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शनिवार, 9 सितंबर 2017

चंद अशरार जिन्दगी के नाम


मोहताज नही, हम किसी की पसंदगी के

जीने के लिये खुद का मुरीद होना चाहिये

संवरना निखरना क्यूं भला किसी के लिये
आइने में सूरत-ओ-निगाह बोलनी चाहिये

जीना औरो के दम, भला ये कैसी जिन्दगी
हौसला गिरके उठने का, खुद में होना चाहिये

खुशियों के किले क्या बनाना, किसी कांधे पे
मुस्कुराने को , बस बेफिर्की दिल की चाहिये

नही बढाना मुझे कद अपना, चंद ओहदों से
नजरों में मुझे सिर्फ, अहमियत मेरी चाहिये

बयां हो न सकेगा हाल दिल का, लफ्जों से
इश्क-ए- दरिया को सिर्फ शोख लहर चाहिये

न कर सकेंगें जुगनू, एहतराम मोहब्बत का,
ये वो शय है, जिसे पतंगे सा जिगर चाहिये

लोग आते है जाते है ये दस्तूर दुनिया का
शौक सफर का रखते हैं मकां नही चाहिये

खुशबू गुलाब की रूह तक भी बस सकती है 
सलीका कांटों को सहेजने का सिर्फ चाहिये

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-09-2017) को "सूखी मंजुल माला क्यों" (चर्चा अंक 2724) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. काफ़िया नहीं मिल रहा, काफ़िया मिलाने से गजल खुबसुरत हो जाती है, और पढ़ने में तरन्नुम पैदा करती है.....

    जवाब देंहटाएं
  3. शफक-ओ-शफ़्फ़ाफ़ सितारे की सरगोशियों तले..,
    तश्ते फलक पे चाँद हो तो फिर ईद होना चाहिए.....

    जवाब देंहटाएं

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