प्रशंसक

मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

दद्दा

कितने बरस बाद आज वो अपने बडे दद्दा से मिलने जा रही थी। कब से मां बाऊ जी से सुनती आ रही थी दद्दा की सफलता की कहानियां। और आज जब उसका मुम्बई के एक नामी कालेज में दाखिला हुआ तो उसको दाखिले की खुशी से ज्यादा दद्दा से मिलने की खुशी थी।

दद्दा दरअसल कोई बुजुर्ग व्यक्ति नही, पैतीस चालीस के आस पास का नवजवान युवक था। बीस बाईस की उमर में ओमी कुछ काम की तलाश में मुंबई आ गया था और आज अपने अथक परिश्रम से मुंबई जैसे शहर में अपना खुद का एक फ्लैट खरीद लिया था। किसी भी तरह भी बुरी लत उसे उसी तरह ना छू सकती थी जैसे चंदन पर लिपटे सर्पों का असर नहीं होता। उसका स्वप्न कलाम की तरह एक बडा वैज्ञानिक बन कर देश की सेवा करना था, इसीलिये घर वालों के लाख समझानें के बावजूद उसने स्वयं को वैवाहिक बंधनों से मुक्त रखा था। चूंकि उस समय अपने परिवार और गांव के बच्चों में ओमी बडा था, इसीलिये सभी बच्चे उसे दद्दा बुलाते थे।

ओमी जितना पढाई लिखाई में होशियार था उतना ही स्वभाव से सौम्य। गांव का हर परिवार अपने बच्चों को ओमी जैसा बनाना चाह्ता था।

रजनी भी अपने ओमी दद्दा को अपना आदर्श मानती थी, उन्ही की तरह वो भी अपने गांव अपने परिवार का नाम रौशन करना चाहती थी। ये उसकी लगन और परिश्रम का ही परिणाम था कि उसे आई. आई. टी मुंबई में इजीनियरिंग के लिये दाखिला मिला था, घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी ना थी, और फिर ओमी सबसे लिये परिवार के सदस्य सा ही था, सो यह तय हुआ था कि रजनी को यहां गाडी में बिठा दिया जायगा, और आगे की सारी जिम्मेदारी संभालने के लिये ओमी स्टेशन पर आ कर ओमी को ले लेगा।

रजनी पहली बार घर से निकल कर इतनी दूर जा रही थी, मगर मन में डर के लिये लेषमात्र भी स्थान ना था। नन्ही आंखें, बडे बडे सपने देख रहीं थी।

गाडी जैसे ही मुंबई स्टेशन के प्लेट्फार्म पर पहुंची, खिडकी से ही रजनी ने ओमी को देख लिया।

एडमीशन की सारी औपचारिकतायें पूरी हो चुकीं थी। आई आई टी से ओमी का फ्लैट कुछ ज्यादा दूरी पर ना था। अतः ओमी के सुझाव पर रजनी के माता पिता ने रजनी को ओमी के फ्लैट पर रहने की बात स्वीकार कर ली।

घर परिवार गांव के सभी लोग एक तरफ ओमी की तारीफ करते ना अघाते थे, रजनी के माता पिता के लिये तो वह ईश्वर का साक्षात रूप था, जिसने बिना किसी लोभ लालच के उनकी हर संभव मदद की थी। रजनी के हॉस्टल की फीस बचने के कारण वो अपने छोटे बेटे को भी अच्छे स्कूल में पढा पा रहे थे, मगर इन सबके बीच एक शख्स था, जो दिन प्रतिदिन खुद से लडता था, हकीकत को भी बुरा स्वप्न समझने की कोशिश करता था, बेचैन मन मछली की तरह तडप कर रह जाता था, हर दिन कॉलेज जाते समय वापस ना आने का निर्णय करता, और शाम तक यह निर्णय पानी के बुलबुले सा टूट जाता। रजनी का अंतर्मन धीरे धीरे घुल रहा था, गल रहा था, टूट रहा था, क्योंकि वह एक ऐसी काल कोठरी में आ चुकी थी जो दुनिया की नजर में देवस्थल था, मगर सबका ग्राम देवता उसके लिये अब दद्दा नही सिर्फ दानव था।

