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मंगलवार, 26 सितंबर 2017

तने की मजबूती


बेटी हूँ मैं,

है मुझे अहसास
पिता के मान का
घर की आबरू हूँ मैं

जानती हूँ फर्क
बेटे और बेटी में
समझती हूँ चिन्ता
एक पिता की मै
और परिचित भी हूँ
समाज के चरित्र से
नही दोष नही देती
किसी को
न परिवार को न प्रथाओं को
मगर करती हूँ अब इन्कार
उन बन्धनों से
जो नही समझते
मेरी कोमल भावनायें

जो बना देते है
स्त्री को अबला का पर्याय
और कर देते है अनिवार्य
एक पुरुष का साथ
बना देते है
अबला को बेल
पुरुषरूपी तना
सगर्व लेता है भार 
बेल को पल्लवित रखने का

आजीवन वो अबला 
रहती है निर्भर
उस मजबूत तने पर
कभी करती है ब्रत, कभी पूजा
उस तने की सलामती के लिये
कि जानती है
सम्भव नही उसका जीवन
मजबूत तने के बिना
वो तो परजीवी है

कितनी आसानी से
बना दी जाती है
जीवनदायिनी ही परजीवी
तजती हूँ आज अभी से
उस मजबूत तने को
बहुत विनम्रता के साथ
कि चाहती हूँ बनाना
इक छोटी सी पहचान
समझना चाहती हूँ
निर्भरता का प्राकॄतिक सूत्र
जहाँ निर्भर हैं
वायु, जल, अग्नि
स्वतंत्र नही व्योम धरा भी
वहाँ चाहती हूँ परखना
तने की मजबूती

बुधवार, 13 सितंबर 2017

हमसाया भाग -३




हमसाया भाग १
हमसाया भाग २

गतांक से आगे
सारी रात तरह तरह के खयालों सपनों में खोते मेरी रात बीती। कब मुझे नींद आयी ये मुझे भी नही पता, मगर नींद थी इतनी गहरी कि मै ये भी भूल गया कि मै घर पर नही ट्रेन में हूँ, ट्रेन पुने स्टेशन आ चुकी थी और राधिका मुझे आवाज दे रही थी।
हडबडा कर मैं उठा और फटाफट सामान उतारने लगा तो धीरे से राधिका बोली- आप परेशान न हो, ये आखिरी स्टेशन है, नींद से अचानक से उठने के कारण शायद मै अपने सपनों से वास्तविक दुनिया में पूरी से वापस नही आ पाया था।
सामान उठाने के दौरान अहसास हुआ कि माँ बाबू जी ने कितना सारा सामान बाँध दिया था, कुली को आवाज देने ही वाला था कि विजय मामा अपने लडके यश के साथ आते दिखे।
विजय मामा हमारी छोटी चाची के सबसे छोटे भाई है। पिछले दस बारह साल से पूने आकर रहने लगे हैं, उनके तीन लडके और दो लडकियाँ है, यश उनका मंझला बेटा है । मुझसे दो चार साल की ही छोटाई या बडाई होगी। हाँ अगर माँ से पूछता तो वो तो उसका जनम साल क्या दिन तिथि तक सब बता देती। जाने कैसे माँ को सभी के जनम शादी मरण सबकी दिन तिथि याद रहती है। फला सन ७२ में चढते पूस की चतुर्दशी को हुआ था, या फला की शादी सन ७० में उतरते जेठ की एकादशी को थी। मुझे तो अपने तीनो भाइयों की बर्थ डेट  और माँ बाबू जी की शादी की सालगिरह के  अलावा आज तक कोई तारीख याद नही रह पायी । मगर हाँ अब दो और तारीखे याद रखनी होंगी- राधिका का जनमदिन और अपनी शादी की तारीख, सुना है अगर ये दोनो तारीखे अगर कोई शादीशुदा आदमी भूल जाय तो अक्सर ये लडाई झगडे का मुद्दा तक बन जाता है। सो लडाई से बेहतर है कि मै दो और तारीखे ही याद कर लूं।
अब तक मामा जी पास आ चुके थे आते ही बोले- अरे आनन्द बेटा, ज्यादा देर तो नही हुयी, दरअसल सुबह ही जीजा जी का फोन आया था कि तुम आ रहे हो, निकल तो मै तुरन्त ही पडा था मगर रास्ते में पेट्रोल भराने में जरा देर लग गयी।

