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बुधवार, 7 मार्च 2018

स्त्री हूँ थोडा सा प्यार चाहिये




ना हार चाहिये ना गुलाब चाहिये
स्त्री हूँ थोडा सा प्यार चाहिये

जाने कब से तडप रही हूँ
बिन पानी के मछली सी
अपने ही घर में सदा रही
अमानत किसी पराये की
ना घर चाहिये ना दुआर चाहिये
स्त्री हूँ थोडा सा दुलार चाहिये
ना हार चाहिये ना गुलाब चाहिये
स्त्री हूँ थोडा सा प्यार चाहिये

तज कर के सर्वस्व तुम्हारे
आंगन मे मै आयी हूँ
देव मान के तुमको अपने
हदय स्थल में बिठाये हूँ
ना धन चाहिये ना वरदान चाहिये
स्त्री हूँ थोडा सा सम्मान चाहिये
ना हार चाहिये ना गुलाब चाहिये
स्त्री हूँ थोडा सा प्यार चाहिये

कोख में अपना रक्त पिला
हाड मास आकार दिया
भूल गयी अपना तन मन 
और उडने को तुम्हे आकाश दिया
ना सेवा चाहिये ना सत्कार चाहिये
स्त्री हूँ रिश्तो का संसार चाहिये
ना हार चाहिये ना गुलाब चाहिये
स्त्री हूँ थोडा सा प्यार चाहिये

दुनिया की चमक धमक मे भी
मै सिमटी सुकडी रहती हूँ
डरती नही मुश्किलों से पर
गिद्धों से भागी फिरती हूँ
ना आरक्षण चाहिये ना त्योहार* चाहिये
स्त्री हूँ सिर्फ शुद्ध व्यव्हार चाहिये
ना हार चाहिये ना गुलाब चाहिये
स्त्री हूँ थोडा सा प्यार चाहिये

*महिला दिवस को लेखिका यहाँ त्योहार कहती है

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