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बुधवार, 17 अप्रैल 2024

स्व प्रतियोगी



रोहित का आज आठवीं कक्षा का परिणाम घोषित होना था। पिछले वर्ष वह प्रथम आया था, इस वर्ष भी उसे यही उम्मीद थी। विघालय में प्रतिवर्ष परीक्षा परिणाम घोषित करने के लिये एक बडा आयोजन होता था। जिसमें सभी बच्चों के अभिभावक आमंत्रित किये जाते थे। किसी कारणवश रोहित के पिता जी आज इस समारोह में नही आ सके थे।
परिणामों की घोषणा हुयी, और उम्मीद के अनुसार, रोहित इस वर्ष भी अपनी कक्षा मे प्रथम स्थान पर रहा। उसे अपने पिता जी के ना आने का दुख हो रहा था।
रोहित आयोजन समाप्त होने का बेसब्री से इन्तजार करने लगा कि कब वो घर पहुचे और कब अपने पिता जी को रिपोर्ट कार्ड दिखा कर उनसे पुरस्कार ले।
घर आते ही उसने पिता जी को जैसे ही अपना रिसल्ट दिखाया, उनके चेहरे पर खुशी की जगह उदासी की लकीरें देख रोहित हैरान हो गया। उसे लगा शायद पिता जी ने मेरा प्रथम स्थान नही देखा। अधीर होते हुये उसने पिता जी से कहा- पापा में इस बार भी फस्ट आया हूँ, यह सुनकर उसके पिता जी ने कहा- रोहित प्रथम नही तुम तो अन्तिम आये हो। रोहित को कुछ समझ नही आ रहा था। फिर भी उसे यकीन था उसके पिता जी यदि यह कह रहे है तो कोई तो बात होगी। बहुत सहज होकर उसने कहा- कैसे पिता जी।
पिता जी ने कहा- रोहित पिछले वर्ष की तुलना में तुम्हारे अंको का प्रतिशत काफी कम है। कक्षा हो या जीवन हमारी प्रतियोगिता स्वयं से होनी चाहिये। तुम अपनी कक्षा में जरूर प्रथम हो तब जब तुम अपने साथ पढने वाले छात्रों को अपना प्रतियोगी समझते हो, किन्तु यदि तुम स्वयं के प्रतियोगी होते हो तुम प्रथम नही आते।
रोहित को समझ आ रहा था कि उसके पिता जी उससे क्या कहना चाह रहे थे।

हम सबको भी हमेशा स्वयं का प्रतियोगी होना चाहिये। दूसरों के साथ की गयी तुलना वास्तविक नही है। और कई बार यही तुलना हमारे लिये ईर्ष्या बन जाती है। स्वयं से की गयी प्रतियोगिता सदैव सकारात्मक परिणाम ही देती है। 

जरूरी तो नही - भाग - २


सींचनें से पेड में फल आये जरूरी तो नही

हम चाहें जिसे, वो हमें चाहे जरूरी तो नही

 

चमन से गुजरे तो खुशबू भी जरूर आयेंगी

महके हर फूल बागीचे का जरूरी तो नही

 

लेता है करवटें चांद भी तेरी मेरी ही तरह

निहारों तुम और हो पूनम जरूरी तो नही

 

याद में जिसकी तुमने रात को सुबह किया

नाम उसके लबों पे हो तेरा जरूरी तो नही

 

ना कर मदद किसी की लिये आरजू दिल में

कल तेरे लिये भी कोई आये जरूरी तो नही

 

यकी रख खुदा पे मिलेगा सब कुछ ही तुझे

तेरी जगह तेरे वक्त पे मिले जरूरी तो नही

 

साथ हिम्मत ओ हौसलों के कदम बढाये जा

कटेगी हर दफा पतंग पलाश जरूरी तो नही

रविवार, 31 दिसंबर 2023

प्रेम और जीवन

 