अब उसका एक ही लक्ष्य था। समय के साथ अपनी उन शक्तियों को एकत्रित करना,  जिनसे वह इस दानव को पराजित कर अपनी स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के साथ साथ उसके इस रूप को अपनों को, समाज को दिखा सके क्योंकि वह भली भांति जानती थी कि यह समाज बहुत आसानी से चरित्रहीन पुरुष के दोषों को किसी भी मासूम निर्दोष लडकी पर आरोपित कर उसे कलंकिनी का खिताब देने की कला में निपुर्ण है।


शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

उसकी हर बात

 


खिल जाती खुशी सोच, उसकी हर बात

मासूम कलियों सी लगे, उसकी हर बात


जमाने भर की बात को, करके अनसुना

सुनी मदहोश हो हमने, उसकी हर बात

 

अधूरा हर अफसाना, उनके जिक्र बिना

हर बात का जवाब लगे, उसकी हर बात

 

बेदिली बनी सितम, इस दिले नादां पर

नश्तर सा चुभने लगी, उसकी हर बात

 

तूफां में पतवार तो, अंधेरों में चिराग सी

महफ़िलों की जान है, उसकी हर बात

 

दरवाजे बंद दिलों के, खुलते खुद ब खुद

खोई चाभियां हैं तालों की, उसकी हर बात

 

ना चाहने वाले भी, सुनते हैं उसे गुमसुम

सबकी अपनी बन जाती, उसकी हर बात

 

जाने जादू है, नशा है, या बचपन मासूम

रोते हुओं को हंसा देती, उसकी हर बात

 

मुंकिन नही दुखे दिल, उससे किसी का

सधी सी और सही भी, उसकी हर बात

 

यूं ही तो नहीं पलाश, तलबगार उनकी

खरी ओस की बूंद सी, उसकी हर बात

मंगलवार, 30 नवंबर 2021

कौन चाहता है

रात रात भर यूं जागना, कौन चाहता है
दूर दूर से चांद ताकना, कौन चाहता है

मिलता नसीबों से ही तोहफा ए इश्क
दिल खूंटी पर टांगना कौन चाहता है

सुकून ए आराम देती थी छांव नीम की
मीलों रास्ते रोज नापना, कौन चाहता है

पेट की आग, हर आग से ज़ालिम साहब
झूठी पत्तलें भला चाटना, कौन चाहता है

हसरतें किस दिल को नहीं, मैखानौं की
खाली पैमानों में डूबना कौन चाहता है

चटपटी खबरों से सजतेअखबारे बाजार
बदशक्ल सच को छापना कौन चाहता है

ख्वाहिशें हमको भी, हों रिमझिम बारिशें
पलाश शोलों को तापना कौन चाहता है

गुरुवार, 18 नवंबर 2021

तेरे आने से पहले

 


दिल में फिर, इक ख्वाब पल रहा है,

जमाना फिर हमसे, कुछ जल रहा है

उनके आने के लम्हे, ज्यों करीब हुये

इंतजार कुछ जियादा, ही खल रहा है

पुलिंदे शिकायतों के, मुंह ढकने लगे

तूफा ए अरमां, बेइंतेहा मचल रहा है

जाने क्या हाल हो, सनम से मिलकर

ख्यालएमौसम, पल पल बदल रहा है

यादों की गली से, ख्वाबों के शहर तक

पैंडुलम सा बेचैन, ये दिल टहल रहा है

हर लम्हा सौ बरस सा, है लगने लगा

किसी सूरत, ना दिल ये बहल रहा है

ऐ चंदा छुप जाना, चुपचाप बादलों में

मेरा चांद मेरी छत पे, निकल रहा है

घडी घडी देखे नजर, घडी की तरफ

सब्र पलाश से अब ना, सम्भल रहा है

आखिर क्यों

 