मै झुक कर मामा जी के पैर छूने लगा तो उन्होने हाथ रोक लिया- बोले अरे अरे ये क्या तुम तो मेरे मान्य हो, भला मान्यों से भी कही पैर छुआये जाते हैं। इसी बीच राधिका झुक कर मामा जी के पैर छुते हुये बोली- मामा जी आशीर्वाद दीजिये कि हम लोग सुखी रहे।राधिका की बात में इतना अपनापन था कि जैसे मेरे नही वो उसके ही सगे मामा हो। शायद राधिका के इसी स्नेहभाव के कारण मामा जी उसको नही रोक सके और उसके सिर पर हाथ रखते हुये बोले- बेटा तुम दोनो खूब सुखी रहो। फिर मेरी तरफ देख कर बोले- आनन्द बहुत भाग्यवान हो जो तुम्हे ऐसी गुणवती दुल्हन मिली है, फिर यश की तरफ देखते हुये बोले-  यश बेटा भैया भाभी के पैर छुओ। उनकी इस बात ने यह तय कर दिया कि यश उमर में कुछ तो छोटा जरूर है । खैर इस सदाचार के बीच ही यश ने हमे याद दिलाया कि हम लोग प्लेटफार्म पर है और हमे घर भी चलना चाहिये। यश की इस बात पर मामा जी खूब जोर से हंस पडे और बोले हाँ हाँ चलो सामान उठाओ, आओ बहू चलो घर चले, फिर यश के साथ गाडी में सामान रखवा हम चारो मामा जी के साथ घर की तरफ चल दिये। 
क्रमशः

सोमवार, 11 सितंबर 2017

स्पर्श और स्त्री



स्पर्श
जिसमें निहित है  
निर्मांण की कल्पना
या विनाश का षणयंत्र
बराबर मात्रा में
स्पर्श
एक ऐसा इन्टरफेस
जिसमें इनपुट तो एक ही होता है
मगर बदलते रहते हैं आउट्पुट
कभी बन जाता है भक्ति
तो कभी द्या 
कभी भर जाता है मन
स्नेह के भाव से
कभी जग जाती है 
सुषुप्त प्रेम की तॄष्णा
और कभी
छटपटा जाता है मन
जल विहीन मीन सा
स्पर्श
एक ऐसी शक्ति
जिसमें जीवन भी है
और मॄत्यु जितना भय भी
जो रच सकता है प्रेम का महाकाव्य
या बन सकता है विषैला सर्प
स्पर्श
जो कभी तैरा जाता हैं
अनगिनत सपने
कभी कर देता है
 हौसलों का संचार
थके मन में
कभी बन जाता है
आशीष
और कभी देता है आहट 
किसी अवांछनीय विनाश की
स्पर्श
कभी बन जाता है
विश्वास 
जीवन पर्यन्त साथ निभाने का
कभी दे जाता है 
अहसास
जो कहता है "मै हूँ ना"
तुम बस आगे बढो
स्पर्श
एक ऐसा अक्षररहित शब्द
जो कह देता है
हर वो बात जिसे
कोटि शब्द समूहों के युग्म भी नही कह पाते
स्पर्श 
एक ऐसी पहेली
जिसे सुलझा लेती है
स्त्री
क्षण के न्यूनतम भाग जितने समय में
जान लेती है
स्पर्श करने वाले का
इतिहास
और तय कर देती है
उसका चैरित्रिक भूगोल
निश्चित कर लेती है
दूरी या निकटता
और रच देती है अध्याय
सम्बन्धों की सम्भावना या असम्भावना का

शनिवार, 9 सितंबर 2017

चंद अशरार जिन्दगी के नाम


मोहताज नही, हम किसी की पसंदगी के

जीने के लिये खुद का मुरीद होना चाहिये

संवरना निखरना क्यूं भला किसी के लिये
आइने में सूरत-ओ-निगाह बोलनी चाहिये

जीना औरो के दम, भला ये कैसी जिन्दगी
हौसला गिरके उठने का, खुद में होना चाहिये

खुशियों के किले क्या बनाना, किसी कांधे पे
मुस्कुराने को , बस बेफिर्की दिल की चाहिये

नही बढाना मुझे कद अपना, चंद ओहदों से
नजरों में मुझे सिर्फ, अहमियत मेरी चाहिये

बयां हो न सकेगा हाल दिल का, लफ्जों से
इश्क-ए- दरिया को सिर्फ शोख लहर चाहिये

न कर सकेंगें जुगनू, एहतराम मोहब्बत का,
ये वो शय है, जिसे पतंगे सा जिगर चाहिये

लोग आते है जाते है ये दस्तूर दुनिया का
शौक सफर का रखते हैं मकां नही चाहिये

खुशबू गुलाब की रूह तक भी बस सकती है 
सलीका कांटों को सहेजने का सिर्फ चाहिये

शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

हमसाया भाग -२


गतांक १ से आगे..........

