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शनिवार, 14 मार्च 2015

बेचैन ऩज्म


फूलों को रहने दूं शाखों पे
या गूंथ दूं तेरी जुल्फो मे
चाह रहा मन करूं शरारत
आज प्रकृति के रत्नो से

वो नाम छुपाते है मेरा
कांपते होठों की जुम्बिश मे
चाह रहा मन करूं बगावत
आज जहाँ की रस्मों से

सोंधा सोंधा सा मन हुआ
भींग हुस्न की बारिश मे
चाह रहा मन लिखूं इबारत
आज इश्क की नज्मों से

इल्म नही उनको फ़रो का
बेबाक गुजरते हैं गलियों से
चाह रहा मन करूं गुजारिश
मेरे साथ चले इन शहरों में

छूट गया मन्दिर मस्जिद
बैठा दर पे उसके बरसों से
चाह रहा मन करूं इबादत
आज सनम की कसमों से

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छी रचना.......बहुत अच्छा लगा कई बार दुहराया इन पंक्तियों को!

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  2. आज 16/मार्च/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. छूट गया मन्दिर मस्जिद
    बैठा दर पे उसके बरसों से
    चाह रहा मन करूं इबादत
    आज सनम की कसमों से
    अति सुन्दर शब्द और अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  4. अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .

    जवाब देंहटाएं
  5. अजय कुमार त्रिपाठी20 मार्च 2015 को 1:36 am बजे

    सुन्दर और निश्छल भावपूर्ण अभिव्यक्ति.....प्रशंसा अनुरूप...

    जवाब देंहटाएं

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