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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

तुम बिन क्या है जीना


कभी कभी सोचती हूँ कि जो मै जी रही हूँ , क्या इसी को जिन्दगी कहते है? क्या इसी जिन्दगी को मैने ख्वाब में देखा था, तब से जब से जिन्दगी को जीने की कोशिश की थी। क्या सच में इसी को कहानीकार, दार्शनिक, लोग जिन्दगी कह गये हैं? क्या मेरी भी जिन्दगी बस चंद सांसों की डोर में बंधी ऐसी मोती की माला है, जिसकी डोर का एक दिन टूट जाना तय हैं? मेरी भी जिन्दगी के मोती एक दिन बिखर जायेगें और रह जायेगी टूटी डोर........
ये तो नही था मेरा सपना, मेरी सोच, मेरी आशा, मेरा विश्वास, मेरे जीने का आधार, मेरी तमन्नायें। कितना कुछ सोचा था मैने उसके साथ, कितने सारे रंग थे हमारी जिन्दगी में, कितनी उमंगें थी, कितनी ख्वाइशें थी, कितनी उम्मीदें थी उन ख्वाबों में, कितनी तरंगें थी उन उम्मीदों में और कितनी ऊर्जा थी उन तरंगों में और हर एक तरंग मे थे तुम।
आज समझ आ रहा है कि सब कुछ तुम्हारे ही हाथों में तो था, शायद तभी तो तुमसे नाता छूटते ही सब छूट गया, और रह गयीं हैं सिर्फ सूखी सांसे, जिन्हे सुनती और गिनती रहती हूँ अपनी तन्हाई में। हाँ आज भी सांसो के साथ रह जाती है एक उम्मीद, काश कभी एक बार मिल सके तुम्हारा साथ और मिल सके मुझे एक बार फिर मेरा हर खोया हुआ सपना, मिल सकें फिर से जिन्दगी के रंग, वो रंग जो इस वीरान सी हो गयी जिन्दगी के अंधेरों में कही खो गये हैं। वो अंधेरा जिसमें मैं खुद को भी नही देख पाती, बस बनाती रहती हूँ आभासी आकृति अपने खोये हुये सपनों की।
अब तो मेरे पास उतनी सांसे भी नही जितने सपने तुमने दिये थे मुझे, एक अनमोल सौगात की तरह। बस एक बार आ जाओ और ले जाओ अपने वो सारे सपने जो तुमने एक दिन चुपके से मेरी आंखों में रख दिये थे। क्योंकि मुझे कोई अधिकार नही कि तुम्हारे उन सपनों को भी मै अपनी वीरान सी जिन्दगी के अंधेरों के हवाले कर दूँ। एक सैलाब सा बसा है मेरी आँखों में, मगर रोक रखा है उसे, क्योकि डरती हूँ कि उसमें वो सारे ख्वाब बह ना जाये जो तुम्हारी अमानत हैं। डरती हूँ कही जीवान की माला टूट गयी तो तुम्हारे सपने भी ना बिखर जाये। फिर भला कौन दे पायेगा तुमको तुम्हारी अमानत, क्योकि दुनिया वालों को तो सबसे ज्यादा खुशी मिलती है ख्वाबों को जलाने में, कही मेरे साथ साथ तुम्हारे सपनों को भी अग्नि के हावले ना कर दे ये दुनिया।

बस एक बार आ जाओ , और ले जाओ अपने सारे सपने क्योकि................

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

सीमित जमीं सीमित आकाश


मुझे समझना ही होगा कि जिस आकाश जिस जमीं में मैने जन्म लिया है वो असीमित नही है। उसकी सीमायें हैं, बन्धन हैं।
जाने कैसा प्रेम है ये, जो खुशियों की दुआयें तो देता हैं मगर सिर्फ उन खुशियों की जो उनके सीमित आकाश सीमित जमीं का हिस्सा हो।
बचपन से पाठ पढाया गया, सभी से प्रेम करो। ना देखो कि ये हिन्दू है, मुस्लिम है, कोई छोटा या बडा नही होता, सब एक ही ईश्वर की रचना हैं, मगर बडे होते होते प्रेम भी सीमित हो गया। प्रेम की परिभाषा भी बदल गयी।
प्रेम का अर्थ है अच्छे से बात करना, जरूरत में काम आ जाना, मगर प्रेम का अर्थ ये नही कि एक थाली में बैठ कर खाया जाय।
एक थाली में खाने के लिये उसे हमारे सीमित आकाश सीमित जमीं का हिस्सा होना होगा।
सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं तो क्या हुआ, वही दो संताने एक साथ जीवन के स्वप्न देख सकती हैं जो सीमित आकाश और सीमित जमीं का अभिन्न हिस्सा हैं।

शब्दों की परिभाषाये किसी शब्द कोश से नही समझी जा सकती, वह तो समाज में गढीं जाती हैं। इस संसार में हर चीज कुछ दायरों में बधीं है, भावनायें भी मुक्त नही। मन के भाव भी समाज के रिवाजों के गुलाम हैं।
हम भले ही यह कह दे कि जोडियां तो ऊपर वाला बनाता है, कहने में क्या जाता है। मगर कितना सत्य होता है लोगो का ये कहना? जोडियां तो वही बन सकती है जो सीमित आकाश और सीमित जमीं में जन्मी है। ्वो ऊपर वाला क्या समझे कि दो अलग आकाश और अलग जमीं के लोग भी प्रेम से एक साथ रह सकते हैं। कौन कहता है एक आकाश है एक जमीं है- हमने देखी है इस एक जमीं पर बहुत सी जमीं, धर्मो की जमीं, जातियों की जमीं, गरीब जमीं अमीर जमीं , देशी जमीं विदेशी जमीं, अहंकार की जमीं, लालच की जमीं और भी ना जाने कितनी जमियां कितने आकाश है।
क्यों नही दिखता सभी को, क्यो अपने कहे को ही नही टटोलते, एक ही जमीं है, एक ही आकाश है, प्रेम की एक ही परिभाषा है, हर किसी को असीमित स्वप्न देखने , उनको जीने का अधिकार है।
वो विधाता जब अपनी कॄपा में अपने कोप में किसी जमीं किसी आकाश का भेद नही करता तो फिर हम उस सर्वशक्तिमान के विचार को क्यो नही आत्मसात कर लेते।
क्या कभी प्रलय में, भूकम्प मे, बाढ में आपने जमी या आकाश को विभाजित होते देखा है। अगर नही तो कुछ तो है जो अब भी हमे सीखना है......................
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