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शनिवार, 20 सितंबर 2014

हमारे बुजुर्ग


फर्क तो है बस जरा सा, मगर बडी बात है
बडे हमारे साथ होते या हम बडों के साथ है
छोटे हैं प्यार के लिये, वही शोभता है उन्हे
मकां वही घर बना, जहाँ बडों का हाथ है

नर्क और स्वर्ग का फर्क बस इनसे ही है
बडों की छावं के बिना अधूरी हर बात है
बरगद है ये बुजुर्ग और बेल है हम युवा
साथ मे इनके ही तो जिन्दगी का राग है

क्या भला दे पायेगें, जीवन के दाता है ये
हर सांस पर हमारी, इनका भी अधिकार है
भाग्य से ही मिलती, ओट छोटो को बडो की
हीरे मोती सब ही झूठे, अनूठी ये सौगात है

सोमवार, 15 सितंबर 2014

कानपुर के साहित्य में फक्कड़पन

कानपुर का कनपुरिया, जिसकी पहचान है उसकी बोली, उसका बात करने का अंदाज, उसका एक दूसरे के प्रति अपनापन। उसकी इसी खासियत ने उसको विश्व पटल पर पहुँचाया है। वो फर्राटेदार अंगरेजी भी बोल सकता है, तो अपनी भाषा को हमेशा अपने दिल में रखता है।
और यही कनपुरिया दिल दिखता है कानपुर के साहित्यकारों में । साहित्य समाज का दर्पण होता है, ये यूँ ही नही कहा गया। हम किसी भी स्तरीय साहित्य को अगर पढ कर देखे तो हम पायेगें कि उसमें देशकाल, समाज का जिक्र अवश्य ही होगा। लेखक की लेखनी भावनाओं से परे हो कर चल ही नही सकती, उसमें उसके यथार्थ का पुट आ जाना स्वाभाविक ही है।
कानपुर के साहित्य के दर्पण में कनपुरियों के स्वभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हिन्दी साहित्य के शिरोमणि भूषण निर्भीकता से औरंगजेब के क्रूरतापूर्ण व्यवहार का उल्लेख करते हुए अपनी रचना में लिखते हैं - 
”देवल गिरावते फिरावते निसान अली, ऐसे समै राव-रानै सबै गए लबकी

गौरा गनपति आय, औरंग को देखि ताप, अपने मुकाम सब मारि गए दबकी”
वहीं कानपुर की धरा पर जन्मे प्रताप नारायण मिश्र जिन्होने अपने ब्राह्मण अखबार को बन्द करना तो स्वीकार किया किन्तु पत्रकारिता के आदर्श को दांवपर लगाकर किसी से कोई समझौता नहीं किया। बेबाक लेखनी से अपनी बात को फक्कड मगर ना चुभने वाले तरीके से कहने का अंदाज उनकी किसी भी रचना में स्पष्ट रूप से दिखता है। अपनी रचना ' पेट' में वे कहते है -
" यदि दैव ने हमे कुछ सामर्थ्य दी है तो चाहिये कि उसे अपने ही पट में न पचा डालैं, कौरा किनका दूसरों की आत्मा में भी डालें। और जो यह बात अपनी पहुंच से दूर हो तो भी केवल मुँह से नही बरंच पेट से यह ग्रहण कर लेना योग्य है कि पेट से पर्थर बाँध के परिश्रम केरेंगें, दुनिया भर के पांव फैलावेंगें, सबके आगे न पेट दिखाते लजाएँगें, न पेट चिरवा के भुस भराने में भर खाएँगे"

तो वही भगवती चरण वर्मा जी अपनी रचना "मातॄभूमि " में गाँव का वर्णन मिला अलंकारों के लाग लपेट के ढेठ कनपुरिया भाषा में करते हुये लिखते हैं-
उस ओर क्षितिज के कुछ आगे, कुल पाँच कोस की दूरी पर,
भू की छाती पर फोड़ों-से हैं, उठे हुए कुछ कच्चे घर !
मैं कहता हूँ खंडहर उसको, पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,

