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बुधवार, 28 दिसंबर 2022

अनचाहा

 


हर दिन की तरह उस दिन भी सूरज निकला, हर दिन की तरह मै भी तैयार हो कर काम के लिये निकल गई, हर दिन की तरह उस दिन भी मां ने कहा बेटा, अपना खयाल रखना, संभल कर जाना जमाना बहुत खराब है, मगर उस दिन वो हो गया था जिसे कभी भी नही होना चाहिये था, किसी के भी साथ नही होना चाहिये था। वो दिन अमावस की रात से भी ज्यादा काला हो गया था मेरे लिये, ऐसा कालापन जिसमें हजारों सूरज भी उजाला नहीं भर सकते थे। दुनिया के लिये मैं एक खबर बन गई थी, कुछ लोगों के लिये कैंडिल मार्च का एक मौका, समाज के लिये कलंक, मां बाबू जी के लिये नासूर और खुद के लिये एक बोझ।

उस दिन के बाद से नौ महीने मैने कैसे निकाले, ये या तो मै जानती थी या मेरा विधाता। मां बनना मेरे लिये अभिशाप था, और जन्म देते ही मै इस अभिशाप से मुक्त हो जाना चाहती थी। मगर जिंदगी को हम जैसा देखते है, वैसी कभी भी नही होती, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।

अस्पताल में बच्चे को जन्म देने के बाद, मै बिना बच्चे को देखे अस्पताल से बाहर निकल आई थी, मुझे नही पता वो लडका था या लडकी, और उस समय मुझे यह जानने की बिल्कुल इच्छा भी नहीं हुई थी। उस समय तो ऐसा लगा था जैसे कोई अनचाही चीज जिसे मै अपने साथ ढो रही थी, उससे मुक्त हुई थी।

आज हर चीज से बाहर आ गई थी, नये शहर में नई नौकरी कर अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश करने लगी थी। पुरानी हर चीज को भूलने का मुझे यही एकमात्र रास्ता दिखा था

एक रविवार, सुबह एक चाय पी चुकी थी, हल्की हल्की से ठंड शुरु हो चुकी थी, रेवती बर्तन साफ करके जाने को थी, तभी मैने कहा- जाने की जल्दी ना हो तो दो कप चाय बना लो। मैं कुर्सी पर बैठी कब सो गई पता नही, रेवती की आवाज - दीदी चाय से अचानक लगा जैसे बहुत देर से सोई हुई थी।

रेवती भी वही पास ही बैठ गई। कुछ बात करने के लिहाज से मैने पूछा- और घर में कौन कौन है?

रेवती- दीदी हम, हमारा आदमी दो मन के और दो अनचाहे बच्चे।

“अनचाहे बच्चे” ये शब्द मेरे कानों में गरम सीसे सा पडा, फिर भी खुद को संयत करते हुये बोली- ऐसा क्यो कह रही है, अनचाहे से क्या मतलब है तेरा?

रेवती- दीदी जी अब आपसे भला क्या छुपाऊं। जब मेरी शादी हुई तब ही मैने मेरे मरद को बोल दिया था कि हम दो से ज्यादा बच्चे नहीं करेंगें, तब तो उसने भी खुशी से हामीं भर दी थी कि हां दो होंगें तो उनको अच्छा पढा लिखा कर अच्छा आदमी बना देंगें, वो मेरी तरह ट्रक नही चलायेगा, और ना ही तेरी तरह घर घर काम करेगी।

तीन साल में भगवान की दया से हमे एक लडका और और लडकी हो भी गये। मगर रग्घू अपनी बात पर ना टिका रहा। आये दिन मुझसे एक और बच्चे के लिये कहता रहा। मेरे लाख मना करने के बाद भी अपनी जोर जबरदस्ती से मेरे पेट में एक बार और बच्चा दे दिया। मैने खूब कहा सुना – कि ये बच्चा गिरा देते हैं, तो उसने मुझे छोडने की धमकी दे दी। आखिरकार करती भी क्या, जन दी एक और बच्चा।

कहते कहते रेवती का मन और आवाज दोनो भारी हो गये। एकाएक वो चुप हो गयी।

और मेरा मन गिनती में उलझ गया। मगर ये तो तीन बच्चे हुये, चौथा भी क्या ऐसे ही हो गया।

रेवती शायद अब कुछ नही कहना चाह रही थी, मगर मै आगे सुनने के लिये आतुर थी, मै उसके कंधे पर हाथ रख बोली- ऐसा ही तो होता है इस समाज में, स्त्री पैदा तो करती है, मगर उसकी अपनी मर्जी हो ये कहां जरूरी है। रग्घू को तू उसके बाद भी नहीं मना कर पाई थी क्या। 

रेवती – नही दीदी, तीसरे के बाद तो मैने कसम खा ली थी, कि चाहे मुझे रग्घू से अलग ही रहना पड जाय मगर अब मै अपना पेट नही चिरवाऊंगी।

मगर जानती हो दीदी – रग्घू ने तो वो कर दिया, जो हम कभी सोच भी ना सकते थे।

थोडा रुक कर बोली - एक बार वो ट्रक ले कर करीब एक महीने बाद लौटा। और उसके बाद से मुझसे कटा कटा रहने लगा।

पहले तो मैने उसको मनाने की बडी कोशिशे की, फिर उसको उसके हाल पर छोड बच्चों के साथ लग गई, पहले दो मकान थे, अब दो और पकड लिये थे, पैदा करने वाला तो अपनी ही दुनिया में था, बच्चों का पेट पालने के लिये काम तो मुझे ही करना था।

और फिर करीब आठ साढे आठ महीने बाद, एक दिन सुबह सुबह दरवाजे पर एक बच्चे के रोने की आवाज आई, मै उठ कर बाहर निकली तो देखा एक सत्रह अठरह साल की लडकी, गोद में एक बच्चा लिये खडी थी।

मैने पूछा- तुम कौन हो? तो बोली – रग्घू को उसका बच्चा देने आई हूं, कह कर मेरे हाथ में बच्चा थमा, बिजली की तरह गायब हो गई। मैं गुमसुम सी दरवाजे पर तब तक खडी रही जब तक रग्घू बच्चे के रोने की आवाज सुन कर दरवाजे पर नही आ गया। मेरे हाथ में बच्चा देख बोला- अब ये कौन है, मेरे सबर का बांध टूट गया, मै बोली- ये मुझसे पूंछ रहा है, ये कौन है, तू बता ये कौन है? रग्घू को काटो तो खून नही वाली स्थिति हो गई। कई घंटे हम लडते रहे, बच्चा बिलबिलाता रहा, आखिरकार मेरे अंदर की मां ने एक और अनचाहा बच्चा स्वीकार कर लिया। बीते दिनों से लौटते हुये रेवती के चहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी - हंस कर बोली, जानती हो दीदी, अपना मनवा वही बच्चा है, जो रोज मुझे लेने और छोडने आता है, सगी औलाद से भी ज्यादा माने है मुझे।

