बेटी हूँ मैं,
है मुझे अहसास
पिता के मान का
घर की आबरू हूँ मैं
जानती हूँ फर्क
बेटे और बेटी में
समझती हूँ चिन्ता
एक पिता की मै
और परिचित भी हूँ
समाज के चरित्र से
नही दोष नही देती
किसी को
न परिवार को न प्रथाओं
को
मगर करती हूँ अब इन्कार
उन बन्धनों से
जो नही समझते
मेरी कोमल भावनायें
जो बना देते है
स्त्री को अबला का
पर्याय
और कर देते है अनिवार्य
एक पुरुष का साथ
बना देते है
अबला को बेल
पुरुषरूपी तना
सगर्व लेता है भार
बेल को पल्लवित रखने का
पुरुषरूपी तना
सगर्व लेता है भार
बेल को पल्लवित रखने का
आजीवन वो अबला
रहती है निर्भर
उस मजबूत तने पर
कभी करती है ब्रत, कभी
पूजा
उस तने की सलामती के लिये
उस तने की सलामती के लिये
कि जानती है
सम्भव नही उसका जीवन
मजबूत तने के बिना
वो तो परजीवी है
कितनी आसानी से
बना दी जाती है
जीवनदायिनी ही परजीवी
तजती हूँ आज अभी से
उस मजबूत तने को
बहुत विनम्रता के साथ
कि चाहती हूँ बनाना
इक छोटी सी पहचान
समझना चाहती हूँ
निर्भरता का प्राकॄतिक
सूत्र
जहाँ निर्भर हैं
वायु, जल, अग्नि
स्वतंत्र नही व्योम
धरा भी
वहाँ चाहती हूँ परखना
तने की मजबूती
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-09-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2741 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
Superb ji..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपको जन्मदिन-सह-धन तेरस की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत अच्छी नज़्म लिखी है...!
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लिखा है .... बधाई
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