palash "पलाश"
पलाश सिर्फ अपनी डाल पर लगता है और खिल कर धरती पर गिर जाता है। वह सिर्फ अपने लिए अपनी डाल पर ही सीमित रहता है। और डाल से अलग होते ही अपने अस्तित्व को समाप्त कर देता है। यही है उसका पूर्ण समर्पण उस डाल के प्रति जिसने उसको जीवन दिया ।
बुधवार, 17 अप्रैल 2024
स्व प्रतियोगी
जरूरी तो नही - भाग - २
सींचनें से पेड में फल आये जरूरी तो नही
हम
चाहें जिसे, वो हमें चाहे जरूरी तो नही
चमन
से गुजरे तो खुशबू भी जरूर आयेंगी
महके
हर फूल बागीचे का जरूरी तो नही
लेता
है करवटें चांद भी तेरी मेरी ही तरह
निहारों
तुम और हो पूनम जरूरी तो नही
याद
में जिसकी तुमने रात को सुबह किया
नाम
उसके लबों पे हो तेरा जरूरी तो नही
ना कर
मदद किसी की लिये आरजू दिल में
कल
तेरे लिये भी कोई आये जरूरी तो नही
यकी
रख खुदा पे मिलेगा सब कुछ ही तुझे
तेरी
जगह तेरे वक्त पे मिले जरूरी तो नही
साथ
हिम्मत ओ हौसलों के कदम बढाये जा
कटेगी
हर दफा पतंग पलाश जरूरी तो नही
रविवार, 31 दिसंबर 2023
प्रेम और जीवन
जब रातों में चुपके से सिरहाने आकर
महबूब ना फेरे
बालों में उगलियां
जब प्रियतम
ना पढ सकें वो आंखें,
जिनमें बसा
हुआ है वह स्वयं
जब ना महसूस
हो उसके दूर जाने की
दिल को घडी
घडी टीस
जब कहने के
लिये, मन की बात
खुद से ही कई
कई बार करनी पडे बात
जब तुम्हारे
होने के मायने
खत्म हो जाये
उसके लिये,
जिसे माना हो
तुमने सबकुछ
समझ लेना उस
रोज
मर चुका है
प्रेम
और प्रेम कभी
अकेले नहीं मरता
मरता है उसके
साथ
आत्मबल
आत्मविश्वास
मर जाती है
चाहत
मर जाते हैं
सपने
हां जो जीता
है वो होता है
यह मिट्टी का
शरीर
वो शरीर जो
बस मैदान हैं
जिसमें खेल
रहीं हैं सांसें
खेल – बस आने
जाने का
गुरुवार, 28 दिसंबर 2023
उघम
आखिरकार उसे अपनी इन परिस्थितियों में ना चाहते हुये भी भीख मांगना ही एक अंतिम मार्ग दिख रहा था। वह सोचने लगा कि कल तक वह भिखारियों को देख कर हमेशा यही सोचता था, कि कैसे ये लोग जीवन यापन के इस सरल से मार्ग को चुन लेते हैं कैसे सरलता से अपने आत्म सम्मान को मार कर यूं अजनबियों के सामने हाथ फैला देते हैं? अपंग, बच्चों और वृद्धों को देखकर तो फिर भी वह समझ पाता था कि ये अपनी शारीरिक कमियों के कारण भीख मांगनें को विवश हुये होंगें मगर स्वस्थ दिखते युवा या अधेड को देख हमेशा ही उसके मन में यह विचार आता कि मेहनत से बचने के लिये ही ये लोग इस आसान से रास्ते को पेट भरने के लिये चुन लेते हैं।
मगर आज उसे खुद को देख कर यह अहसास हो रहा था, कि सड़क के किनारों पर या मन्दिरों के बाहर बैठे लोग तो प्रत्यक्ष भिखारी हैं, समाज के अंदर तो ना जाने कितने अप्रत्यक्ष भिखारी अपने आस पास रोज ही देखे जा सकते हैंं,
