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सोमवार, 15 जून 2020

मालूम नही


दिन इक और जिया या गुजरा, मालूम नही
खुद से खुश हूं या खफा खफा, मालूम नही

सांसे घडी घडी देतीं, गवाही जिन्दगी की
कितना जिंदा हूँ कितना मरा, मालूम नही

खरीदी फकीर से कुछ दुआएं, हमने भी
हुआ सौदे में घाटा या नफा, मालूम नहीं

छोड पायल उसने, पैरों में घुंघरू पहने
महज शौक है या इक़्तिज़ा, मालूम नहीं

चल तो रहा बाजार में, बहुत जोर शोर से
ये खोटा सिक्का है या खरा, मालूम नहीं

मासूम निगाहों पर, यूं सब कुछ लुटा
उसने किस किसको है ठगा, मालूम नहीं

कर लिया कुबूल खुशी से, जो भी मिला
रहमत-ए-खुदा है या सजा, मालूम नहीं

नज्में तो उसकी, बहुत पाकीजा लगी
तहखाने दिल में क्या दबा, मालूम नहीं

इलाजे क़ल्ब को बेकरार, है पलाश मगर
हकीमे इलाही को रोग क्या, मालूम नही

क़ल्ब - दिल

इक़्तिज़ा - मजबूरी
इलाही - खुदा

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ग़ज़ल।
    मतले का वजन भी बराबर ही रखिए।

    जवाब देंहटाएं
  2. माशा आल्हा । उम्दा से भी उम्दा। भाव शब्द सब कुछ उम्दा। ������������������������ कायल हो गए हम तो

    जवाब देंहटाएं
  3. तेरे हर लफ्ज़ ने, दर-ए-दिल पे करी है दस्तक़
    मिली है चोट, के आया सुकूं मालूम नहीं |

    बहुत बढ़िया, दी 👌👌

    जवाब देंहटाएं

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