हर एक जिंदगी में, ना जाने कितने आखिर क्यों

हर मन को भेदता, कभी ना कभी आखिर क्यों

किसी का क्या बिगाडा था, हुआ जो साथ ये मेरे

किया जो होम तो फिर, जला ये हाथ आखिर क्यो

किसी को मिल गया पैसा, किसी के पास शोहरते

मेरे दामन में ही कांटे, हजार आये है आखिर क्यों

जिसे बरसों से जाना था, फक्र उसके हुनर पर था

जिंदगी में मेरी उसने, जहर घोला है आखिर क्यों

बचाया गुनहगारों को उनके रुतबों और बुलंदी ने

हुई मजबूर मरने को बेगुनाह मासूम आखिर क्यों

बहुत कमजोर हो चली है, याददाश्त इस बुढापें में

जिसे चाहा भुलाना वो, भूला पाये ना आखिर क्यों

कहां बेनकाब होती नियत, उजले चिकने चेहरों की

बाद धोखे के सोचे दिल, किया ऐतबार आखिर क्यों

ताकतों सत्ता और दौलत की, चमकतीं जब तलवारें

दफन हो जाते कितने ही, बेबस लाचार आखिर क्यों

मौसम की तरह आते जाते हैं, पलाश गमों खुशियां

बदल जाती वजहें पर, अटल रहता ये आखिर क्यों

सोमवार, 15 नवंबर 2021

सरप्राइस

बरसों से मन मे दबी भावनाओं को बस एक बार वह उस पर जाहिर कर देना चाहता था, मगर क्या यह इतना आसान था एक पति, एक पिता और एक परम आज्ञाकारी पुत्र के लिये। जीवन की सारी जमापूंजी का एक ही पल में खो देने का भय सिर से लेकर पांव तक उसके शरीर में विघुत की सी तरंग उत्पन्न कर रहा था। किंतु अगले ही पल मन की कोमल एवं विशुद्ध भावनाए उसे नयी ऊर्जा से संचारित कर रहीं थी।

अंततं उसने निश्चय किया कि जीवन में मिले इस सुनहरे अवसर को वह यूं ही नही जाने दे सकता। जो अवसर उसे जीवन के पंद्रह वर्षो में नही मिला था, आज उसके सामने था, हां ये और बात थी कि यदि यह अवसर उसे पंद्रह वर्ष पहले मिला होता तो शायद उसके जीवन का रंग और आकार बहुत संभव है कुछ और ही होता। मगर उसने भी पूरे भाव और विश्वास से नियति को ईश्वर की इच्छा समझ स्वीकार किया था, शायद आज तभी ईश्वर ने ही उसे यह अवसर दिया था कि जीवन में एक बार वह उन पलों का अनुभव कर ले जिसकी ख्वाइश उसके मन में कब जन्मी शायद इसकी स्मॄति करना अब उसके लिये संभव नही था।

एक सीधा सच्चा व्यक्ति ताने बाने बुनना नही जानता, शायद इसीलिये परसों जब अचानक उससे मेरी भेंट मेरे एक घनिष्ट मित्र के घर हुयी और मुझे यह पता चला कि मेरा और उसका कार्यक्षेत्र एक ही है तो मैने उसको ऑफिस में अपनी प्रोजेक्ट टीम से मिलवाने का प्रस्ताव दिया जिसे उस सरल निश्छल हदया ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था, मगर मेरा मन पिछली दो रातें यही सोचता रहा कि किस तरह से मैंअपनी भावनाएं उसके सामने जाहिर करूं ताकि ना तो किसी भी तरह उसके विश्वास को रंच मात्र भी ढेस पहुंचें और ना ही किसी मर्यादा का उल्लंघन हो।रात के अंतिम पहर तक किसी निष्कर्ष तक ना पहुंच सका और निद्रा देवी भी आखिर कब तक प्रतीक्षा करतीं सो मुझे स्वप्नों की चादर उढा मेरे सिरहाने बैठ गई।

