हमे
जिसने भी देखा, अपनी निगाह से देखा
मेरी निगाह से मुझे न किसी निगाह ने देखा
ये शिकायत सिर्फ मेरी नही, हर निगाह की है
ये शिकायत सिर्फ मेरी नही, हर निगाह की है
पढकर कई निगाहों को मेरी निगाह ने देखा
जुदा नही आरजू इन निगाहो की
तेरी निगाहों से
यही कहा मेरी निगाह ने जब तेरी
निगाह ने देखा
तरस आया तुम्हे मेरी बेबसी
पर और हमे तुम पर
जब चुराकर निगाह जाते तुझे मेरी निगाह ने देखा
सुबूत चाहिये किसे तेरी शराफत
का जानिब
काफी है वो नजारा जो मेरी निगाह
ने देखा
यकी हमको तो नही पर्देदारी
की रिवायत का
नकाबपोशों को भी गिरते मेरी
निगाह ने देखा
कर न सकी साबित वो गुनहगार को अदालत में
कि दर्द का तमाशा गूंगी बहरी निगाह ने देखा
सुदर कविता है
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (25-01-2018) को "कुछ सवाल बस सवाल होते हैं" (चर्चा अंक-2859) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उत्कृष्ट व प्रशंसनीय प्रस्तुति.......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लाग पर आपके विचारो का इन्तजार