सच कहूं तो अभी तक ठीक से राधिका को देखा भी नही था, इस बात का पता तब चला जब ट्रेन गाँव से बीस तीस किलोमीटर दूर निकल आने पर मैने कहा- चाहो तो ये घूंघट कम या हटा सकती हो, गाँव से हम लोग बहुत दूर निकल आये हैं, दरअसल मुझे राधिका का ख्याल आने लगा हो ऐसा नही था, बल्कि मुझे इस बात पर शर्म सी आ रही थी कि पूरे डिब्बे में केवल राधिका ही थी जो लम्बे से घूंघट में थी, बाकी औरते सामान्य रूप से या तो सिर पर थोडा पल्लू रखे थी य वो भी नही के बराबर था। मगर हाँ जब राधिका का चेहरा दिखा तो मै उसके चहरे से अपनी नजर फेरना भूल सा गया, वो तो चाय वाले की आवाज पर बगल में बैठे अंकल टाइप व्वक्ति नें कहा- बेटा जरा चाय तो पकडा दो, ऐसा लगा जैसे मै किसी दूसरी ही दुनिया में चला गया था, मगर राधिका इस पूरे प्रकरण से बेखबर अपनी चूडियों में उलझी हुयी थी।
राधिका सच में रूप में हजारो नही लाखों में एक थी, ये मेरा ही मानना नही था, डिब्बे में बैठे लोगो की निगाहें कह रही थीं। सहसा मुझे लगा जैसे उसने घूंघट हटा कर ठीक नही किया। भली भाँति जानता था कि मैने ही उसे ऐसा करने को कहा था फिर भी अनावश्यक रूप से मुझे राधिका पर गुस्सा आने लगा। मै सोचने लगा कि मैने घूंघट उससे घूंघट कम करने या हटाने को कहा था, वो कम भी तो कर सकती थी, मगर उसने तो पूरी तरह से हटा ही दिया। क्या उसको समझ नही आ रहा कि गिद्ध जैसी नजरें उसे देख रहीं हैं। क्या इतनी नासमझ है, पिता जी ने बहुत तारीफ की थी इसकी समझदारी की।
मुझे खुद समझ नही आ रहा था कि मेरे मन में ये क्रोध क्यो आ रहा था, जिस लडकी से मेरा विवाह मेरी मर्जी के खिलाफ हुआ क्यो मुझे उससे ये अपेक्षा हो रही है वो मेरी भावनाओं का ख्याल रखे।
तभी जाने क्या हुआ- राधिका नें फिर से घूंघट कर लिया, हाँ पहले की अपेक्षा चेहरा पूरा ढका नही था, अब तक कई लोकल स्टेशन गुजर चुके थे, सो लोकल भीड का चढना उतरना भी कम हो गया था।
मेरे मन नें फिर से नयी करवट लेना शुरु किया- राधिका को देखने को मन व्याकुल होने लगा। और एक बार फिर उस पर गुस्सा आने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे वो मुझसे बदला ले रही हो, कि इतने दिन घर पर रह कर जिससे बात करना तो दूर एक नजर उठा कर देखा भी नही, तो अब उसे मै भी देखने का कोई अधिकार नही दूंगी। बडा अजीब सा सफर था, हमसफर थे, मगर अनजाने से सहयात्री से भी ज्यादा।
उसी घूंघट की ओट में रहते हुये राधिका नें रात का खाना खाया, और सो गयी और तरह तरह के ख्यालों और सपनों में गोते खाते मेरी रात बीती। 

क्रमशः .............

