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सोमवार, 6 जनवरी 2020

बात का प्रभाव


मै अक्सर
चुप रहती हूँ
कहती तो हूँ,
पर कम कहती हूँ।
बात में है
शीतलता
गंगाजल सी,
बात में हैं
ज्वलनता
अग्निकुंड सी,
बात में हैं
कोमलता
खिले पुष्प सी,
बात में है
कठोरता
नारियल सी,
बात ही तो है जो
बनाती है
हमारी छवि,
देती है हमारे
रिश्तों को मजबूती,
बनती है हमारे
व्यक्तित्व की पहचान,
जोडती है हदय से
हदय को,
प्रषित करती है
हमारी सोच की  धारा को,
बनती है सेतु
दो अनजबियों के बीच,
तभी सोचती हूँ
कहने से पहले
क्यों कहूँ,
कितना कहूँ,
किससे कहूँ,
कैसे कहूँ,
कब कहूँ,
क्या कहूँ,
जाँचती हूँ
टटोलती हूँ
कहने से पहले
धैर्य, साहस और चाहत
सुनने वाले के मन का।
कहती हूँ अपनी बात
जब कर लेती हूँ
निश्चित दो बातें,
एक
क्या सही अनुपात में
मिला सकीं हूँ
शब्द, सुर और भाव
और दो
आश्वस्ति इस बात की
कि नही उग आयेगी
एक नयी बात,
पूरी होने से पहले मेरी बात,
और जन्म ले लेगी
वो नयी बात
कहने की अकुलाहट
श्रोता की जिव्हा पर,
नही बन जायेगी मेरी बात
खरपतवार,
नही उगेंगे काँटे
सुनने वाले के हदय में
सुनने के बाद मेरी बात,
यदि सही अनुपात में
मिले ना हो
शब्द, सुर और भाव
तो हो जाता है
अर्थ का अनर्थ
यहाँ हर किसी का है
अपना प्रभाव
किसी एक का ही अभाव
काफी है
बात को बेबात बनाने को,
क्यूं न हो
बात कितनी भी सही
गलत समय
या गलत व्यक्ति
या गलत तरीके
या गलत जगह
पर कह देने से
बन जाती है शूल
जो जीत सकती थी हदय
भेद देती है हदय
बस इसीलिये
कहती तो हूँ,
पर कम कहती हूँ
मै अक्सर
चुप रहती हूँ

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