प्रशंसक

सोमवार, 27 नवंबर 2017

आई एम सॉरी


लकड़ी से सहारे
भीड़ भरी 
फुटपाथहीन सडक पर
किनारे किनारे
धीरे धीरे चलते
वृद्ध से
टकराता है
एक सत्रह अठारह साल का
मोबाइल पर वयस्त
मार्ड्न युवक
सडक के कुछ बीच
जा गिरती है
लाठी
बिखर जाती है
दूसरे हाथ में
मजबूती से पकडी
कुछ दवाइयां
लडखडा जाते है पैर
युवक हल्का सा रुकता है
उतारता है
रेबन के सन ग्लास
कट करता है कॉल
कानों से निकलता है
इयरफोन
झुक कर देखता है
रीबोक की जींस पर
शायद पड गये दवा के दाग
तभी याद आता है उसे
अपना कर्तव्य
या क्लास की शिक्षा
देखता है वृद्ध की ओर
बोलता है
आई एम सॉरी
संतुष्ट भाव से
कानों पर लगा इयर फोन
चल देता है
वृद्ध
करता है कोशिश
उठने की
कुछ संभल कर
उठाता है गिर गयी लाठी,
जो फंस गयी है
आती जाती कारों और बाइक के बीच
समेटता है 
बिखरी दवाइयां
और मुड़ जाता है वापस
अपनी नियत चाल से कुछ तेज
वही सडक पर छोडकर 
भावहीन सॉरी