बुधवार, 6 सितंबर 2017

हमसाया


अम्मा, बाबू जी से कह दो न, मै शादी नही करना चाहता, मुझे अभी बहुत कुछ करना है, आपके लिये बहू लाने को दीपक और अनुराग हैं न, एक मेरे शादी न करने से क्या फरक पड जायेगा।
मुझे नही पता था कि कब बाबू जी दफ्तर से लौट कर आ गये थे और मेरी बात सुन रहे थे, ऐनक उतार कर बोले- देखो बरखुरदार, ये शादी ना करने का भूत मुझे भी बहुत चढा था, पर जब तुम्हारी अम्मा आयी तब समझ आया कि क्या गलती करने वाले थे। और जो करना वरना है उसके लिये हम कहाँ रोकते हैं, करते रहना जो करना है, अभी हम हैं किसी बात की फिरक ना करो। बेटा, राधिका बहुत अच्छी लडकी है, धन्य हो जायगा तू, अरे ऐसी लडकियां तो नसीब से मिलती हैं। राधिका, बाबू जी के दफ्तर में काम करने वाले शुक्ला चाचा की बेटी थी, जाने क्या जादू कर दिया था शुक्ला चाचा ने कि बस बाबू जी ने धुन रट रखी थी कि राधिका उनकी ही बहू और मेरी ही पत्नी बनेगी।
मरता क्या न करता, अम्मा बाबू जी की जिद के आगे मेरी एक न चली और महाशिवरात्रि के दिन मेरे विवाह का शुभमहूर्त निकाल दिया गया।
शादी के आठ दस रोज बाद ही मैने पूने जाने का निर्णय किया, वैसे पूने जाने का कोई विशेष कारण नही था, किन्तु मै बस घर से दूर एकान्त में जाना चाहता था, जहाँ मैं संगीत को अपना पूरा ध्यान और समय दे सकूं। अम्मा जानती थी कि मुझे संगीत से बेहद लगाव है किन्तु बाबू जी वो तो इसको बिल्कुल बेकार की चीज समझते थे, और खास कर लडको के लिये। उनका मानना था कि गाना बजाना केवल लडकियों औरतों को शोभा देता है। आदमियों को तो कोई मेहनत मसक्कत या दिमाग वाले काम करने चाहिये।
पूने जाकर खाने भर का तो मै दो चार ट्यूशन करके ही कमा लूंगा, और घर से दूर रहूंगा तो रोज रोज कोई घर से आकर मेरे संगीत में बाधा नही दे सकेगा, ऐसा मेरा विचार था।
अम्मा से झूठ बोल दिया था कि पूने से नौकरी का बुलावा आया है। इतनी दूर भेजने को बाबू जी बिल्कुल राजी नही थे, मगर इस बार मैने जिद करने की ठान ली थी और फिर विवाह करके उनकी बहुप्रतीक्षित इच्छा मै पूर्ण कर ही चुका था, सो भारी मन के साथ उन्होने अनुमति दी मगर साथ में कह दिया कि बहू तुम्हारे साथ ही जायेगी। परदेश में जाने खाने पीने का कैसा इन्तजाम हो, खर्चे की तुम चिन्ता ना करो, अभी हम हैं।
मेरा हाल वैसा ही था कि आसमान से गिरे खजूर में अटके। एक बार फिर मेरे पास उनकी बात को न मानने के सिवा कोई रास्ता नही था सो राधिका के साथ पूने चल दिया।

क्रमशः 

शनिवार, 2 सितंबर 2017

तराना इश्क का............................



ऐ मोहब्बत किन लफ्जों में, मै करू तुझको बयां
दिल लगाके देखले खुद, हाल हो जाता है क्या

दिन के जैसे जागता हूँ, अब तो मै रातभर
खूबसूरत हो गया हैं जिन्दगी का ये सफर
सोचकर ही दिल में छा जाता खुशियों का समां
दिल लगाके देखले खुद, हाल हो जाता है क्या

हुस्न की मूरत नही पर सारी दुनिया से जुदा
देखते ही दिल दीवाना हो गया उस पर फिदा
कलियों सी मासूम हमदम बस लुटाती है वफा
दिल लगाके देखले खुद, हाल हो जाता है क्या

जिक्र उसका हर घडी हर बात में मैं करता हूँ
जाने उसकी धडकनों में किस तरह मैं रहता हूँ
प्यार की खुशबू से महकी मेरी शामें मेरी सबा
दिल लगाके देखले खुद, हाल हो जाता है क्या

ऐ मोहब्बत किन लफ्जों में, मै करू तुझको बयां
दिल लगाके देखले खुद, हाल हो जाता है क्या 


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