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मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

आओ कुछ लिखे- अपनों को


अगर आप करीब चालीस के/ की हैं तो आपने जरूर ही किसी ना किसी को पत्र जरूर ही लिखे होंगें। आज भी कभी जब आपके हाथ कभी पुरानी डायरियां उलटते पलटते या पुराने जरूरी कागजों या फाइलों के बीच जब कोई पत्र निकल आता होगा तब आप उस फाइल को एक तरफ कर उसको दुबारा पढने का लोभ छोड ही नही पाते होंगें। और फिर मन में ना जाने कितनी कहानियां चलचित्र की तरह चल जाती होंगी। आप भूल जाते होंगें कि आप कुछ देर पहले किसी जरूरी कागज को ढूंढ रहे थे।
सच वो एक सुनहरा दौर था, जब अपनी भावनाएं प्रेषित करने के लिये हम पोस्टकार्ड, अन्तर्देशीय या कागजों का सहारा लेते थे। आज के दौर में जब हर कोई जल्दी में हैं, हर किसी को सब कुछ एक मिनट में चाहिये, तब क्या इन पत्रों की प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है या आज भी हम उनकी उपयोगिकता को समझ सकते हैं।
आज के युवा के पास अपने तर्क हो सकते हैं कि मोबाइल फेसबुक ट्वीटर और ई-मेल के दौर में भला पत्रों का क्या काम। किसके पास इतना समय है कि बैठकर पहले तो लिखे फिर उसको पोस्ट किया जाय। और फिर इन्तजार किया जाय कि कब उसको मिलेगा, कब वो उसका उत्तर लिखेगा, और फिर कब हमको मिलेगा। अरे जो कहना है तुरन्त मोबाइल उठाओ और कह दो। दो हफ्तों की दूरी दो दो सेकेंड में दूर कर लो।
बात काफी हद तक सही भी है, मगर एक दूसरा पहलू भी है जिसकी हम अनदेखी कर रहे हैं। जिस तरह से लेखन की विभिन्न विधायें होती है। एक ही स्थिति पर कहानी लिखी जा सकती है तो कोई कविता भी लिख सकता है, कोई लेख लिख सकता है तो कोई व्यंग। ठीक उसी तरह बात को कहने के कई माध्यम हो सकते हैं। मुख्यतः बात कहने के तरीकों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैः
·         कथनीय
·         सांकेतिक
·         लिखित
कथनीय और सांकेतिक भाषा का प्रयोग हम तब करते हैं जब हम व्यक्तिगत रूप से उस व्यक्ति के साथ होते हैं जिससे हम बात करना चाहते हैं। जबकि लिखित भाषा का प्रयोग दूरी पर स्थिति व्यक्ति से सम्पर्क करने या अपनी बात को संप्रषित करने के लिये करते हैं।
आज के तकनीकी युग में हम जब अपनी व्यक्तिगत बात को कहने के लिये सोशल मीडिया का चुनाव करते हैं तब हम यह भूल जाते हैं कि हम स्वयं ही अपनी बात के व्यक्तिगत स्वभाव को समाप्त कर देते हैं।
सोशल मीडिया पर लिखने के अपने लाभ हो सकते हैं, या वो लाभ आकर्षित करते हुये दिखते हैं, जैसे पत्र में अपना फोटों भेजना, अपना वीडियों भेजना जैसी सुविधायें सम्भव नही। किन्तु पत्र लेखन के अपने अलग ही फायदे हैं जिनका हमारी जीवन शैली पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पडता हैं। पत्र लेखन से व्यक्ति के स्वभाव में आने वाले कुछ सकारात्मक लक्षणों को निम्नलिखित रूप से सूचीबद्ध किया जा सकता हैः
·         विचारशीलता बढना
·         धैर्यशील होना
·         भाषा का ज्ञान बढना
·         सकारात्मकता
·         चिन्तनशील
·         रचनात्मकता
·         याददाश्त बढना
·         अधिक संवेदनशील होना
उपरोक्त हर लक्षण के विस्तार में जा कर उसे और निकटता से समझा जा सकता है।

·         विचारशीलता बढनाः जब हम किसी को व्यक्तिगत रूप से पत्र लिखते है, तब बात लिखने से पहले विचार करते हैं कि हमें क्या लिखना है, लेखन की रूपरेखा पर विचार करते हैं। जैसे यदि मुझे अपने भाई को पत्र लिखना है, तो लिखने से पहले हम अपने और भाई के सम्बन्धों पर स्वाभाविक रूप से कुछ देर विचार करते हैं, पत्र राखी के साथ लिखना है, या कोई बधाई पत्र है या कुशलक्षेम हेतु। प्रयोजन जैसा हो हमारे मन में विचार भी उसी के अनुसार बदल जाते हैं। हम ऐसे शब्दों का, ऐसी भाषा का चुनाव करना चाहते है, जो शब्दों के माध्यम से सीधे हदय में प्रवेश करें। यहाँ हमे किसी लाइक या कमेंट का प्रलोभन नही होता।