सुबह कब हुई मुझे तब पता चला जब आरू मेरे बिस्तर पर अपने भाई से लड कर मेरे पास छुपने के लिये आई। मैने उस छोटी सी परी को रोज से ज्यादा कस कर अपनी गोद में छुपा लिया। मैने ऐसा क्यों किया यह ठीक ठीक ना तो मै समझ पाया ना ही मेरी नन्ही परी।

मन किया कि आज ब्लू शर्ट पहन कर जाऊं, मगर मेरे नहाकर निकलने से पहले श्रीमती जी ने यल्लो कलर की शर्ट निकालकर दी थी, किसी भी और चीज में गलती हो सकती थी मगर गुरुवार को पीली कमीज निकाल कर ना रखी जाय यह उतना ही असंभव था जितना अमावस्या के दिन चंद्र देव का दिखना। मेरे पास कोई दलील ना थी जो मै ब्लू शर्ट पहन सकता सो चुपचाप पीली शर्ट पहन ली यह सोच कर कि भावनाओं का अपना ही एक प्राकृतिक रंग होता है उसके लिये भला अप्राकृतिक रंगो की क्या आवश्यकता।

घर से निकलने से पहले मैने अपने नये घर की चाबी कुछ इस तरह से अपनी जेब में रख ली जैसे मैं उस मकान का मालिक नही उस घर में चोरी करने जा रहा हूं। ना तो मेरे चेहरे के हाव भाव सामान्य हो पा रहे थे ना चाल। इससे पहले कि श्रीमती जी रसोई से आ कर रोज की तरह मुझे टिफिन थमायें और शाम को जल्दी आने के लिये कहें, मै किसी तरह मै जल्द से जल्द ऑफिस के लिये निकल जाना चाह रहा था।

ऑफिस पहुंचते थी मीटिंग्स ने ऐसा घेरा कि मन की सारी भावनाएं वैसे ही सिमट गयी जैसे शाम के होते ही सूरज आकाश से अपनी सारी किरणें समेट लेता है।

तभी मोबाइल पर एक मैसेज आया- मै निकल रही हूं, तुम अपने ऑफिस का पता भेज दो।

एक बार फिर से ऑफिस के काम पर भावनाएं हावी होने लगीं। मीटिंग लगभग खत्म होने को ही थी। मै मीटिंग रूम से सीधा कैंटीन की तरफ गया, और कॉफी मंगाई। कॉफी का पेमेंट करने के लिये कैंटीन का कार्ड निकालने के लिये जेब में हाथ डाला तो कार्ड के साथ की रिंग भी साथ निकल आया। सुबह जो चाभी उठाई थी, ये उसी चाभी का की रिंग था, सुबह सिर्फ चाभी दिखी थी, अब उस की रिंग पर लिखा " हैप्पी फैमिली" भी नजर आया। चाभी धीरे धीरे धुंधली होती जा रही थी, शब्दों के साथ साथ बीते पंद्रह सालों के सुखद पल भी तैरने लगे थे।

कॉफी का हर एक सिप मुझे कुछ पलों बाद हो सकने वाले हर संभव परिणाम के स्टेशनों पर घूमाने लगा।  कॉफी के आखिरी घूंट के साथ साथ, दो दिन से मन में चल रहा भावनाओं का अंतर्द्वंद भी खत्म हो गया। मैने श्रीमती जी को फोन लगाया- निशा, ऐसा करो बच्चो को लेकर अपने नये घर आ जाओ, लंच हम सब साथ ही करेंगें और वही तुमको एक सरप्राइस भी दूंगा। 

रविवार, 3 अक्तूबर 2021

आज का आदमी

 