ऐसा नही कि कानपुर के साहित्यकारों का कवियों की भाषा के अलंकारों या रस पर पकड ढीली थी, जगन्नाथ त्रिपाठी जी अनुप्रास अंलकार से सजी रचना लिखते हुये अपने कवि बनने की कहानी कुछ इस तरह कहते है-
परम पुनीत प्राच्य पथ-परिपंथियों के, परिमर्दनार्थ कभी पवि बनना पड़ा
राम की रुचिर रूप रेखा-रश्मि राशि द्वारा, रोते राहियों के लिए रवि बनना पड़ा।
छाई छिति छोर-छोर छल-छद्म-क्षपा छाँटने,  को क्षपाकर की कभी छवि बनना पड़ा
कुटिल कुचालियो की कूट-नीति काटने को,   काव्य की कृपाण ले के कवि बनना पड़ा।।


कानपुर के साहित्य में देश प्रेम की कई कालजई रचनाओं से भरा हुआ है, चाहे हमारे सोहन लाल दिवेदी का अपने राष्ट्रीय ध्वज के प्रति आस्था दिखाती हुयी ये रचना हो -
जय राष्ट्रीय निशान! 
जय राष्ट्रीय निशान!!! 
लहर लहर तू मलय पवन में, 
फहर फहर तू नील गगन में, 
छहर छहर जग के आंगन में, 
सबसे उच्च महान! 

या फिर जगदम्बा प्रसाद 'हितैषी' जी की किसी की जुबां से सुनी जा सकने वाली ये कविता हो-

शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा


समय काल कोई भी रहा हो, कानपुर की धरती पर हमेशा ही ऐसे लेखक और कवि हुये जिन्होने उस समय की समस्याओं पर पूरे फक्कड तरीके से अपनी लेखनी को चलाया । और उसके असर भी समाज में देखने को मिले। कानपुर की कुछ फिजा ही ऐसी है कि यह पन्नो में नही दिलों में बसता है । कानपुर में जो भी आया वो कभी उसे भुला ना सका, तभी तो गोपाल दास नीरज जी "नीरज की पाती" मे कानपुर से अपनी जुडी यादों को याद करके उभर आये दर्द को कुछ इस तरह बयां करते है-
कानपुर! आह!आज याद तेरी आई फिर, स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए, अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है॥


फर्श पर तेरे 'तिलक हाल' के अब भी जाकर, ढीठ बचपन मेरे गीतों का खेल खेल आता है 
आज ही तेरे 'फूलबाग' की हर पत्ती पर, ओस बनके मेरा दर्द बरस जाता है।।

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

आओ मनाये देशी दीवाली


आप सोच रहे होगें कि अभी तो दीवाली बहुत दूर है, अभी तो दीवाली की दुकानें सजनें में बहुत समय है, तो कैसे करे अभी से दीवाली की तैयारी?
मगर जो हम कहना चाह रहे हैं उसको कहने का यही उचित समय है।
सोचिये आज कल हम कैसे करते है दीवाली की तैयारियां? हममें से ज्यादातर लोग दीवाली की तैयारियों में दो बातों पर ज्यादा जोर देते हैं -
१.     कोशिश करते हैं कि दीवाली पर उनके घरों में सबसे ज्यादा रौशनी हो, उनके मुहल्ले के सभी घरों में से उनका घर सबसे ज्यादा रौशन हो।
२.     उनके घर से पटाखों की सबसे ज्यादा आवाज आये
जरा सोचिये हमारी इन तैयारियों में असली दीवाली कौन मनाता है, असली तैयारियां कौन कर रहा है, किसके घर में होती है असली रौशनी?
दीपावली सूचक है, सुख की, समॄधि की, खुशहाली की.....
क्या आप सोच सकते है, किसे होती है सबसे ज्यादा खुशी, कौन होता है सबसे ज्यादा समॄद्ध हमारी दीपावली से? हम बताते है आपको, सबसे ज्यादा खुशी होती है हमारी दीवाली से ह्मारे पडोसी देश चीन के नागरिकों को, जिन्हे हमारी दीपावली से मिल जाता है अरबों , खरबों का व्यापार। 
दीपावली हमारी होती है, मगर हर घर में दियों से कही ज्यादा जलती हैं चीनी लाइट्स की झालरें। आप सोच भी नही सकते कि इन चीनी लाइट्स के पी्छे हमारे ही लिये कितना अंधकार छुपा हुआ होता है। मगर, आपको तो बस दिखता है कम पैसे में ज्यादा उजाला। क्या सच है इस उजाले का, तो आइये इसका एक तुलनात्मक अध्धययन करते हैः नेट पर हमने कुछ आकंडे देखे जिन्हे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ-

