा को अपवित्र करने की कोशिश करे, इसलिये मोडना ही होगा इस गंगा की धारा को, जहाँ से वह अवरोध रहित हो बह सके। 

2 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन कितना मुश्किल हो जाता है, जब अपने ही आप पर विश्वास खो बैठे, अपना रक्त ही आपको दोषी मान ले, जिसके चरित्र को चरित्रार्थ करते लोगों की जबान ना थकती हो, उस पर ही उंगली उठ जाय। जिसने सारा जीवन ही चरित्र निर्माण में लगा दिया हो, वो कैसे उसको आरोपित होते देख सकता था। जीवन के विभिन्न रूपों को दर्शाती सार्थक कहानी लिखी है आपने अपर्णा जी

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