·         धैर्यशील होनाः कुछ बातों को लिखने से पहले बहुत सारे विचारों से होकर गुजरना होता है, यह कार्य न तो जल्दबाजी में किया जा सकता है न ही भीडभरे माहौल में। यह किसी को मैसेज फारवर्ड करने से बिल्कुल अलग है, जिसे लोग खाना खाते खाते भी कर लेते हैं, किसी से बात करते करते भी कर लेते हैं। यदि पत्र लिखना है, तो आप को कुछ समय के लिये एकान्त नितान्त आवश्यक है। कुछ समय पत्र लेखन की दूसरी बडी आवश्यकता है। मन को उस विषय में लगाना, तीसरी मुख्य जरूरत है। निश्चित रूप से आज की भागमभाग वाली जिन्दगी में यह तीनों सामान जुटाना, एक धैर्यपूर्ण कार्य ही है।

·         भाषा का ज्ञान बढनाः हम व्हाट्स एप मैसेज करें या किसी को किसी भी तकनीकी मध्यम से मैसेज भेजे, भाषा का विचार हम न के बराबर ही करते है। आज की पीढी का भाषा पर पकड कम होने का यह भी एक मुख्य कारण है| तकनीकी माध्यम प्रयोग करते समय या तो हम मिश्रित भाषा का प्रयोग करते हैं या फिर किसी व्याकरण सही करने वाले साफ्टवेयर का प्रयोग कर लेते हैं। पहली स्थिति में हम भाषा की शुद्धता पर ध्यान ही नही देते और दूसरी स्थिति में बिना ज्ञान के ही भाषा का शुद्धिकरण हमे मिल जाता है, किन्तु स्वयं लेखन में हमे भाषा ज्ञान की आवश्यकता होती है, अपितु हम लिखते समय भले ही एक से ज्यादा भाषाओं के शब्दों का प्रयोग कर लें फिर भी अधिकाशतः हमे किसी एक भाषा के व्याकरण के ज्ञान की जरूरत होती ही है।

·         सकारात्मताः किसी को मोबाइल से मैसेज भेजते समय हो या फेसबुक बाल पर किसी पोस्ट या कमेंट को लिखना, लिखने वालों के मन मे जन्मी नफरत को बडी आसानी से देखा और समझा जा सकता है। अब आप एक स्थिति का अनुमान लगाइये, जब आप कागज और पेन लेकर किसी को कुछ लिखना चाहते है, या कोई बात कहना चाहते हैं। हम कभी भी पत्र लिखने का विचार किसी को अपशब्द कहने या किसे नकारात्मक भाव को संप्रेषित करने के लिये नही करते। और अगर एक दो लाइन में कुछ ऐसा लिख भी दिया गया हो तो पूरे पत्र के नकारात्मक होने की सम्भावना न के बराबर ही है। पत्र के माध्यम से अधिकाशतः हम अपने सकारात्मक विचार ही दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाते हैं।

·         चिन्तनशीलः पत्र हमारे विचारों, हमारी भावनाओं का लिखित दस्तावेज होता है, इसलिये हम पत्र लिखते समय निरन्तर हमारे विचार बनते बिगडते जाते हैं, हम उन शब्दों का चयन करते है जो हमारी भावनाओं को संरक्षित रख सकें। यह चिन्तन तब और बढ जाता है जब हम पत्रोत्तर लिखते हैं।

·         रचनात्मकताः जब हम किसी को पत्र लिखते हैं, तो यूं ही जो कुछ मन में आये वह नही लिखा जाता, जैसा कि अक्सर हम सोशल मीडिया या व्हाट्स अप मैसेज लिखते समय करते हैं। अगर हम किसी पुराने पत्र को उठा क्र देखें या किसी महान व्यक्ति के पत्रों को पढे तो हम देख सकते हैं, कि लेखन में रचनात्मकता का पुट होता था। सीमित स्थान में असीमित बातों को लिखना, बात को उस तरह लिखना जिससें भावनाओं का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके।यह सब कुशल लेखन की कला के अभाव में संभव नही हो सकता।

·         याददाश्त बढनाः जब हम किसी पत्र को लिखने का विचार करते हैं, तब बहुत से विचारों का, बहुत सी बातों का मन के किसी कोने में संकलन प्रारम्भ हो जाता हैं। जाने कितनी पुरानी कही या लिखी बातें याद आने लगती हैं। कई बर ऐसा भी होता है कि हम पत्र लिखने बैठते तो हैं किन्तु पुराने किस्से याद आने लगते हैं, और हम पत्र लिखना छोड, उन बातों में ही खो जाते हैं।