चीनी लाइट की औसतन कीमत 25-35 ₹ के बीच होती है। और कुछ लाइट्स की कीमत तो 100 से लेकर 500 ₹ तक भी होती है। औसतन एक घर में 10 लाइट्स। मतलब एक परिवार लगभग 250 से 1000 ₹ तक इन चीनी लाइट्स पर खर्च करता है।

अगर आप दीपक जलाएंगे तो सबसे पहले तो ये वातावरण को शुद्ध करता है और अब इसकी कीमत का आंकलन करते हैं।
1 लीटर सरसों का तेल लगभग 80 ₹,
200 मिट्टी के दिए लगभग 50 ₹ और
रुई की बत्ती लगभग 10 ₹
मतलब 200 दीपक जलाने का खर्च सिर्फ 140 ₹

तो आप अंदाजा लगाओ की 200 दीपक रखने से आपके घर में ज्यादा रौशनी होगी या 10 लाइट्स से....
दीपमाला लगाने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर होने वाले लाभों की सूची इस प्रकार है-
1.
जो मिट्टी के बने दीपक आप खरीदेंगे, वो ज्यादातर हमारे देश के गरीब कुम्हार बनाते हैं। आपके द्वारा दीपक ख़रीदने से किसी कुम्हार के घर भी दीवाली मे दिये जल सकेगें।
2. सरसों के तेल के दीपक जलाने से पटाखों के द्वारा होने वाला प्रदूषण की मात्रा कम होती है।
3.
हमारे देश का पैसा देश में रहेगा। जिससे औद्योगीकरण को बढ़ावा मिलेगा तथा विदेशी निवेश की ज़रुरत कम हो जाएगी।
4. भारतीय संस्कृति को बढावा मिलेगा। इस समय सबसे ज्यादा खतरा भारतीय संस्कृति को ही है
5.
आपके मन को सच्ची खुशी मिलेगी ।

अबकी दीवाली ऐसे मनाओ
ना अंधेरा धरा पर रहे कभी।
पटाखो के प्रदूषण से
धूमिल ना हो अब धरा कही ॥
दिये जले कुछ ऐसे कि
ना हो तेरे मेरे की बात कही ।
खुशियां फैले हर दिशा में
दीवाली का है अर्थ यही ॥
तेरे घर के दीप जब
रौशन करेगें गरीब की कुटिया ।
सफल तभी दीवाली होगी
उजियारा होगा देश तभी ॥

मेरी आप सब से गुजारिश है की कृपया चीन में बनी लाइट्स मत खरीदिये। सिर्फ स्वदेशी भारत में बने स्वदेशी दीपमाला प्रयोग कीजिये। पटाखों से दूर रह कर सही मायनों में दीवाली मनायें, अपना घर ही देश, देश को भी उज्जलित करें ।
शुभ दीपावली, सुरक्षित दीपावली
स्मृद्धि दीपावली, स्वदेशी दीपावली
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