जिंदगी नही, जिंदगी का भरम, जी रहा आज का आदमी

जिंदगी की ख्वाइश में जिंदगी, खो रहा आज का आदमी

सुबह सबेरे उठके तडके, करने लगता जुगाड दो रोटी का

खुशी की तलाश में, खुद से दूर हो रहा आज का आदमी

क्या चाहिये जीने के लिये, क्या ला रहे है अपने घर में हम

क्या चाहा, क्या हो गया, ये सोच रो रहा आज का आदमी

चंद सिक्कों, ओहदों की खातिर, कुछ भी करने को राजी

ले फूलों के दो हार हाथ में, काटें बो रहा आज का आदमी

चेहरे चमके दिखते पर, मुस्कान अधूरी फीकी फीकी सी

थोडी से चैन को कितनी पीड़ा, ढो रहा आज का आदमी

मन के मैल का अंत नही, माया और तॄष्णा  दो हाथों में

तीरथ मंदिर में घूम घाम, पाप धो रहा आज का आदमी

पशु को इंसानों का दुलार, मनुजों से बर्ताव गुलामों सा

सह जुल्म बेइंतेहा जाने कैसे, सो रहा आज का आदमी

मुश्किल पलाश आदम का बचना, दोपाये ही जी जायेंगें

दानव और मानव का अंतर, खो रहा आज का आदमी

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

टेक केयर

क्या हुआ पिता जी, आवाज से तो आपकी तबियत बहुत खराब लग रही है, अरे ! एक कॉल कर देते आप, मै या यामिनी जाते माना कि रोज रोज ऑफिस बहुत दूर पडने की वजह से मैने यहां फ्लैट लिया, मगर अब इतना भी दूर नही कि एक ही शहर में रहते हुये भी ना सकूं। मैं कई दिन से आपको फोन करने की सोच रहा था, मगर काम कुछ इतना गया कि ......

पिता जी - हां , बेटा मै समझता हूं।

राजीवआपने किसी डॉक्टर को दिखाया क्या?

पिता जी- हां, कल गया था, वो अपने डॉक्टर मुखर्जी को दिखाया है, कह रहे थे, कुछ खास नही है, बस थोडी सी खांसी जुकाम है, ठीक हो जायगा। तू चिंता मत कर। 

राजीव - अच्छा तो अब मै आपकी चिंता भी ना करूं। कल फ्राईडे है, हम लोग शाम को जायेंगें।

शर्मा जी, मां नही पिता थे, इसलिये उन्होने एक पिता के जैसे ही अपने बेटे बहू का इंतजार किया। फाईडे की रात तक ना बेटा आया ना   बेटे का कोई फोन।

शनिवार की सुबह करीब १० बजे, यामिनी का फोन आया- प्रणाम पापा, वो दरअसल कल ये ऑफिस से बहुत देर से आये थे, तो कल हम लोग नहीं निकल पाये, बस अभी थोडी देर पहले निकले हैं, अगर ज्यादा ट्रैफिक नही मिला तो ढेड दो घंटे में जायेंगें। और आपने अपनी दवाइयां ली।

शर्मा जी- हां, हां बहू सब ले ली, चिंता मत करो, आराम से आना।

राजीव और यामिनी कुछ शॉपिंग करते हुये करीब तीन बजे घर पहुंचे, शर्मा जी खाना खा कर एक नींद ले चुके थे।

घर आकर, राजीव पिता जी का हाल चाल लेने लगा, और यामिनी रसोई में चाय बनाने लगी।

राजीव और शर्मा जी कुछ पुराने किस्से याद करने लगे और यामिनी ने रात का खाना तैयार करके रख दिया।

तभी यामिनी ने राजीव को इशारे से किचन की तरफ बुलाया- और कितनी देर रुकेंगें, मैने खाना बना दिया है, अभी निकलेंगें तो भी पहुंचते पहुंचते दस हो ही जायगा।