रेवती की बातों ने मुझे अंदर तक हिला दिया। मुझे मेरी तकलीफें उस अबोध की तकलीफों के सामने बहुत छोटी लगने लगीं। मै उस नन्ही सी जान को अस्पताल के हवाले करते समय यह क्यो नही सोच पाई कि जिसने अभी दुनिया में आंख भी नही खोली थी उसको मै कैसे छोड आई। भले ही वो अनचाहा था, मगर क्यों नही उसको अपनी ममता दे सकी।

रेवती आज मेरी नजर में किसी विदुषी से कम ना थी जिसमें ना सिर्फ जीवन सी सच्चाइयों का सामना करने की हिम्मत थी, बल्कि अपनी मेहनत और लगन से अनचाहे को मनचाहे में बदलने का हौसला भी था।आज एक सामान्य सी स्त्री ने मुझ पढी लिखी को इंसान और स्त्री होने के मायने समझा दिये थे, जिंदगी को अब मै एक नये नजरिये से देख पा रही थी और चाय का कप किचन में रख मैं भी अपने अनचाहे को मनचाहा बनाने का निर्णय कर चुकी थी।

सोमवार, 28 नवंबर 2022

रामा

 

रामा आज सुबह से बहुत बैचैन थी। उसके मालिक ने उसे इस अवस्था में भी घर से निकाल दिया था। कल तक मुझे खिलाये बिन खाता न था, शाम को घर लौटते ही सबसे पहले मेरे पास आता था, मुझे सहलाता था। सारे घर को सख्त हिदायत थी कि मेरे खाने पीने में कोई कमी न रखी जाय। गांव शहर में फैले लंपी वायरस के कारण आज उसी सुखीराम और उसके परिवार  के बदलते व्यव्हार को रामा चुपचाप देख रही थी। फिर भी स्वप्न में भी उसने सुखीराम से ऐसी आशा न की थी। आज सुबह जब चराने के लिये सुखीराम ने अपने बेटे को मेरे साथ भेजा, तभी मेरे मन को शंकाओं ने घेर लिया था। थोडी देर बाद एक चौराहे पर मुझे खडा कर उसका बेटा हसीराम देखते देखते आंखों से ओझल हो गया। बहुत देर तक मै उसकी प्रतीक्षा करती रही, और जब उसके आने की संभावना लगभग शून्य हो गयी, मै घर की तरफ चल दी। अब समझ आ रहा था मै घर से कितनी दूर लाकर छोडी गयी थी। भूख प्यास से दम निकला जा रहा था। घर के द्वार बंद थे या संभवतः हमेशा के लिये बंद कर दिये गये थे, जो मेरी करूण पुकार पर भी न खुले।

मेरे अंदर पल रही जीवात्मा भी भूख प्यास से व्याकुल हो रही थी। मै मुड़ कर खाने की आस में चल दी कि शायद कही किसी घर के सामने रोटी पानी य कुछ और मिल जाय। मेरी आशा पूर्णतः निराधार न निकली कुछ देर तक चलते चलते मै एक ऐसे मोहल्ले में पहुंची किसके एक घर के बाहर पानी की हौद रखी थी। मैने पानी पी अपनी प्यास बुझाई तो भूख बलवान हो उठी। मै कुछ और आगे बढी तो एक दो घरों के बाहर रोटियां मिल गई। मै रोटी खा  सोचने लगी कि दिन ढलने को आ गया, मै अपने अंदर पल रही नन्ही सी जान जो दुनिया में किसी भी क्षण आ सकती है उसके लिये कुछ नही कर सकती थी। ऐसा सोच ही रही थी कि तभी मुझे मेरी पडोसन श्यामा अपनी बहन गौरी के साथ आती हुयी दिखी। मेरे पास आ, श्यामा सजल नेत्रों से बोली- बहन दिन में तुम्हारी करुण आवाज सुन रही थी, मगर कुछ कर न सकी, हम दोनो ही खूंटे से बंधी थी। मेरे घर के सभी लोग हम दोनो के भरोसे घर छोड, दूसरे गांव अपनी बहिन के घर कुछ काम से गये थी। बस अभी आकर उन्होने हमे खूंटे से खोला, तो हम भाग कर निकल आई और तुमको ढूंढने लगी। तुम चिंता ना करो, कान्हा तुम पर जरूर दया करेंगें। 

तभी पास से गुजरती हुयी एक अजनबी गाय आकर रुक गयी और श्यामा से बोली- बहिन क्या बात है कोई परेशानी की बात है क्या? श्यामा बोली- बहुन हम सब इस मोहल्ले में नई हैं, तुमको पता है क्या ये मोहल्ला कैसा है, फिर श्यामा ने रामा की स्थिति के बारे में सब कह सुनाया । सब कुछ सुन कामधेनू बोली- बहिन ये मोहल्ला और इस मोहल्ले के लोग बहुत अच्छे हैं, मै पिछले दो बरसों से यहीं हूं। इस अनाथ को यहीं के लोगों ने पाला हुआ है, इन दो बरसों में ऐसी एक भी रात नहीं हुई जब मैं भूखी ही सोई हुई हूं।  आज तुम सब भी यहीं रात गुजार लो। कामधेनू की बातों का विश्वास कर तीनों वहीं रुक गई। तभी कामधेनू की दो सखियां भी घूमते घामते आ पहुंची। रामा की स्थिति देख उन्होने भी उसको अकेले ना छोडने का निश्चय किया। 

रात के दूसरे पहर में रामा को प्रसव पीडा उठी, और थोडी ही देर में उसने एक नन्ही सी अबोध बछिया को जन्म दिया। सभी गायें यह सोच कर रंभानें लगीं कि शायद कोई अपने घर से निकल इस नन्ही सी बछिया और रामा की मदद कर दे। कामधेनू सही थी, मोहल्ले के कई लोग रात के एक बजे भी इन गायों की आवाज सुन घर से निकल आये। नन्ही सी बछिया को देख लोगो को यह समझते देर ना लगी कि यह नवजात बछिया है। कुछ ही देर में एक दो लोग गुड रोटी लाकर रामा को खिलाने लगी, एक ने आकर नन्ही बछिया को मोटे से बोरे से लपेट दिया। सभी गायें तो क्या मोहल्ले भर के लोग भी इस नवजन्मा को आशीष दे रहे थे।

रामा जो शाम तक अपने भाग्य को कोस रही थी, अब अपने भाग्य की सराहना कर अपने कान्हा को धन्यवाद दे रही थी और नन्ही सी बछिया भी अब तक खडी हो सभी का अभिवादन कर रही थी। 

