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सोमवार, 6 नवंबर 2017

किताबें


किताबें
कहने को 
कुछ नही कहती
मगर सिखा जाती है 
जिन्दगी
किताबें
जो जाती थी
कभी बस्ते में
मेरे साथ मेरे स्कूल
किताबें
जिन्हे सजाते थे
कभी बासी कागज से
कभी रंगीन मरकरी ब्रेड के कवर से
और कभी टाइम्स इंडिया के
ग्लेस्ड पेपर से
किताबें
जिनपर लगा कर
कोई सुन्दर सी नेमस्लिप
और फिर लिखकर अपना नाम
बना लेते थे मेरी किताब
किताबें
जिसमें रखते थे
कभी गुलाब के फूल
कभी मोरपखं
क्योकिं उससे विघा आती थी
किताबें
जो भीग जाती थी
कई बार
बारिश में मेरे साथ
किताबें
जिन पर रख कर हाथ
और कहकर विद्घा कसम
देते थे प्रमाण
सच्चे होने का
किताबें
जो मिलती थी
बडे भाई बहन से
जो बांधती थी हमे
स्नेह की डोर में
किताबें
जो अक्सर 
सोती थी
साथ साथ 
तकिये के नीचे
किताबें
मेरी सबसे अच्छी दोस्त
जिसके चोरी हो जाने पर
हर उस जैसी किताब में
देखती थी 
मेरी वाली किताब
किताबें
बहुत याद आती हैं
जो खो गयीं कही
मेरे बचपन के साथ

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-11-2017) को चढ़े बदन पर जब मदन, बुद्धि भ्रष्ट हो जाय ; चर्चामंच 2782 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'


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