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बुधवार, 22 नवंबर 2017

रंगे सियार


भरोसा उठने सा लगा
जमाने में लोगों से
जिससे भी दो बात की
वो बेअदब होने लगा

रख सका लिहाज
उम्र का या ओहदे का
मदद की आड में
वो बेशरम होने लगा

नकाब ओढ़ा तो बहुत
सलीकों, तहजीबों का
करगुजारियों से अपनी
बेनकाब होने लगा

बहुत संभल के पेश की
उसने शख्सियत अपनी
चंद पलों में उसका रंग
बदरंग होने लगा

न रख सका आबरू
उस इज्जत की जो हमने दी
तमीजदारों की महफिल में
बदतमीज होने लगा

जिधर भी देखा 
हर शहर जंगल सा हुआ
शेर की आड में आदमी
रंगा सियार होने लगा

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (24-11-2017) को "लगता है सरदी आ गयी" (चर्चा अंक-2797) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. महिला रचनाकारों का योगदान हिंदी ब्लॉगिंग जगत में कितना महत्वपूर्ण है ? यह आपको तय करना है ! आपके विचार इन सशक्त रचनाकारों के लिए उतना ही महत्व रखते हैं जितना देश के लिए लोकतंत्रात्मक प्रणाली। आप सब का हृदय से स्वागत है इन महिला रचनाकारों के सृजनात्मक मेले में। सोमवार २७ नवंबर २०१७ को ''पांच लिंकों का आनंद'' परिवार आपको आमंत्रित करता है। ................. http://halchalwith5links.blogspot.com आपके प्रतीक्षा में ! "एकलव्य"

    जवाब देंहटाएं

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