·         अधिक संवेदनशील होनाः किसी अपने को पत्र लिखने से हमारी संदेवनशीलता पर भी पडता है। लिखते समय हम उन बातों को चयनित करते है जो सीधा पढने वाले के दिल पर दस्तक दे। अक्सर ऐसा देखा गया है कि किसी अपने के पत्र को पढते पढते हमारी आंखें नम हो जाया करती हैं। पत्र मात्र कुछ बातों को हम तक नही पहुँचाता वरन भावनाओं को भी प्रेषित करता है।

बहुत मुंमकिन है कि आप मेरी सारी या कुछ बातों से सहमत न हो, किन्तु पूर्णतया लिखी हर बात को एक सिरे से नकार सके, ऐसा भी नही।
उपरोक्त लेख यदि आपके दिल तक दस्तक दे रहा हो तो आप भी उठाइये कागज और पेन, और लिख डालिये किसी अपने को पत्र जो उसके दिल में आपकी दस्तक दे सके।

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

परायी सन्तान


शाम को मैं लगभग रोज ही घर के पास की ही एक पार्क में घूमने जाती हूँ, वहाँ पर शाम को कई बुजुर्ग भी आते हैं। कल शाम को यूँ ही टहलने के बाद मै एक बेंच पर बैठ गयी। बगल की बेंच में एक बुजुर्ग दम्पति बैठा हुआ था। उन्हे मै करीब एक हफ्ते से यहाँ देख रही थी। देखने से लगता था कि कही बाहर के रहने वाले है, यहाँ वो शायद अपने किसी रिश्तेदार या बेटा/ बेटी से मिलने या साथ रहने आये थे। उनकी जो बातें मेरे कानों से टकराई, उसने मुझे ये सोचने के लिये विवश कर दिया कि क्या आज का युवा दिशा भ्रमित, पथ भ्रष्ट हो चुका है? मेरी बगल की बेंच पर बैठी बुजुर्ग महिला अपने पति से कह रही थी- आप बस अब मुझे यहाँ से ले चलिये, अब मुझे ना बेटा चाहिये, ना बहू , ना पोता। मुझे नही कराना अपनी बीमारी का इलाज, यहाँ तो दिन रात मैं और बीमार होती जा रही हूँ, ऐसा लगता है कि किसी अजनबी के पास आ गयी हूँ। अरु अब अरु नही, अनिरुद्ध बन गया है। आज उसे माँ के इलाज पर पैसे खर्च करना एक बोझ लग रहा है, आप जानते है कल जब मै डाक्टर के पास अरू के साथ गयी थी, तब डाक्टर ने जब दवाइयां लिखी तो अरू पहले मेडिकल स्टोर गया फिर बिना दवा लिये फिर से डाक्टर के पास गया, और मुझसे बोला- माँ डाक्टर से जरा दवाये समझ कर आता हूँ मगर अरू डाक्टर के पास दवाइयां समझने नही, महंगी दवाइयों के बदले सस्ती दवाइयां लिखवाने गया था। वो शायद ये नही जान पाया कि जिस माँ ने उसे बोलना सिखाया है, वो उसके सच झूठ को भी परख सकती है। मैने जिस अरू को पाला पोसा वो यह नही है। इस दुनिया में जब पराए अपने बन सकते हैं तो अपने पराये क्यों नही बन सकते? आप आज ही मुझे यहाँ से ले चलिये, जीवन के जितने भी दिन बचे है उन्हे मै सुकून से जीना चाहती हूँ।
मुझे समझ नही आ रहा था कि अनिरुद्ध मल्होत्रा, जिन्हे सोसाइटी मे हम सभी बहुत सम्मान देते है, जिनके पास आज दो - दो फ्लैट्स है, जो शहर के नामी वकीलों में गिने जाते है, उनका एक ये भी रूप है।
काश वो और समाज के सारे ऐसी सोच वाले लोग ये समझ पाते कि माता-पिता , हमारे बुजुर्ग हमसे बस थोडे से प्यार, सम्मान और देखभाल की उम्मीद करते हैं, और ये हमारा सौभाग्य ही है कि हमे उनकी थोडी सी भी सेवा का, या साथ रहने का मौका मिले।
हम बडे होने पर क्यो ये सोचते है कि बडे हमारे साथ रहते है, बडे कभी हमारे साथ नही रहते, हमेशा हम छोटों को उनके साथ की जरूरत होती है, हम उनके साथ रहते हैं।

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