बुधवार, 22 नवंबर 2017

रंगे सियार


भरोसा उठने सा लगा
जमाने में लोगों से
जिससे भी दो बात की
वो बेअदब होने लगा

रख सका लिहाज
उम्र का या ओहदे का
मदद की आड में
वो बेशरम होने लगा

नकाब ओढ़ा तो बहुत
सलीकों, तहजीबों का
करगुजारियों से अपनी
बेनकाब होने लगा

बहुत संभल के पेश की
उसने शख्सियत अपनी
चंद पलों में उसका रंग
बदरंग होने लगा

न रख सका आबरू
उस इज्जत की जो हमने दी
तमीजदारों की महफिल में
बदतमीज होने लगा

जिधर भी देखा 
हर शहर जंगल सा हुआ
शेर की आड में आदमी
रंगा सियार होने लगा

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

रिक्शेवाली की बेटी


वसुधा जब से स्कूल से आयी, बस रोये जा रही थी। तुलसी ने उसको चुप कराने की सारी कोशिश करके देख ली, मगर वसुधा का रोना ही नही बन्द हो रहा था। तभी तुलसी को याद आया कि वसुधा पिछले एक हफ्ते से चाकलेट की जिद कर रही थी, मगर उसकी गरीब माँ जानती थी कि एक चाकलेट के पैसों से एक वह पूरे एक हफ्ते की सब्जी ला सकती है, उस पर वो डरती भी थी कि एक बार उसकी बेटी जब चाकलेट का स्वाद जान जायगी तब वह रोज रोज जिद करेगी, मगर वसुधा को चुप करा पाने में असमर्थ तुलसी ने चाकलेट ले ही आने का निर्णय लिया, और दाल के डिब्बे में छुपाया बीस के उस नोट को निकाला जो उसने यह सोच कर रखा था कि कभी जरूरत पडने पर इससे वह अपनी बेटी के लिये दवा ला सकेगी, उस नोट से चाकलेट खरीदने को उठते हुये बोली- वसू चुप हो जा मेरी प्यारी बिटिया, चलो अच्छा आज तुम्हारी चाकलेट ले आते हैं। सिसकते हुये वसू बोली- नही हमको कुछ नही चाहिये, चाकलेट भी नही चाहिये, और फिर रोने लगी। और रोते रोते थक कर माँ की गोद में कब सो गयी। वो अबोध क्या जाने कि उसकी माँ अन्दर ही अन्दर खुद को कितना असहाय महसूस कर रही थी, हजारों सवाल मन में उठ रहे थे, आखिर उसकी सात साल की बेटी क्यों इतना रो रही है, आज नये स्कूल में उसका पहला दिन था, पहले ही दिन आखिर ऐसा क्या हो गया? फिर सोचने लगी चलो अच्छा हुआ सो गयी, उठेगी तब तक शायद बता पाय।
शाम तक बसू सोती ही रही, रग्घू जब घर आया तो उसकी आवाज से वसू जग गयी, उठते ही रग्घू से लिपट गयी- और फिर रोने लगी। तुलसी और रग्घू दोनो ही कुछ समझ नही पा रहे थे। रग्घू ने उसको गोद में उठा लिया, आसूं पोछ लाड से बोला- क्या हुआ, मेरी बिटिया रानी ने कोई सपना देखा क्या- वसू सिसकते हुये बोली- नही, फिर कुछ रुक कर बोली- पापा आज स्कूल में सब मुझे रिक्शेवाली की लडकी कह कर चिडा रहे थे, क्लास में कोई मेरे साथ वाली सीट पर नही बैठा, कोई मेरे साथ खेला भी नही, सब लडकियां कह रही थी – ये रिक्शेवाली की लडकी है, इसके पापा को हम पैसे देते है, तभी तो ये पढने स्कूल आयी है। पापा मै कल से स्कूल नही जाऊंगी।
रग्घू को समझ आ गया कि किसी ने उसे वसू के स्कूल में सुबह देख कर पहचान लिया होगा, स्कूल के किसी बच्चे के भाई या बहन को वह दूसरे स्कूल छोडता होगा। उनके लिये तो वह रिक्शेवाला ही है न कि वसू का पापा। तभी उसे याद आने लगा कि कितनी बार तुलसी ने उससे कहा था कि ऊंचे स्कूल में एडमीसन न कराओ, इत्ते बडे स्कूल में पढाने की हम लोगो की हैसियत नही है, और फिर अगर किसी तरह र पेट काट कर फीस जमा भी कर दी तब भी ऊंचे घर के बच्चों के बीच हमारी वसू दब कर रह जायगी। तुलसी समझती थी कि गरीब की लडकी को कोई सम्मान की निगाह से नही देखता, ये समाज गरीब की लडकी को नीच, चरित्रहीन और न जाने क्या क्या अपनेआप समझ लेता है। वो जानती थी कि अगर किसी तरह उसने अपनी लडकी को पढा भी लिया तो भी क्या, क्या कोई भले घर का आदमी एक रिक्शेवाले की बेटी को अपनी बहू बनायेगा। ऐसा नही था कि रग्घू इन सब बातों से अनजान था मगर उसके जीवन का एकमात्र सपना था- वसू को कलक्ट्ट्र बनाना। इसीलिये वह पढाई के साथ किसी भी तरह का समझौता करने को बिल्कुल भी तैयार न था।
रग्घू गरीब जरूर था मगर इरादों का पक्का था। अचानक रग्घू को याद आया सुबह जब वह वसू को रिक्शे से उतार रहा था, डॉक्टर श्रीवास्तव अपनी बेटी को कार से उतार रहे थे। उसने बडे प्यार से वसू को समझाया। बोला- बिटिया- लोगों की बात ठीक ही तो है- इस दुनिया में सब लोग एक दूसरे से काम लेते है और पैसा देते है ।  तुमको याद है जब तुमको बहुत बुखार आया था तब हम तुमको एक बडे डॉक्टर के पास ले गये थे। हमने उनको फीस भी दी थी, दी थी न, छोटी सी वसू ने पापा की हाँ में हाँ मिलाते हुये बोला- हाँ पापा आपने दो सौ रुपये दिये थे। रग्घू बोला – हाँ , और इन पैसों से उन्होने अपनी बेटी की स्कूल फीस दी होगी। जानती हो उनकी बेटी भी तुम्हारे ही स्कूल में पढती है।
बिटिया- ये दुनिया का चक्र ऐसे ही चलता है, हर कोई कुछ काम करता है और पैसा कमाता है। हम कुछ काम करते है तो पैसा मिलता है, ये पैसा हम किसी और को देते हैं उससे वो कोई काम करता है। अगर इस तरह किसी का बुरा मानोगी तो लोग तुमको और परेशान करेंगे।
अच्छा अब एक बात तुम बताओ- तुमको क्या मेरा रिक्शा चलाना बुरा लगता है? नही पापा, बसू ने स्पष्ट उत्तर दिया। रग्घू की आखें छलक आयी, उसे विश्वास हो रहा था कि उसकी नन्ही सी बिटिया एक दिन उसके सपने साकार करेगी।
बीस साल पहले घटी ये घटना ही वसु के जीवन को बना सकी थी। कहते हैं मन की सच्ची लगन और मेहनत कभी निष्फल नही जाते। रग्घू तुलसी और वसुधा को बरसों की मेहनत और आत्मविश्वास का परिणाम मिला था। आज के हर अखबार की हेड लाइन थी- रिक्शेवाली की बेटी बनी आई. ए. एस. टॉपर।

आज शहर का शायद ही कोई ऐसा बडा आदमी रहा होगा जिसे बसुधा को अपने घर की बहू बनाने से ऐतराज रहा हो। शायद ही कोई ऐसा हो जो वसू से बात न करना चाहता हो, आज हर कोई वसू को देख कर कह रहा था- देखो ये एक रिक्शेवाली की बेटी है मगर आज ये शब्द एक तंज नही मिसाल बन रहे थे।

सोमवार, 20 नवंबर 2017

तुम्हे लिखना है मुझे


कुछ पन्ने जिन्दगी के, आज पलटने हैं मुझे
बीते तन्हा कल में भी , तुम्हे, लिखना है मुझे