रविवार, 27 नवंबर 2022

जरूरी तो नहीं

करीब रहने वाले अज़ीज़ भी हों, जरूरी तो नहीं

मुस्कुराते चेहरों तले, खुशियां पलें, जरूरी तो नहीं


दिलों जान से चाहना ही बस, आपके मेरे बस में

सिलसिले चाहतों के उधर भी हों, जरूरी तो नहीं


सह लेते हैं कुछ लोग, हर ज़ख्म हंसते हंसते भी

हाले दिल हम ज़माने को सुनाए जरूरी तो नहीं


अहसास ऐ बेगानापन काफी है, दिल डुबाने को

बुझे चिराग ही करें तीरगी मकां में, ज़रुरी तो नहीं 


लहज़े बातचीत के बता देते हैं, स्वाद रिश्तों का 

कड़वे अल्फाज़ ही कहे सुने जाय ज़रुरी तो नहीं 


कली गुलाब की काफी है इज़हार ए मोहब्बत को

महंगें गुलदस्तें हों वजह ए इकरार, ज़रुरी तो नहीं 


पलाश करती है कोशिश, अपनों को खुशी देनें की

उसकी हर इक कोशिश हो कामयाब, ज़रुरी तो नहीं 

सोमवार, 1 अगस्त 2022

कुछ कहता है ये सावन


 

अपने मन के एक छोटे से कोने में मैने बना रखी है एक सुंदर सी गली जिसका नाम रखा है मायका। जिसमें रहती है, सुमधुर यादें, अल्हड़ बचपन, खट्टी मीठी बातें, शरारतें, और सखियां 

जब कभी भी हदय को दुनिया की भीड़ में अकेलेपन का अहसास होता है, मैं खटका देती हूं इस गली का कोई एक दरवाजा जब कभी मन चाहता है जाना अपने मायके किंतु जीवन की व्यस्तताओं और जिम्मेदारियों  की विवशताओं के कारण जाना असंभव सा दीखता है, तब अपने सारे कामों को निपटा आ जाती हूं इसी गली में। जब तीज त्योहारों में नही मिलता कोई जिसके साथ खुशियां बांट सकूं, तो आ जाती हूं इसी गली में, जब बेचैन होता है मन, किसी अपने से गले लिपट कर अपनी पीड़ा बांट लेने का, आ जाती हूं इस गली में।

मायका- एक ऐसी दुनिया जिसका एक छोटे से छोटा कोना भी प्रेम से बिंधा होता है। जिसमें ना चकाचौंध है, ना दिखावा है, ना छल का कोई स्थान, ना बैर को कोई जगह।

सावन का महीना हो और मायके जाने को मन आतुर ना हो यह तो शायद वैसे ही है हुआ जैसे चैत की भोर हुई हो मगर सूरज देवता दर्शन ना दे।

बेटियां सिर्फ तभी तक बेटियां होती हैं जब तक उनके जीवन में ससुराल नाम की दुनिया का आगमन ना हो। बहुत सुंदर लगती है ये बात कि आज के जमाने में बहुयें बेटियों जैसी ही रहती है। हकीकत या तो जन्म देने वाली मां जानती है या उसकी जाई बेटी। रोजमर्रा की जरूरतों से कहीं ज्यादा बडी होती है, प्रेम और अपनेपन की जरूरत। मखमल की चादर भी नुकीली ही लगती है यदि मन में परायेपन का छोटा सा भी कंटक लगा हो।

सुखी और खुशी ये मन की वो भिन्न अवस्थायें है, जो सदा साथ ही रहती हो, ये तनिक भी आवश्यक नही। जैसे बारिश हो और हर मन मयूर सा नृत्य करे, विरह में डूबा हदय बरखा के साथ बरसता है और प्रीत से भीगा मन उत्सव मनाता है।

सावन का महीना आज भी हर ब्याहता के लिये मायके चलने का न्योता लेकर आता है। नीम के पेड़ पर पड़े झूले मेघों के माध्यम से भाई का संदेशा लाते हुये कहते हैं कि आ जाओ बहना तुम्हारे भाई की कलाई तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।

बाबू जी भी भूल जाते है कि उनकी बिटिया अब इतनी बडी हो गयी है कि पूरी एक दुनिया की जिम्मेदारियां संभाल रही है, बाजार में लगे मेले से उसके लिये गुडिया और कंगन ला कर रख लेते हैं और जब मायके आकर बिटिया गले से लगती है तो गहनों से सजी बेटी को बाबू जी बहुत सारी प्यार और आशीर्वाद के साथ उसके हाथ में कागज में लिपटे हुये कांच के दो कंगन दुलहन सी सजी गुड़िया थमाते हुये कहते हैं, वो परसों बाजार गया था एक दुकान पर ऐसे ही नजर पडी, तो बस तेरे लिये लेता आया। बेटी यह भली भांति जानती है कि उसके बाबू जी खूब ढूंढ कर उसके लिये वो दुल्हन वाली गुड़िया लाये होंगे। पिता पुत्री दोनो ही अपने अपने आंसू छुपाने का असंभव प्रयास करते हैं, तभी मां इस विराम को तोडते हुये कहती है, आजा बिटिया, जा जल्दी से हाथ मुंह धो कर आजा, तेरी पसंदीदा फेनी बनी है, और बाबू जी की तरफ उलाहने भरी नजर से देख कहती हैं बातों से ही बिटिया का पेट भरवा दीजियेगा क्या? जब श्रीमती जी से कुछ कहते ना बन रहा हो तब बेटा ढाल सा दिखता है, और वही बाबू जी भी करते हैं  और भाई को लाड से लिपटा आदेश देते है- अरे बउआ झूला ठीक से देख तो लिये हो ना, कही अइसन ना हो बिटिया बइठे झूला मां औ झूला लपक के नीचे आ जाये।

एक बेटी के आ जाने से पल भर में ही जेठ सा तपता सावन हरा भरा हो जाता है। और फिर बातों हंसी ठिठोली, उल्लास, और उत्सव के अनंत दौर शुरु होते है। बेटी भी जी भर कर एक बार फिर अपने बचपन को जीना चाहती है,ताकि अपने मायके की उस गली को जो उसने अपने हदय में बनाई है उसने वापस जा कर बना सके एक और सुखद यादों का घर अपने मायके की गली में।

सोमवार, 11 जुलाई 2022

देश का अगला राष्ट्रपति, कौन?


२०२२ की शुरुआत के साथ ही साथ, सत्ता के गलियारों में एक चर्चा,जो  रह रह कर साल भर जोर पकडती रही, वह रही -अगले राष्टपति का नाम । जुलाई २०२२ को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है, और इस बात आज तय है कि कोविंद जी दुबारा राष्ट्रपति होंगें, तो ऐसी स्थिति में, चाहे वह एक आम आदमी हो या वरिष्ठ पत्रकार, अपने अपने बौधिक स्तर पर सभी यह आंकलन करने की कोशिश करने लगे हैं कि देश का अगला राष्ट्रपति कौन?

