देखा है
वक्त को
सावन सा बरसते
कभी बूँद बूँद रिसते
हुये
देखा है
वक्त को
बच्चे सा भागते
कभी हांफते कदमों से
रेंगते हुये
देखा है
वक्त को
रेत सा फिसलते
कभी बर्फ सा पिघलते हुये
देखा है
वक्त को
रेत सा फिसलते
कभी बर्फ सा पिघलते हुये
देखा है
वक्त को
नॄतकी सा थिरकते
कभी गुमसुम सुबकते
हुये
देखा है
वक्त को
प्रेमी सा रूठते
कभी प्रियतम सा उपहार देते हुये
देखा है
वक्त को
साथ साथ चलते
अपना हिस्सा बनते हुये
वो वक्त ही तो है
जो रोया था मेरे साथ
और मेरी हंसी पर हंसा
था
वो वक्त ही तो है
जब कोई न था मेरे साथ
तब भी मेरे आस पास
था
वो वक्त ही तो है
जो तब भी न गया छोड
के मुझे
जब कहा इसे भला बुरा
वो वक्त ही तो है
जिसे कोसा मगर उसने दिया
मुझे विश्वास, हौसला
जीने का
वो वक्त ही तो है
जो जन्मा है मेरे साथ
जो छोड देगा जहाँ मेरे साथ
बहुत हृदयस्पर्शी रचना है ये, मानो सबकुछ सामने ही घट रहा हो...
जवाब देंहटाएंये विनोद जेठूरी की रचना है
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार ११ दिसंबर २०१७ को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंवाह!!!लाजवाब रचना ।
जवाब देंहटाएंवाह !!बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना अर्पणा जी ।
जवाब देंहटाएंमन की पाती जी - मैंने भी एक इसी विषय पर कविता लिखी थी परंतु यह मेरे द्वारा लिखी कविता नही है । हो सकता है कविता को पढ़ते हुए आपको ऐसा लगा लेकिन मेरा कर्तब्य है कि मैं ऐसे क्लियर करूं ।
धन्यवाद आप सभी साहित्यकारों का
लाजवाब रचना
जवाब देंहटाएंअति सुंदर जीवन दर्शन आदरणीय अपर्णा जी !! सस्नेह शुभकामना |
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