रुकूंगी उन मोडों पर, जहाँ दर्द से तडपे थे
हर जख्म का मरहम, तुम्हे, लिखना है मुझे
कुछ पन्ने जिन्दगी के, आज पलटने हैं मुझे

जवां पलों को सैर, बचपन की मै कराऊंगी
साथी अल्हडपन का, तुम्हे, लिखना है मुझे
कुछ पन्ने जिन्दगी के, आज पलटने हैं मुझे

गुजरी गलियों को, सितारों से सजाऊंगी
ख्वाबों का शंहशाह, तुम्हे, लिखना है मुझे
कुछ पन्ने जिन्दगी के, आज पलटने हैं मुझे

चलोगे तुम मेरे साथ, मेरे बीते लम्हों में
हर आस हर सांस में, तुम्हे, लिखना है मुझे
कुछ पन्ने जिन्दगी के, आज पलटने हैं मुझे



कुछ पन्ने जिन्दगी के, आज पलटने हैं मुझे
बीते तन्हा कल में भीतुम्हे, लिखना है मुझे

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

जिन्दगी, तब जिन्दगी बनती है


जिन्दगी,
जिन्दगी तब नही बनती
जब आई आई टी या आई आई एम में
सेलक्सन हो जाता है

जिन्दगी
जिन्दगी तब भी नही बनती
जब कोई
आई ई एस अफसर बन जाता है

जिन्दगी
जिन्दगी तो तब भी नही बनती
जब कोई
देश विदेश घूम आता है

जिन्दगी
फिर भी जिन्दगी नही बनती
जब कोई
बेसुमार धन दौलत पाता है

जिन्दगी
जिन्दगी कहाँ बन पाती है
जब कोई
अधिकारी या राजा बन जाता है 

सारी जिन्दगी 
हम कवायत करते हैं
जिन्दगी को जिन्दगी बनाने की
मगर जिन्दगी नही बनती 

फिर भी
सब कहते हैं
ये कर लो
तो जिन्दगी बन जायेगी
वो कर लो 
तो जिन्दगी बन जायगी
फिर भी 
जिन्दगी, जिन्दगी नही बनती

दरअसल
जिन्दगी,
जिन्दगी तब बनती है
जब जिन्दगी का कोई एक पल
किसी की जिन्दगी बन जाता है,
जब जिन्दगी के किसी पल में
पराई पीर पर दिल भर आता है,
जब आपकी कोशिश से
रोता चेहरा खिलखिला जाता है,
जब एक अजनबी आपको
खुदा मान सर झुका जाता है,
जिस पल दूसरों की जिन्दगी के लिये
कोई जिन्दगी की बाजी लगा देता है।
जिन्दगी
जिन्दगी तब बनती है
जब 
जिन्दगी का कोई एक ऐसा पल
जब मिलता है जिन्दगी से
जिन्दगी 
तब जिन्दगी बनती है
हमेशा के लिये
अमर होकर जीती है
मृत्यु पर विजयी बन कर

वरना तो
हर कोई यहाँ
सिर्फ एक उम्र जीता है
जिन्दगी बनने की प्रतीक्षा लिये

सोमवार, 13 नवंबर 2017

प्रथम प्रश्न


सबसे पहला सवाल
जो पूछ बैठते हैं
कई बार घर के सदस्य
या कोई रिश्तेदार
अबोध बच्चे से
कौन है तुम्हे प्यारा 
सबसे ज्यादा 
तुम मम्मी को करते हो
ज्यादा प्यार 
या पापा है तुमको 
सबसे प्यारे
कितना सरल लगता है
ये प्रश्न कहने सुनने में
मगर उत्तर की जटिलता का
आंकलन करना भी दुष्कर है
आखिर क्या हो आधार
ऐसे प्रश्नों के उत्तर का
भौतिक सांसारिक सुविधायें
या ममता का अगाध सागर
पिता का शाम को चाकलेट लाना
या माँ की हल्की फुल्की डांट
पिता का झूठमूठ का गुस्सा
या माँ का मैगी बना देना
बच्चा नही जानता
कि दोनो ही पहिये
मिलकर दे रहे है गति
उसके जीवन को
दोनो मिल कर ही
दे रहे हैं आकार
उसके भविष्य को
वो तो सिर्फ करने लगता है तुलना
पिछले एक दो दिन की घटनाओं का
और जाँचता है अपने स्तर पर 
किसने पूरी की कितनी फर्माइशे 
किसने कितनी बार उसे रोका
एक समीकरण सा बनाता है
जिसमें कभी कुछ जोडता है
कभी कुछ घटा देता है
नही जोड पाता वो
माँ का रातों में जागना
नही समझ पाता बाल मन
पिता का अपनी जरूरतें काटना
फिर भी, हर गणित के बाद
समीकण के दोनो तरफ
उसे बराबर ही नजर आता है
मगर प्रश्न का उत्तर तो
देना है उसे कोई एक
अपने मस्तिष्क पर
डालता है कुछ और जोर
फिर याद आती है अनायास
उसे एक ऐसी घटना
जो किसी एक पलडे को
कर देती है अचानक भारी
और बच्चा देता है उत्तर
कभी इस उत्तर में होती है माँ
कभी जवाब में होता है पिता 
यह उत्तर परिवर्तनशील है
क्योंकि बाल मन नही कर सकता
गुणा भाग
मगर डर जाते है माँ बाप
अन्दर ही अन्दर
आखिर क्यों नही दोनो
उसके लिये बराबर
अक्सर लोग करते है मनोरंजन
ऐसे अवैज्ञानिक प्रश्नों से
मगर बाल मन में जन्मती है
एक तुलना की ग्रन्थि 
जो समय के साथ 
कभी घटती नही, 
सिर्फ बढती ही है
धीरे धीरे कोई एक
हो जाता है कुछ करीब
और अपनेआप हो जाती है
दूसरे से कुछ दूरी सी
और परिणाम में 
कई बार बनती है माँ
पुल पिता पुत्र के संवाद का
सब कुछ करके भी हो जाता है
पिता कुछ पराया पराया सा

शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

तुम्हारा एक शब्द............


तुम्हारा एक शब्द
पर्याप्त है जगाने को
खोया आत्मविश्वास
तुम्हारा एक शब्द
काफी है खो देने को
सारा विश्वास

तुम्हारा एक शब्द
खुशियों का
अन्नत भंडार 
तुम्हारा एक शब्द
कष्ट का
अन्तहीन संसार 

तुम्हारा एक शब्द
सुरीली सरगम का
सुमधुर राग
तुम्हारा एक शब्द
पांव में चुभी
नुकीली फांस

तुम्हारा एक शब्द
ले जाता कभी
विस्तॄत आकाश में
तुम्हारा एक शब्द
गिरा देता कभी
पथरीली राह में

तुम्हारा एक शब्द
प्राणों में
श्वास का संचार
तुम्हारा एक शब्द
मॄत्यु से
अंत का विचार

न सुलझ सकी
मुझसे ये पहेली
ये शक्ति है तुम्हारी
या सामर्थ्य शब्द की 

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

जीतने के लिये हारना जरूरी है


जीतने के लिये
हारना जरूरी है

जरूरी है अभिमान हारना
राज्य दिलों पर करने को
जरूरी है विषपान करना
मानव से शिव होने को
राम सा हो पाने को
त्याग भावना जरूरी है
जीतने के लिये
हारना जरूरी है
चंचल मन भटकाने को
कदम कदम पर साधन हैं
लक्ष्य से विमुख करने को
हर मोड पर कई बाधक हैं
अटल नखत बनने को
भीष्म साधना जरूरी है
जीतने के लिये
हारना जरूरी है
सम्पदा अकूत किन्तु
दुख कष्ट भी अनन्त है
राग द्वेष में संलिप्त
नही वासना का अन्त है
सुखद शान्ति पाने को
शुद्ध कामना जरूरी है
जीतने के लिये
हारना जरूरी है 

सोमवार, 6 नवंबर 2017

किताबें


किताबें
कहने को 
कुछ नही कहती
मगर सिखा जाती है 
जिन्दगी
किताबें
जो जाती थी
कभी बस्ते में
मेरे साथ मेरे स्कूल
किताबें
जिन्हे सजाते थे
कभी बासी कागज से
कभी रंगीन मरकरी ब्रेड के कवर से
और कभी टाइम्स इंडिया के
ग्लेस्ड पेपर से
किताबें
जिनपर लगा कर
कोई सुन्दर सी नेमस्लिप
और फिर लिखकर अपना नाम
बना लेते थे मेरी किताब
किताबें
जिसमें रखते थे
कभी गुलाब के फूल
कभी मोरपखं
क्योकिं उससे विघा आती थी
किताबें
जो भीग जाती थी
कई बार
बारिश में मेरे साथ
किताबें
जिन पर रख कर हाथ
और कहकर विद्घा कसम
देते थे प्रमाण
सच्चे होने का
किताबें
जो मिलती थी
बडे भाई बहन से
जो बांधती थी हमे
स्नेह की डोर में
किताबें
जो अक्सर 
सोती थी
साथ साथ 
तकिये के नीचे
किताबें
मेरी सबसे अच्छी दोस्त
जिसके चोरी हो जाने पर
हर उस जैसी किताब में
देखती थी 
मेरी वाली किताब
किताबें
बहुत याद आती हैं
जो खो गयीं कही
मेरे बचपन के साथ
GreenEarth