ये मेरा विश्वास है कि आज भी देश के संविधान और प्रणाली पर आज भी एक आम आदमी का अटूट विश्वास है, और वह राष्टपति के रूप में एक ऐसे व्यक्ति को देखना चाहती है जो उसके इस विश्वास को और दॄढता प्रदान करे।

कुछ नाम जो इस गरिमामयी पद के लिये मीडिया के माध्यम से समय समय पर उभर कर आते रहे, निश्चित तौर पर वह सभी, इस पद की संवैधानिक योग्यता के मापदंडों पर खरे उतरते थे

२०२२ के आरंभ में अगले राष्ट्रपति के तौर पर आंनदी बेन पटेल, आरिफ मोहम्मद खान, वेकैंया नायाडू और थावरचंद गहलोत का नाम काफी चर्चा में रहा, फिर अचानक से जून महीने में यह सभी नाम एकाएक गायब हो गये और दो नये नामों से सारा मीडिया भर गया द्रौपदी मुर्मू और यश्वंत सिन्हा। दोनो ही व्यक्तितव इस गरिमामयी पद से लिये योग्यता रखते हैं किंतु राजनीतिक दल और मीडिया दोनो ही योग्यता की नही अपितु उनकी जातीय और क्षेत्रीय मूल्यों को उनकी विशेषता बतलाते हुये नजर आते हैं, कोई द्रौपदी मुर्मू को महिला के तौर पर प्रचारित कर रहा है कोई आदिवासी नाम के ट्रंप कार्ड का उपयोग कर रहा है, बहुत कम ही जगहों पर द्रौपदी मुर्मू और यशवंत सिन्हा की उपलब्धियों, योग्यताओं और विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन हो रहा है। 

यहां पर एक प्रश्न और है जो उभरता है कि इस चुनाव में उम्मीदवार के समुदाय की कितनी भूमिका है, और क्या समुदाय की भूमिका होनी चाहिये 

-- क्या देश का यह सर्वोच्च पद भी समुदाय की सीमा से मुक्त नहीं?

-- क्या देश के इस पद पर पदस्थ व्यक्ति को महिला या पुरुष के रूप में देखना उचित है? 

-- क्या इस पद पर महिला को आसीन करने मात्र से महिला सशस्त्रीकरण की सार्थकता सिद्ध की जा सकती है?

-- आदिवासी समाज का विकास सिर्फ एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति के लिये नामांकित करने मात्र से ही किया जा सकता है?

-- क्या देश के प्रथम नागरिक को भी समुदायों की जंजीरों में जकडना उचित है? 

-- यदि ऐसा नही है तो फिर क्या अर्थ है ऐसी विवेचनाओं का।

-- क्या  मायने हैं इन देश के सर्वोच्च पद के लिये नामांकित नामों को समुदायों के चश्मे से देखने या देखाने के। 

ऐसे और भी कई प्रश्न हैं जो एक भारतीय के मन में उठते रहते हैं। जो सिर्फ और सिर्फ प्रश्न ही रह जाते है।

उपरोक्त चित्र कुछ दिन पूर्व ही एक अखबार में प्रकाशित किया गया। 

हमारा बुद्धिजीवी मीडिया यहीं पर नही रुकता। विष्लेशण की स्वतंत्रता का सदुपयोग करते हुये, हमारा मीडिया अभी तक के राष्ट्रपतियों को उनके जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भी वर्गीकृत करते हुये जनता के सामने हमारे पूर्व राष्ट्रपतियों की एक नयी तस्वीर पेश करता है 


राष्ट्रपति होने की योग्यतायेंः

बचपन में नागरिक शास्त्र में हमें भारत के राष्ट्रपति होने की योग्यतायें पढाई गई थी, जिनका आज शायद ही कहीं कोई जिक्र करता दिखे, 

आखिर हम कैसे भूल सकते हैं संविधान की वह मूल भावना, जिससे वह अपने राष्ट्रपति को देखता है 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार:
1. भारत का नागरिक होना अनिवार्य है.
2. कम से कम 35 वर्ष की आयु होनी चाहिए.
3. वह व्यक्ति किसी भी लाभ के पद पर कार्यरत न हो.
4. वह लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता पूरी करता हो.

स्त्रोत-- https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/how-can-you-become-the-president-of-india-in-hindi-1500039342-2)

कैसा राष्ट्रपति चाहते है भारतवासी?

भले ही भारतीय संविधान के अनुसार, एक आम नागरिक राष्ट्रपति चुनाव में सीधे तौर पर भाग नहीं ले सकता, किन्तु हमारे सांसद और विधायक जो इस प्रकिया में भाग लेते है, वह जनता के मत का परोक्ष रूप से प्रतिनिधित्व ही तो करते हैं। हम भारतवासी आज इस पग पर एक ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते हैं जिसे ना तो भविष्य में पुनः एक और बार रबर स्टैंप कहा जाय और ना ही गूंगी गुडिया। 

हम एक ऐसे व्यक्ति को इस पद पर देखना चाहते है जो हम भारत्वासियों को कम से कम यह संदेश तो दे सके कि भारतीय संविधान में भारत के राष्ट्रपति को क्या क्या अधिकार प्राप्त है। वरना एक आप नागरिक तो बस यह जानता है कि भारत में राष्ट्रपति या तो किसी की फासी की सजा निरस्त कर सकता है या फिर २६ जनवरी को तीनो सेनाओं की सलामी लेता है। 

           कम से कम इस गरिमापूर्ण पद को राजनीतिक रंग में रंगने के प्रयासों से जनता की भावनाओं को ही ढेस लगती है, हमारे राजनीतिज्ञों को इस बात को नजरंदाज ना करते हुये, योग्य व्यक्ति को ही राष्टपति भवन की गरिमा सौंपनी चाहिये, और यह कार्य सभी राजनितिक दलों को अपने अपने स्वार्थों और लाभो से ऊपर उठ कर करना होगा, तभी संविधान का सही मायनों मे सम्मान निश्चित किया जा सकेगा। 

* चित्रो के लिये गूगल का आभार

मंगलवार, 31 मई 2022

अम्मा बाबू जी को समर्पित एक गीत


ईश्वर से कुछ ना मांगें हम 

सब कुछ तुमसे पाया है 

राम सिया से मात पिता की

हम बच्चों पर छाया है 


तुम दोनो को संग में देख के 

मन हर्षित हो जाता है 

अद्भुद सी अनुपम जोडी को 

देख के मन यह गाता है 

युग युग तक आशीष मिले बस

और नहीं कुछ पाना है 

राम सिया से मात पिता की........


