प्रशंसक

गुरुवार, 25 जून 2020

जाने दो




कह दो जो मन में तेरे, नदियों को बह जाने दो
मत रोक उसे जो जाता है, जो आता है आने दो

दो चार दिनों का मेला है, रुकना है निकलना है
तोडो रस्मों की जंजीरे, उजले कल को आने दो

छोटी छोटी सी बातों में, उलझों ना दुनियादारी में
कदम बढा जग जीतो, जो खोया खो जाने दो

खुशी और गम दोनों में, मेहमां बनकर आते
मत रोको इन अश्कों को, जो बहते है बह जाने दो

उगते सूरज संग दुनिया, डूबे के अपने बेगाने
चलता जा तू मस्ती में, जो जलता है जल जाने दो

क्या कहा, क्यूं कहा, इस हिसाब में भला क्या रखा
भूलों कडवे किस्सो कों, वापसी के कुछ बहाने दो

जीवन इक झूठी माया, मरने से कैसा घबराना है 
क्यूं डर डरकर यूं जीते हो, जो होता है हो जाने दो

मन चाहा मिले अगर, समझ मर्जी खुदाया की
परेशां क्या होना पलाश, रौशन सुबहों को जाने दो

शनिवार, 20 जून 2020

बागबां



रिया और समीर मूवी देखकर लौट रहे थे, कि अचानक रिया की नजर सडक से लगी हुई एक नर्सरी पर पडी। उसे और समीर दोनो को ही पेडों का बहुत शौक था, मगर अभी तक वो एक छोटे से फ्लैट में रहते थे, जिससे पेड पौधे लगाने का अरमान बस सोच ही बन कर रह गया था। उसने समीर से कहा- सुनो, देखो कितने सुन्दर पेड दिख रहे है, ले चलते हैं ना दो चार। समीर- अभी नहीं यार, फिर कभी, और फिर तुम नौकरी करोगी या ये बागवानी करोगी। रिया- प्लीज, ले लेते हैं न, मै कर लूगीं, और फिर घर में अब तो माँ बाबू जी भी है, उनका भी थोडा टाइम कट जाया करेगा।
समीर ने मुड कर देखा, फूल वाकई सुन्दर थे, हंस कर बोला- ठीक है जनाब, वैसे भी मैडम को नाराज करके कहाँ जाऊंगा । नर्सरी में कई सुन्दर सुन्दर फूलों के पेड थे, दोनो, दो चार पेडों का सोच कर गाडी से उतरे थे, मगर अब गाडी में दस पेड थे।
अभी दस- बारह दिन ही बीते थे कि एक एक करके सारे पेड मुरझाने लगे थे। रिया समीर क्या घर के बाकी लोगों की भी खुशी उड गयी थी, समीर की माँ ने कहा- नर्सरी वाले ने तुम दोनो को ठग लिया, तुम लोगों को पेड फूल की कोई पहचान तो है नही, अरे लाना भी था तो एक दो लाते, लाये भी तो एक साथ दस उठा लाये। पिता जी ने कहा- ऐसा करो उस नर्सरी वाले जाकर बताओ, कि उसके सारे पेड मुरझा गये हैं, पैसे तो वो क्या ही वापस करेगा, हो सकता है एक दो पेड दे दे। रिया और समीर ने गुस्से में सारे पेड गाडी में रखकर नर्सरी पहुंचे।
अभी उन्होने मुरझाये हुये पेड दिखाये ही थे कि नर्सरी वाला उन पर नाराज होने लगा- जब आप लोगों को पेड लगाने ही नहीं आते तो ले जाने की क्या जरूरत है, मगर आज कल तो बस लोग फैशन में ले जाते हैं। रिया और समीर उसके इस व्यव्हार से हतप्रभ थे। उन्हे समझ नही आ रहा था कि वो उल्टा उनकी गलती क्यों दे रहा है, शायद वो पैसे वापस न देने पड जाय इस कारण से ऐसा कर रहा है। मगर इससे पहले कि समीर कुछ कहता, उस नर्सरी वाले ने थोडा नरम होते हुये कहा- बेटा, एक बात कहूं, ये पेड ना बिल्कुल बच्चे के समान होते हैं, ये कोई शो पीस नही कि ले गये और सजा दिया। इनको ठीक समय पर खाद पानी देना पडता है, हर पेड की जरूरत अलग अलग होती है, कोई कम पानी लेता है तो कोई ज्यादा, मोटा मोटा बोलूं तो सबकी खुराक अलग होती है। रिया समीर अब कुछ कुछ समझ पा रहे थे।
रिया ने बोला- काका मगर पानी तो हम रोज देते थे, फिर ये सब कैसे मुरझा गये।
नर्सरी वाले काका बोले- बिटिया- दो बाते हो सकती हैं, या तो तुमने खडी धूप में इनको पानी दिया है, या तुमने सीधा इनकी जडों पर कोई केमिकल खाद डाल दी है, जिससे ये सब जल गये।
रिया को याद आया कि पेड जल्दी बडे हो जाय इसलिये उसने पेड लगाने के दूसरे दिन ही उनमें काफी खाद डाल दी थी।
दुखी होते हुये बोली- हाँ काका, वो हमको लगा इससे पेड जल्दी बडे हो जायेगें और खूब सारे फूल देंगें।
नर्सरी वाले काका- यही तो बात है बिटिया, कि हम सब जल्दी जल्दी सब चाहते हैं, पेड लगाने का शौक है तो बागबां बन के देखों। बच्चे की तरह प्यार से पालो पोसों, समय दो, एक जगह से हट कर दूसरी जगह पनपने फलने फूलने में समय लगता है।
वैसे तो पेड बेचने के बाद पेड बेचने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं होती, कि पेड बचा या फला, मगर फिर भी मै तुमको दस तो नही, हाँ पाँच पेड दे देता हूँ, बस इसलिये कि तुम लोग ये मुरझाये हुये पेड लेकर मेरे पास आये, तुम लोगों नें इन्हे उखाड नहीं फेंका, मुझे दिख रह है कि तुम लोगों को पेडों से प्यार है बस ऊपरी शौक नही, ये और बात है कि प्यार करने का तरीका तुम लोग नहीं जानते थे। फिर मुस्कुरा कर बोला- जाओ चुन लो अपनी पसन्द के पेड और बागबां बनना सीखो।

