कॉलेज
की सीढियां उतर रही थी, मेरे नीचे की सीढियों पर दो गर्भवती स्त्रियां थी- एक मेरे
साथ की ही अध्यापिका थीं और दूसरी थी कॉलेज में काम करने वाली एक मजदूर औरत। एक सम्भल
सम्भल कर उतर रही थी, तो दूसरी अपने सिर पर रखी मौरंग की बोरी को ज्यादा सम्भाल कर
उतर रही थी या अपने गर्भ में पल रही संतान को कहना मुश्किल था। एक बच्चे को भरपूर फल
जूस और मेवे मिल रहे थे और दूसरे को सिर्फ माँ का रक्त। तभी सुबह पढी रामायण की चौपाई
याद आ गयी
कर्म
प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करई सो तसि फल चाखा।
मन
में एक अजीब सा द्वन्द होने लगा। कौन सा कर्म किया है अलग अलग गर्भ में पल रही संतानों
ने। क्या एक जन्म में ये मजदूर की संतान भर पायेगी इस भाग्य की खाई को?
और सोचने लगी कर्म बडा या भाग्य
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