कर्म ही धूरी जीवन जिसका

जो सत की सच्ची सूरत

त्याग तपस्या लक्ष्य है जिसका

ममता प्रीत की वो मूरत

इठलाती हूं भाग्य पे अपने

पारस हमने पाया है 

राम सिया से मात पिता की........


 ईश्वर से कुछ ना मांगें हम 

सब कुछ तुमसे पाया है 

राम सिया से मात पिता की

हम बच्चों पर छाया है 

मंगलवार, 22 मार्च 2022

कुछ गुलाब कुछ कांटे

जाने क्यूं जलते लोग,बुलंदियों के आ जाने पर

बदल जाते क्यूं रिश्तें, गुरबत के आ जाने पर


हटे नकाब अनदिखे, उजले चमके चेहरों से

खुल गई सभी बनावटें, तूफां के आ जाने पर


अरसा हुआ देखे उन्हें, जो रोज मिलने आते थे

दिखे नहीं दिया भी तो, अंधेरों के  छा जाने पर


घर से आंगन खत्म हुये, बैठकें खत्म दुआरों से

मिलना-जुलना खत्म हुआ,मोबाइल के आने पर


इतराते हैं वो तो इसमें, नहीं ख़ता ज़रा उनकी

नजाकत आ ही जाती है, हुश्न के आ जाने पर


दौर वो खोया जब मेहमां, हफ्तों हफ्तों रहते थे

दिन गिनते हैं अपने ही, अपनों के आ जाने पर


सोने चांदी गहनों की, चाहत मां कब रखती है 

खिल जाती है बच्चों सी, बच्चों के आ जाने पर


अभी तलक वो मेरा है, क्यूं कि वो मेरे जैसा है 

जाने पलाश क्या होगा शोहरत के आ जाने पर

मंगलवार, 15 मार्च 2022

अर्धविराम



जब तक है श्वासें इस तन में

मै पूर्णविराम नहीं लगाऊंगा

जीवन की हर इक घटना को 

मै अर्धविराम ही बतलाऊंगा


इस जग में किसे अभाव नहीं

किंतु रुकना मेरा स्वभाव नहीं

प्राण यात्रा के प्रत्येक लक्ष्य को

मै अर्धविराम ही बतलाऊंगा

जब तक है श्वासें इस तन में

मै पूर्णविराम नहीं लगाऊंगा


भिक्षुक बन क्षण कभी आता

कभी दाता रूप में दे जाता 

जीवन की रिक्तता पूर्णता को 

मै अर्धविराम ही बतलाऊंगा

जब तक है श्वासें इस तन में

मै पूर्णविराम नहीं लगाऊंगा


सफलता की कोई माप नहीं

असफलता खाली हाथ नहीं

सुखदुख के क्षणभंगुर क्षण को 

मै अर्धविराम ही बतलाऊंगा

जब तक है श्वासें इस तन में

मै पूर्णविराम नहीं लगाऊंगा

शुक्रवार, 11 मार्च 2022

गिर जाना होता हार नही

 


निशा घनी जितनी होगी

भोर धनी उतनी होगी

काले बादल छाये तो क्या

बारिश भी रिमझिम होगी

 

गिर जाना होता हार नही

क्यूं नियति स्वीकार नहीं

है प्रयास तुम्हारे हाथों में

क्यों भुज का विश्वास नहीं

 

ह्र्दय का मत यूं संताप बढा

बन जरा सत्य में लिखा पढा 

अब झांक जरा अंतर्मन मे

औरों के माथ ना दोष चढा

 

हर मार्ग बंद जब होता है

साहस भी साहस  खोता है

वह पल होता है परीक्षा का

तब कर्म ही कारक होता है

 

तो चल समेट ले बल अनंत

सोये सामर्थ्य को जगा तुरंत

है धरा तेरी, यह नभ भी तेरा

कर स्वयं अपने विषाद अंत

 

 

रविवार, 20 फ़रवरी 2022

तूफानों में पलते पलते



दो से देखो वो एक हो गये, चलते चलते

राही अंजान हमसफर हुये, चलते चलते


मौसम तो आये कई मुश्किलों के मगर

कोयले से खरा कुंदन हुये जलते जलते


बडी आजमाइशे की मुकद्दर ने तो क्या

मंजिले पा ही गये शाम के ढलते ढलते


फासले मिटाने को हंसके गले मिलते रहे

आखिर दुश्मन थक ही गये छलते छलते


फंदे पाबंदियों के छुडा, छू लिया आसमां

और रह गये लोग बस हाथ  मलते मलते


क्या डराते हो तुम आंधियों के मिजाजों से

चलना सीखा हमने तूफानों में पलते पलते


जो भी है दिल में पलाश आज ही कह दो

बात बन जाती है फ़साना यूं टलते टलते

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

हल्ला हिजाब का

शोर करने को कहां है कोई मुद्दा जरूरी

पता है शोर खुद ब खुद मुद्दा बन जायेगा

पिछले कुछ दिनों में चुनाव के अलावा जो मुद्दा सबसे ज्यादा चर्चा मे है – वह है हिजाब

सामान्यत यह मेरा स्वभाव है कि मैं घटनाओं पर चिंतन मनन करती हूं मगर उस पर अपनी प्रतिक्रिया केवल स्वयं तक ही सीमित रखती हूं, मगर आज मैंने स्वयं को ऐसा करने से रोका और इसके पीछे कई कारण भी है, जिनमें से सबसे प्रमुख है इस मुद्दे में जुड़ी है शिक्षा पद्धति और उसकी निष्ठा पर उठा सवाल।

इससे पहले की हम इस मुद्दे का विष्लेशण करे, हम जरा ये देख लेते हैं, कि आखिर ये मुद्दा है क्या।

हिजाब मुद्दे की शुरुआत

कर्नाटक के उड्डपी मे, साल के पहले दिन यानि १ जनवरी को यह विवाद तब शुरु हो गया जब वहां के एक कॉलेज की २८ छात्राओं को हिजाब पहनकर क्लास करने से रोका गया।इससे बाद इन छात्राओं ने अनुमति के लिये धरना प्रदर्शन शुरु कर दिया।

जैसा कि हमेशा ही होता है, कि राजनीतिक दल ऐसे मुद्दो को अपने वोटबैंक और राजनीतिक अवसर की तरह से लेते है, और बिन बुलाये मेहमान की तरह ऐसे मुद्दो मे शामिल हो, मुद्दो को सुलझाने के बजाय वो सारे प्रयास करते हैं जिससे मुद्दा और गरम हो। ऐसा ही इस मुद्दे में भी हुआ, धीरे धीरे यह मुद्दा देश के कई राज्यों जैसे बिहार, राजस्थान मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व कई अन्य राज्यों में पहुंच गया।

चुनावी भाषणों मे भी अलग अलग पार्टियों ने इसे अपने अपने तरीके से उछाल, वोटरो को अपनी तरफ करने के तरीके अपनाये।

हिजाब मुद्दे के विभिन्न पहलू

इस मुद्दे पर मेरे मन में  तीन सवाल उठते हैं

१.      क्या यह दिन उस कॉलेज का प्रथम दिन था,

२.      क्या उस दिन उस कॉलेज मे किसी मुस्लिम छात्रा का हिजाब पहनकर आने का पहला दिन था

३.      क्या वह दिन आलिया का उस कॉलेज में प्रथम दिन था?