यामिनी ने अपनी समझ में यह बात बहुत धीरे से कही थी, या बुढापे में शर्मा जी की कर्ण क्षमता बढ गई थी, उन्होने अपने बेटेबहू के इस संक्षिप्त वार्तालाप को ना चाहते हुये भी सुन लिया था।

राजीव थोडी देर में कमरे में लौट आया, और मेज पर रखे अखबार को पढने लगा या पढने का उपक्रम यह तो या तो वो बता सकता था या विधाता, मगर शर्मा जी को उसका एक एक पल रहना भी एक अहसान का प्रतीत हो रहा था।

कुछ क्षणों तक एक अजीब सा सन्नाटा कमरे में पसरा रहा, इतना सन्नाटा तो शर्मा जी तब भी महसूस नहीं करते थे जब वो इतने बडे घर में अपनी यादों से साथ रहते थे।खामोशी को तोडते हुये शर्मा जी ही बोले- तुम लोग आज यही रह रहे हो क्या?

राजीव कुछ हडबडाते हुये बोला- ऐसा कुछ सोच कर तो नहीं चले थे, मगर आपको जरूरत हो तो रुक ही जायेंगें।

शर्मा जी – अरे नही बेटा, मुझे ऐसी कोई जरूरत नहीं, तुम भी तो हफ्ते भर के थके हो, मै तो कहता हूं घर जाकर आराम करो। मै एक दम ठीक हूं।

तभी यामिनी रसोई की तरफ से आकर सोफे पर बैठते हुये बोली- पापा मैने आपके लिये खाना बना दिया है, आप खा लीजियेगा। फिर राजीव की तरफ देखते हुये बोली- पापा जी ठीक ही तो कह रहे है, चलते है ना, और फिर दूर ही कितना है, फिर जायेंगे अगले हफ्ते।

पांचदस मिनट में औपचारिकता निभाते हुये दोनो गाडी में बैठ गये और चलते हुये राजीव ने कहा - पापा प्लीज  टेक केयर , आप ना बिल्कुल भी अपना ख्याल नहीं रखते। अगली बार जब आऊं तो आपकी ये खांसी गायब मिलनी चाहिये।   

शर्मा जी गेट बंद कर वापस कमरे में आकर लेट गये। और सोचने लगे काश राजीव की मां ने मुझे कभी बताया होता कि कैसे रखते है अपना ख्याल, वो तो सारी जिंदगी मेरा ही ख्याल रखते रखते निकल ली, अब तो बस मैं वो कर लेता हूं जिससे उसकी आत्मा को ये ना लगे कि वो अब मेरे पास मेरा ख्याल रखने को नही है। 

लेटे लेटे आंखें बंद किये, धीरे धीरे मन ही मन अपनी पत्नी से बुदबुदाते हुये बोले - राजीव की मां, अच्छा किया ना जो तेरे बेटे को यह नही बताया कि मुझे टीबी हो गया है, क्या पता तब वह फोन से ही कह देता- पापा टेक केयर, और मन की पीडा, आंखो की कोर से रास्ता बना निकल ही गयी मगर बडी तीव्रता से शर्मा जी ने उन आंसुओं को बीच रास्ते में ही रोक दिया। पता नहीं स्वर्ग में बैठी अपनी पत्नी से यह आंसूं छुपाने मे शर्मा जी कितना सफल हुये मगर बेटे बहू के सामने आज भी बरगद के पेड से मजबूत बने रहने में जरूर सफल हुये थे। 

तभी पत्नी की आवाज उनके कानों को सुनाई दी - अच्छा चलो, अब खाना खा लेते हैं, दवा भी खानी है, ऐसे लेटे लेटे सो जाओगे, चलो उठो।

शर्मा जी ने आंख खोली और अपनी पत्नी की तस्वीर को प्रेम भरी निगाह से देख रसोई की तरफ धीरे धीरे चल दिये - अपना ख्याल रखने...........

GreenEarth