जब रातों में चुपके से सिरहाने आकर

महबूब ना फेरे बालों में उगलियां

जब प्रियतम ना पढ सकें वो आंखें,

जिनमें बसा हुआ है वह स्वयं

जब ना महसूस हो उसके दूर जाने की

दिल को घडी घडी टीस

जब कहने के लिये, मन की बात

खुद से ही कई कई बार करनी पडे बात

जब तुम्हारे होने के मायने

खत्म हो जाये उसके लिये,

जिसे माना हो तुमने सबकुछ

समझ लेना उस रोज

मर चुका है प्रेम

और प्रेम कभी अकेले नहीं मरता

मरता है उसके साथ

आत्मबल

आत्मविश्वास

मर जाती है चाहत

मर जाते हैं सपने

हां जो जीता है वो होता है

यह मिट्टी का शरीर

वो शरीर जो बस मैदान हैं

जिसमें खेल रहीं हैं सांसें

खेल – बस आने जाने का

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

उघम



आखिरकार उसे अपनी इन परिस्थितियों में ना चाहते हुये भी भीख मांगना ही एक अंतिम मार्ग दिख रहा था। वह सोचने लगा कि कल तक वह भिखारियों को देख कर हमेशा यही सोचता था, कि कैसे ये लोग जीवन यापन के इस सरल से मार्ग को चुन लेते हैं कैसे सरलता से अपने आत्म सम्मान को मार कर यूं अजनबियों के सामने हाथ फैला देते हैं?  अपंग, बच्चों और वृद्धों को देखकर तो फिर भी वह समझ पाता था कि ये अपनी शारीरिक कमियों के कारण भीख मांगनें को विवश हुये होंगें मगर स्वस्थ दिखते युवा या अधेड को देख हमेशा ही उसके मन में यह विचार आता कि मेहनत से बचने के लिये ही ये लोग इस आसान से रास्ते को पेट भरने के लिये चुन लेते हैं।

मगर आज उसे खुद को देख कर यह अहसास हो रहा था, कि सड़क के किनारों पर या मन्दिरों के बाहर बैठे लोग तो प्रत्यक्ष भिखारी हैं, समाज के अंदर तो ना जाने कितने अप्रत्यक्ष भिखारी अपने आस पास रोज ही देखे जा सकते हैंं, 

आज पचीस की उम्र में वह सौ से ज्यादा जगह तो अपनी नौकरी की अर्जी लगा ही चुका था, मगर किसी जगह पैसे की दरकार होती किसी जगह परिचय की। ऐसा लगता कि क्या कोई नही जो मेरी मार्कसीट्स देख कर मेरी योग्यता का अनुमान लगा सके, पढाई की दुनिया से निकलते ही कहां से लाऊं मै अनुभव? ऐसा नही था कि मेरे पिता जी १-२ लाख ना दे सकते हो या मेरे परिवार जनों में कोई किसी दफ्तर में थोडा बहुत परिचय ना रखता हो, मगर मैं उसे भी भीख के समान ही समझता था। आखिर एक छोटी मोटी सी नैकरी के लिये  किसी के सामने पैसे या परिचय के लिये हाथ फैलाना भीख मांगना नही तो मांगने से कुछ कम भी ना था। मगर आज ऐसा लगने लगा था शायद मेरे पास भी एक अप्रत्यक्ष भिखारी बनने के अलावा कोई मार्ग शेष न था।

तभी उसके अंतर्मन ने उसे पुकारा- तुम जब खुद के सारे दरवाजे बंद करके देखोगे, तो ऐसे ही रास्ते दिखेंगें, आज भी अपनी उसी बात पर अडिग रह  क्यों नही हो कि " भिक्षा मांगना कभी अंतिम रास्ता भी नहीं हो सकता", तुम युवा हो तो परिश्रम का विकल्प क्यूं नहीं चुनते। शायद तुमने आस पास जो अपने झूठे अहम का औरा बना लिया है, वह तुम्हे कुछ देखने ही नहीं देता। तुम अपने ही पिता से सहायता मांगनें और भीख मांगने के अंदर को ही नहीं समझ पा रहे। क्या तुम अपने पिता से पैसे लेकर कोई छोटा सा उघम भी नहीं कर सकते हो।  केवल अपने अंको को ही योग्यता की माप क्यों मानते हो? क्या बुद्धि बल का प्रयोग करने की तुममें सामर्थ्य नहीं, यदि है तो विचार करो आखिर तुम सीमित से पैसे से क्या कर सकते हो? 

तभी उसने देखा उसके पिता घर के खुले आगंन में अपना सब्जी का ढेला बाजार ले जाने को तैयार कर रहे हैं, वह सोचने लगा कि क्यों उसने आजतक अपने पिता में एक मेहनती व्यक्ति नहीं देखा, एक उघमी नहीं देखा। उसे अहसास हुआ कि रोजी रोटी कमाने का साधन तो उसके सामने ही था, मगर अपनी किताबी योग्यता को ही जीविका का आधार मानने के कारण वह इसे कभी अपने लिये एक विकल्प के रूप में देख ही नहीं सका। 

पिता के घर से निकलने से पूर्व वह यह निश्चय कर चुका था कि वह अपने ज्ञान से, बुद्धि बल से अपने पिता से इस उघम को एक दिन ऐसी जगह ले जाएगा जहां से वह कई भीख मांमने वालों को सक्षम बना सके। दूर से ही वह अपने पिता के सब्जी के ठेले को ऐसे देखने लगा जैसे एक विधार्थी अपनी कलम या एक सैनिक अपनी बंदूक को देखता है और आंखों के सामने उसे मेहनत से सजी वो सब्जी की दुकान दिखने लगी जहां वह आवाज लगा कर सब्जी नहीं बेच रहा और ना ही उसके पिता गलियों गलियों में घूम रहे हैं बल्कि उसके पिता एक अच्छी सी कुर्सी पर बैठे पैसे गिन रहे हैं और वह देश के कोनों कोनों से  विभिन्न प्रकार के फल - सब्जियों लाने वाला शहर का प्रसिद्ध क्रेता है।

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