यदि उपरिक्त तीनों ही प्रश्नो का उत्तर नहीं है, तो चौथा एक और प्रश्न उठता है कि १ जनवरी २०२२ से पहले कॉलेज में मुस्लिम छात्राओं के लिये क्या व्यवस्था थी, जो सभी छात्राओं को समान रूप से स्वीकार थी। यदि आलिया हिजाब पहन कर जाते थीं, तो कॉलेज प्रशासन ने अचानक से क्यो मना किया, और यदि आलिया बिना हिजाब के कॉलेज में अपनी पढाई करती थीं तो क्यो अचानक से उन्होने क्लास में हिजाब पहनकर ही पढाई करने का मन बनाया।

यहां आपको बताते चले कि उड्डपी में लम्बे समय तक रहने वाली रश्मि सामंत जिनकी प्रारंभिक शिक्षा उड्डपी में ही हुयी है, कहती हैं कि उड्डपी के स्कूलों में यूनीफार्म नियम बहुत ही सख्त हैं, स्कूलों में एक चेंजिग रूम की व्यवस्था रहती हैं, जहां वे छात्राये जो हिजाब पहनकर आती है, क्लास जाने से पहले वह यूनिफार्म ही पहन लेती हैं।

रश्मि सामंत के विचारों को जानने के बाद एक प्रश्न फिर जन्म लेता है

आखिर अचानक से ऐसा क्या हुआ जिसने कई वर्षो से स्वीकृत कालेज के मान्य सिस्टम को मानने से इंकार कर दिया?

कई लोग अपने अपने तरीके से अपनी प्रतिक्रियायें दे रहे हैँ, कुछ लोग इसे स्वतंत्रता से जोड रहे हैं तो कुछ लोग इसे भेदभाव के रूप में देख रहे हैं।

मलाला यूसुफजई और मरियम नवाज हिजाब पहनकर स्कूल जाने वाली लडकियों को रोकने को भयावह बताती हुयी भारतीय राजनेताओं से अपील करती हैं कि भारतीय मुस्लिम महिलाओं को वह हाशिये पर जाने से रोकें।

व्यक्तिगत विश्लेषण

बात जहां तक स्वतंत्रता की हो रही है, तो हमे यह भी समझना होगा कि आखिर स्वतंत्रता से हमारा तात्पर्य क्या होता है और सही अर्थो मे क्या होना चाहिये।हमे स्वतंत्रता की मर्यादा का मान रखना चाहिये।

भारत आज एक स्वतंत्र देश हैं, हमे बहुत से अधिकार भी मिले हैं,हमे विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्र है किंतु फिर भी स्वतंत्रता की भी एक परिभाषा होती है।  

व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ ही साथ देश और प्रदेशों को भी  समाज में शांति एवं व्यवस्था बनाने हेतु नियमों को बनाने की स्वतंत्रता है बशर्ते किसी जनमानस की भावनायें आहत ना हो।

यहां मैने दो व्यक्तियों के विचारों को इंगित किया, जबकि बहुत से बडे बडे लोग अपनी प्रतिक्रियायें दे चुके हैं, इसका भी एक कारण है- एक तरफ हैं रश्मि जी जो उड्डपी में पली बढी है, वहां की संस्कृति को भली भांति समझती हैं, उड्डपी के लोगों की उनको समझ है।

दूसरी तरफ हैं मलाला- निश्चित तौर पर ना तो मुझे उनकी समझ पर संदेह है और ना ही ऐसा करने का कारण। किंतु शायद उन्होने उड्डपी को उतने करीब से नही देखा,जितनी कडी उन्होने प्रतिक्रिया दे दी।

खास लोगो को कुछ भी बोलने का उतना अधिकार नही होता जितना एक आम आदमी को है क्योकि  खास व्यक्ति के विचारों मे ताकत होती है। उसके विचार कई लोगो के विचार उनकी मानसिकता को परिवर्तित करने की शक्ति रखते है, समाज भ्रमित भी हो सकता है या समाज को सही दिशा भी मिल सकती है।इसलिये खास व्यक्ति स्वतंत्र होकर भी स्वतंत्र नही।

एक और बात हमे देखनी चाहिये आखिर स्कूलों, कॉलेजों में यूनीफार्म का उद्देश्य क्या है? 

और क्या हिजाब पहनना उस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक है? 

क्या हिजाब पहनने से रोकने का मूल उद्देश्य शिक्षा को सुचारु रूप से चलाना था या कि समुदाय और लिंग विशेष की स्वतंत्रा का हनन करना?

आखिर यह कितना सही था कि इस घटना के कुछ दिन बाद सोशल मीडिया पर एक वीडियो आता है जिसमें दो मुस्लिम महिलायें बुर्का पहन कर बाइक चालाते हुये दिखायी जाती है?

आखिर यह कितना सही है इस घटना के बाद ही अन्य राज्यों मे भी समुदाय विशेष की छात्राये हिजाब पहन कर कॉलेज जाने को आतुर दिख रही हैं?

आखिर यह कितना सही है कि इस घटना के बाद ही हिजाब दिवस मनाने का एलान किया जा रहा है?

हमे यह समझना होगा कि किसी भी महिला को भारत में हिजाब पहनने से नही रोका गया वरन एक कॉलेज में क्लास के दौरान हिजाब ना पहनने के लिये कहा गया है। और अब यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के अधीन है।

क्या हम लोगो को एक अच्छे भारतीय का परिचय देते हुये सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई और उसके परिणाम की प्रतीक्षा नही करनी चाहिये?

क्या देश भर में प्रोटेस्ट कर कॉलेजों और स्कूलों के बंद करवाने से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को किसी भाति परिवर्तित किया जा सकता है?

