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शनिवार, 4 जनवरी 2020

करीब

करीब हो
बहुत करीब
फिर भी करती हूँ
जतन हर पहर
तुम्हें और करीब लाने का
तुम्हें महसूस करने लगी हूँ
हथेलियों में
मगर फिर भी
ढूंढती हूँ 
लकीरें
जिनमें बाकी है अभी भी
पडना तुम्हारी छाप
हर आती जाती सांस को
टटोल लेती हूँ
कि कही कोई सांस
अनछुई तो नही 
तेरी खुशबू से
चाहती हूँ आना तेरे करीब
ठीक वैसे ही
जैसे करीब होती है
लिखावट पन्नों के
मिटाने से भी 
मिटती नहीं
जिसकी छाप 
चिरकाल तक
बन जाना चाहती हूँ
तेरी धरती
कि हर कदम 
रह सकूँ
तेरे साथ
तेरे करीब

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