सोचती हूँ,
अब मान ही लूँ
कि मै ही,
हाँ सिर्फ मै ही हूँ
जिम्मेदार
मेरे आस
पास
घटती हर
उन दुर्घटनाओं का
जिनको भले
ही कोई उगाये
खरपतवार
मै ही हूँ
सच
ही तो हैं
आखिर कहाँ
है दोषी
वो नजरें
जो किसी
एक्स-रे मशीन से कमतर नही
मशीन का
तो काम ही है – काम
मुझे खुद
ही ओढनी चाहिये
सिर से
पांव तक
अभेद्य
लौह ओढनी
कहाँ है दोषी
वो अधिकारी
जिसकी पर्सनल
असिसटेंट
बनने का
नियुक्ति पत्र मैने स्वीकार किया
पर्सनल
का अर्थ समझे बिना
खोजने चाहिये थे मुझे
पर्सनल
के पर्यायवाची
कहाँ है
दोषी
वो प्रोफेसर
जिसे मैने
ही बनाया था
अपना गाइड
कब कितना
कैसे
किया जायगा गाइड
ये पढना चाहिये था मुझे
यूनिवर्सिटी के अलिखित ऑर्डिनेन्स
कहाँ है
दोषी
वो डॉक्टर
जिसे स्पेस्लिस्ट
समझ गई थी
अपनी बीमारियों
का इलाज लेने
मालूम करने
चाहिये थे मुझे
उसके स्पेसलाइजेसन्स
कहाँ है
दोषी
वो सारे
सम्बन्धी
जो मिल
गये मुझे जन्म के साथ
गढने को
नित नये सम्बन्ध
सोचना चाहिये था मुझे
आने से
पहले इस दुनिया में
तो लेनी
ही चाहिये मुझे जिम्मेदारी
क्योकि
दोषी है- माँ
जिसने
जन्म दिया
दोषी है- सपने
जिसने पहचान खोजी
दोषी है
– आंकाक्षायें
जिसने कुछ
करना चाहा
दोषी हैं- वस्त्र
जो अभेद्य
नही
दोषी है - समझ
जो नही सीखी चुप रहना
करती हूँ
आज प्रत्यार्पण और
मांगती
हूँ समाज से
संपूर्ण स्त्री समाज के लिये
उसके दोषो की सजा
उसके दोषो की सजा
मॄत्यु
दंड
ताकि गलती
से भी
कही किसी तथाकथित
मासूम निर्दोष पुरुष को
मासूम निर्दोष पुरुष को
न बना दिया
जाय
दोषी
बहुत सुंदर लेखन
जवाब देंहटाएंनिशब्द।
जवाब देंहटाएंधारदार तंज और असाधारण मानवीय अंध विचारों पर कुठाराघात।
विचारोत्तेजक सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंगहन ह्रदय तक उतरती हुई अनमोल रचना..!!
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