निश्चित तौर पर हमें सयंम रखना होगा और विश्वास रखना होगा और आस्था रखना होगी- भारत में, भारतीय संविधान में और शैक्षिक संस्थानों के कार्यकलाप की परिपाटी में।

मंगलवार, 18 जनवरी 2022

दशम् रस

 

कुछ दिनों से हमारी, हमारी उनसे नोंक झोंक नहीं हो रही। मन में अजीब सी खलभली मची हुयी है, कि आखिर ऐसा क्या हमने कर दिया कि हमारा पिछले तीस सालों से चला आ रहा सिलसिला ऐसे खतम हो गया जैसे धरती से डाएनासोर।

सुबह की चाय के साथ भले ही लोगों को बिस्किट खाने में आनंद आता हो, मगर मेरे लिये तो हमारी श्रीमती जी की खरी खोटी बातें ही बिस्किट हैं। हां अक्सर बच्चे ये कह देते हैं पापा आज फिर वही शुरु कर दिया आपने। अब तो हम लोगों को भी याद हो गया है कि आप ये कहोगे तो मम्मी ये कहेंगी, फिर आप ये और मम्मी ये…….।

मगर ये आज की जेनेरेशन क्या जाने कि इस दसवें  तू तू मे मे नामक रस में जो आनंद है, वो ना तो मैथिली जी की कविताओं में मिल सकता है और ना ही बशीर बद्र जी के शेरों में। एक शेर को गीदड बन जाने में जो आनंद मिलता है वो तो कल्पना से परे है। और मै अपने को दुनिया का सबसे सौभाग्यशाली व्यक्ति समझता हूं जिसे प्रभू की कृपा से ऐसा पत्नी नामक रत्न मिला, जिसके कारण मैं प्रति दिन इस आनंद से सागर में गोते खाता हुआ जीवन के इस रस में डूबा हुआ था।
हे प्रभू, आखिर आप मुझे किस गलती का दंड दे रहे हैं, कि मेरी श्रीमती जी मुझसे बिल्कुल गौ सा व्यव्हार कर रहीं हैं।

मै पिछले एक सप्ताह से कितने ही जतन कर चुका, मगर वो तो मुझसे ऐसा व्यव्हार कर रहीं है जैसे कोई नव विवाहिता आज्ञाकारी बहू अपने सास श्वसुर से करती है। 

प्रभू मै जानता हूं, आपने ही उसे गौ बनने की प्रेरणा दी होगी, मेरी आपसे याचना है कि उसे कम से कम मरकही गौ ही बना दीजिये। उम्र के इस मोड पर मै अपनी ओरीजिनल पत्नी को खोने का दुख अब और सहन नहीं कर सकता।

सच कहूं आपसे, पिछले सोमवार जब मैने श्रीमती जी से बोला- थोडी चाय मिल सकेगी क्या, और उधर से बिल्कुल ही अनपेक्षित उत्तर आया- अच्छा देती हूं, तो मै तो एकदम हडबडा ही गया, जैसे  आप भगवान का भोग लगाये और कटोरी से सारा प्रसाद आपको गायब मिले। इससे पहले तो कभी ऐसा नही हुआ, कभी कहा जाता था- कभी मुझे भी कोई बना कर देता मगर मेरे नसीब में ये कहां, कभी कहा जाता- नहीं कह दूं तो क्या उठकर खुद बना लोगे, कभी कहा जाता- सात बजे नही कि लोगो का चाय का राग शुरु हो गया.... मगर हां मन में कुछ नया और मधुर सा स्वर सुन कर अपने नव विवाहित जीवन की स्मृतियां तरोताजा हो गई। उसी आजमाइश में ही तो मैने बोला था – साथ में कुछ खाने को भी मिल सकेगा क्या?

रसोई से आवाज आई- क्या लेगें, बताइये।

मै तो चारो खाने चित्त हो गया था, लगा पता नही किस लोक में आ गया।

मै बस धीरे से बोल सका था- कुछ भी चलेगा।

वो भी क्या दिन थे जब मैं एक पतंग सा जीवन जीता था, मेरी हर उडान में उसकी मर्जी शामिल थी, वो मुझे जब चाहे मुझे उडने देती थी, जब चाहे खींच कर मुझे एक ही झटके में धूल चटा देती थी। मगर कभी उसने मुझे कटने नहीं दिया था, मगर आज मुझे मेरा जीवन कटा हुआ सा लग रहा है।

दो दिन पहले जब मैनें बच्चों को बोला- जरा देखो मम्मी को क्या हो गया, तो वो कहने लगे- क्या पापा आप भी, मम्मी ठीक से बात करें तो भी बुरा और ना ठीक से बात करें तो भी। घर में शांति आपको अच्छी नहीं लग रही क्या? अब कैसे कहता अपने बच्चों से कि इस रूप में तुम्हारी मम्मी मुझे अपनी नहीं लग रही।

उस दिन के बाद से मेरा जीवन जो कि शान्तिनिकेतन बना हुआ है, और अब मैं तो क्या मेरे बच्चे भी सकते में है, किसी को भी समझ नही आ रहा कि मम्मी को किसी डॉक्टर की जरूरत है या किसी ने उनपर जादू टोना कर दिया है।

हे भोलेनाथ, माना मैने कभी आपके लिये उपवास नहीं रखा मगर मेरी पत्नी तो नियम से ना जाने कितने बरसों से बिना नागा किये आपका व्रत करती है। कहते है भले ही पत्नी व्रत पूजन करे मगर उसके आधे पुन्य पर पति का नैसर्गिक अधिकार होता है। हे प्रभू उन्ही पत्नी द्वारा अर्जित पुन्यों मे से कुछ का फल मुझे दे मुझ पर प्रसन्न हो मुझे मेरी वही पत्नी लौटा दीजिये। चलिये मै आपके पांच सोमवार का व्रत भी कर लूंगा।

मित्रों, मेरी बुद्धि तो बिल्कुल भी काम नहीं कर रही, यदि आप लोग मुझे मेरी मौलिक पत्नी की पुनः प्राप्ति का कुछ उपाय बताये तो इस निरीह पति पर महान उपकार होगा।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2022

अंकुर

इतवार की सुबह थी, चाय नाश्ता हो चुका था, अखबार भी पढा जा चुका था। राधिका की कल से परीक्षा थीं इसलिये श्रीमती जी उसको पढानें में व्यस्त थी, भले ही वह फस्ट क्लास में थी मगर हमारी श्रीमती जी को इतनी चिंता थी जैसे उसकी बोर्ड की परीक्षा हो। ऐसे माहौल में टीवी चला लेना किसी गुनाह से कम ना था, डांट पढना संम्भावित नहीं, सुनिश्चित था। हम और मिंटू दोनो को ही कोई काम समझ नहीं आ रहा था। तभी मुझे सामने अलमारी में   फूल और सब्जियों के बीज का पैकेट दिखा जो मै श्रीमती जी के कई बार कहने के बाद लाया था, और शायद कुछ व्यस्तता के कारण वो अभी तक इन्हे बो नहीं पाईं थीं। कोई और दिन होता तो मै भी यह उलाहना जरूर देता - कि जब तक बीज ना लाया था, लोगों ने कह कह कर मेरी नाक में दम कर दिया था, और अब लगता है रक्खे रक्खे ही फूल सब्जी उग आयेंगें। मगर मुझे तो अभी यह एक अवसर सा लगा, एक पंथ दो काज जैसा- मेरा थोडा समय भी कट जायेगा, और श्रीमती जी भी खुश हो जायेंगीं।