आज पचीस की उम्र में वह सौ से ज्यादा जगह तो अपनी नौकरी की अर्जी लगा ही चुका था, मगर किसी जगह पैसे की दरकार होती किसी जगह परिचय की। ऐसा लगता कि क्या कोई नही जो मेरी मार्कसीट्स देख कर मेरी योग्यता का अनुमान लगा सके, पढाई की दुनिया से निकलते ही कहां से लाऊं मै अनुभव? ऐसा नही था कि मेरे पिता जी १-२ लाख ना दे सकते हो या मेरे परिवार जनों में कोई किसी दफ्तर में थोडा बहुत परिचय ना रखता हो, मगर मैं उसे भी भीख के समान ही समझता था। आखिर एक छोटी मोटी सी नैकरी के लिये किसी के सामने पैसे या परिचय के लिये हाथ फैलाना भीख मांगना नही तो मांगने से कुछ कम भी ना था। मगर आज ऐसा लगने लगा था शायद मेरे पास भी एक अप्रत्यक्ष भिखारी बनने के अलावा कोई मार्ग शेष न था।
तभी उसके अंतर्मन ने उसे पुकारा- तुम जब खुद के सारे दरवाजे बंद करके देखोगे, तो ऐसे ही रास्ते दिखेंगें, आज भी अपनी उसी बात पर अडिग रह क्यों नही हो कि " भिक्षा मांगना कभी अंतिम रास्ता भी नहीं हो सकता", तुम युवा हो तो परिश्रम का विकल्प क्यूं नहीं चुनते। शायद तुमने आस पास जो अपने झूठे अहम का औरा बना लिया है, वह तुम्हे कुछ देखने ही नहीं देता। तुम अपने ही पिता से सहायता मांगनें और भीख मांगने के अंदर को ही नहीं समझ पा रहे। क्या तुम अपने पिता से पैसे लेकर कोई छोटा सा उघम भी नहीं कर सकते हो। केवल अपने अंको को ही योग्यता की माप क्यों मानते हो? क्या बुद्धि बल का प्रयोग करने की तुममें सामर्थ्य नहीं, यदि है तो विचार करो आखिर तुम सीमित से पैसे से क्या कर सकते हो?
तभी उसने देखा उसके पिता घर के खुले आगंन में अपना सब्जी का ढेला बाजार ले जाने को तैयार कर रहे हैं, वह सोचने लगा कि क्यों उसने आजतक अपने पिता में एक मेहनती व्यक्ति नहीं देखा, एक उघमी नहीं देखा। उसे अहसास हुआ कि रोजी रोटी कमाने का साधन तो उसके सामने ही था, मगर अपनी किताबी योग्यता को ही जीविका का आधार मानने के कारण वह इसे कभी अपने लिये एक विकल्प के रूप में देख ही नहीं सका।
पिता के घर से निकलने से पूर्व वह यह निश्चय कर चुका था कि वह अपने ज्ञान से, बुद्धि बल से अपने पिता से इस उघम को एक दिन ऐसी जगह ले जाएगा जहां से वह कई भीख मांमने वालों को सक्षम बना सके। दूर से ही वह अपने पिता के सब्जी के ठेले को ऐसे देखने लगा जैसे एक विधार्थी अपनी कलम या एक सैनिक अपनी बंदूक को देखता है और आंखों के सामने उसे मेहनत से सजी वो सब्जी की दुकान दिखने लगी जहां वह आवाज लगा कर सब्जी नहीं बेच रहा और ना ही उसके पिता गलियों गलियों में घूम रहे हैं बल्कि उसके पिता एक अच्छी सी कुर्सी पर बैठे पैसे गिन रहे हैं और वह देश के कोनों कोनों से विभिन्न प्रकार के फल - सब्जियों लाने वाला शहर का प्रसिद्ध क्रेता है।