मैने मंटू से कहा- आओ बेटा हम लोग गार्डेन में चलते हैं। मंटू जो कुछ देर पहले ही शोर मचाने के कारण मां से डांट खाकर, सोफे पर उल्टा लेटा था, गार्डेन का नाम सुन कर मेरे साथ चल दिया।

दोनो पिता पुत्र ने चार गमले तैयार किये। मंटू बडे ध्यान और मन से मेरे साथ लगा हुआ था। मैने उसको मिट्टी में खाद को अच्छे से मिलाने का काम दिया था, और वह अपने नन्हे हाथों से खूब अच्छे से यह कर रहा था। जैसे ही मैने गमले में बीज डाल कर उनके ऊपर थोडी सी मिट्टी और पानी डाला, मंटू उदास होकर बोला- पापा आपने तो सब गडबड कर दी। मुझे समझ नहीं आया कि मैने क्या किया जिसके लिये मंटू अचानक से उदास भी हो गया और ऐसा क्यों बोल रहा है। मैने उसको अपने पास लाते हुये बोला- क्या हुआ बेटा, मैने क्या गडबड कर दी। ऐसा लगा जैसे मंटू को लगा कि उसके पापा ने जानबूझ कर गलती नहीं की जैसे अभी थोडी देर पहले जब वह पानी का ग्लास सिंक में रखने जा रहा मगर वह छूट कर गिर गया था और राधिका की किताब गीली हो गई थी और फिर मम्मी से उसको डांट पडी थी। 

मासूमियत और समझदारी के मिश्रित लहजे में बोला- पापा आप तो कह रहे थे कि बीजों  से पेड बनेगा, उसमें सुंदर सुंदर फूल आयेंगें मगर आपने तो इनको मिट्टी में दबा दिया, अब ये बेचारे तो अंदर मर जायेंगें, इनको तो हवा भी नहीं मिलेगी। फिर कैसे इसमे से फूल निकलेंगें?

मैं मिंटू के अंदर पनपे मानवीय गुण को देख रहा था। उसके मासूम से प्रश्न में असीम जिज्ञासा छिपी हुई थी।

मैने कहा- दरअसल ये बीज जब मिट्टी के अंदर जायेगा। तभी इससे अंकुर निकलेगा, फिर धीरे धीरे इसमें पत्तियां आयेंगी, फिर नन्ही सी कली और फिर निकलेगा एक दिन सुन्दर सा फूल।

मगर मंटू को शायद मेरी बात समझ नही आ सकी या मै मंटू की समझ तक जाकर उसको समझा नही पाया था।

मंटू का प्रश्न वहीं का वहीं था। बोला- लेकिन पापा मिट्टी के अंदर से ये कैसे बाहर आ पायेगा, इसके पास तो पैर भी नहीं हैं। और पापा ये अंकुर क्या होता है?

तभी मुझे याद आया कि शायद रसोई में कुछ अंकुरित मूंग अभी रखी हो, जो मै रोज सुबह लिया करता हूं।

मैने कहा- तुम यही रुको बेटा , मै बस एक मिनट में आता हूं।

सौभाग्य से रसोई में थोडी अंकुरित मूंग बची हुयी थी, मै अंकुरित मूंग के दाने लिये हुये जब गार्डेन आया तो देखा-  मंटू बोये हुये फूलों के बीजों को मिट्टी से निकाल कर उन पर पानी दे रहा था।

मैने पूछा- बेटा आपने ये बीज क्यो निकाल दिये, और इन पर पानी क्यो डाल रहे हो?

मंटू- पापा इनकी ना सांस अंदर रुक गई होगी, मै इसलिये इनको पानी पिला रहा हूं।

मुझे मन ही मन उसकी इस मासूमियत पर हंसी आ रही थी, मगर मंटू बहुत गंभीर था।

मैने कहा- ये तो आपने अच्छा किया, मगर आपको कैसे पता कि इनकी सांस अंदर रुक गई थी।

बेटा दरअसल, मिट्टी तो इनका घर होता है, और हवा पानी वैसे ही होते है जैसे तुम्हारे लिये हम और मम्मी है।

मिट्टी के अंदर तो यह अपने मम्मी पापा के साथ रहेगा, और फिर धीरे धीरे बडा होकर वापस निकलेगा, वैसे ही जैसे पहले तुम जब बिल्कुल छोटे से थे, अपनी मम्मा की गोद में ही रहते थे, अब थोडा बडे हुये हो ना, तो अब तो आप नही रहते ना मम्मा की गोद में।

आओ तुमको कुछ और दिखाता हूं, फिर एक हाथ में लिये हुये मूंग केअंकुरित दाने मैने उसको दिखाये।

पापा- ये देखो मंटू इसको कहते हैं अंकुर, जिसका मतलब होता है नन्हा सा। जैसे तुम हमारे अंकुर हो और यह मूंग का। आओ हम लोग फिर से इन बीजों को इनके घर पहुंचा देते हैं।

मै फिर से मिट्टी में बीज डालने लगा, इतने में मंटू ने जोर जोर से कहा - मम्मा मम्मा प्लीज यहां आओ ना....

आवाज सुन कर श्रीमती जी के गार्डेन आते ही मंटू ने कहा - मम्मा मम्मा, आज से ना मै मंटू नहीं, अंकुर हूं, है ना पापा, और फिर मेरी तरफ मुड कर मेरी स्वीकृति की प्रतीक्षा करने लगा।

गुरुवार, 6 जनवरी 2022

सूखा गुलाब

 


कितनी मुश्किलों से, हमे उसने भुलाया होगा

जली होगीं उगलियां, जब खत जलाया होगा

 

भूल जाने की कोशिशों में, जाने कितनी दफा

हंसी लम्हों को जेहन में, रो रो दोहराया होगा

 

छोड दी होगीं कई, पसंदीदा चीजें ओ जगहें

संग मेरे उसने जहां, दो पल भी बिताया होगा

 

मिटा दी होंगीं तकरीबन सभी, निशानियां लेकिन

कुछ एक को जतन से, कोह्नूर सा  छुपाया होगा

 

सुन के वो गीत जो कभी, साथ हमने गुनगुनाये

पल भर को तो मन, उस दौर टहल आया होगा

 

छिडें होगें जो कभी किस्से, गुजरे हुये जमानों के

जरूर चेहरा मेरा खयालों में, उभर आया होगा

 

रिमझिम बारिशों से लिपट जब जब भीगा ये मन

हुआ अहसास खिला गुलाब कहीं मुरझाया होगा

 

कुछ भुला देता है वक्त, कुछ हालात भुला देते हैं

यकीं फिर भी दुआओं में, मेरा जिक्र आया होगा

 

अरसे बाद इत्तेफाकन हो गया था आमना सामना

पलाश किस तरह हमें उसने, अंजान बताया होगा

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