मन्नत के धागे



पहन लेती वो खामोशी, जब नाशाद होती है।
तहजीबें हार जातीं, जब हया बर्बाद होती है॥

देखे इन आंखों ने, सरहदों जमीं के बटवारें।
हर खबरो बवालों की, इक मियाद होती है॥

चढा कितनीं ही चादर, बांध मन्नत के धागे।
कहाँ कबूल हर छोटी बडी, फरियाद होती है॥

घडी दो घडी भर के, ये मातम, और मलालें।
उमर भर किसी की कब, कही याद होती है॥

उजड जायें तूफानों में, बस्तियां तो क्या।
हौसलों की मिट्टी से, वो फिर आबाद होती है॥

ये सितम तेरा, मेरे जिस्म तक मुमकिन।
रूह तो जुल्म ए जहाँ से, आजाद होती है॥

रहे इकबाल, गालिब तो, फाका परस्ती में।
यहाँ अबस से शेरों पर, ढेरों दाद होती है॥

इनायत खुदा की, मिलना रहनुमाया का।
रहमतों से पलाश, इख्लास ईशाद होती है॥

दाद - प्रशंसा          नाशाद - निस्र्त्साह
ईशाद - पथपर्दशन     असब- तुच्छ
इख्लास - सच्ची 

शुक्रवार, 19 जून 2020

आसरा



बेटा, एक बात कहनी थी, जरा इधर तो आओ- मिस्टर माथुर की आवाज में लडखडाहट थी। पापा आपको भी हमेशा मेरे ऑफिस जाते समय ही सारी बातें याद आती हैं, शाम को आता हूँ, तब सुन लूंगा आपकी बातें। विनीता जल्दी करो यार, तुमको पापा के घर छोडता हुआ ऑफिस -चला जाऊंगा। पीछे वाले कमरे से आवाज आई- बस पाँच मिनट रुकिये, आती हूँ। रोहन कुर्सी में बैठकर मोबाइल पर कुछ स्क्रॉल करने लगा। माथुर जी बस मन में ही कह कर रह गये कि बेटा मेरी बात तो एक मिनट की भी नहीं थी। करीब पन्द्रह मिनट बाद विनीता कमरे से निकलकर बोली- अब चलोगे भी या मोबाइल ही देखते रहोगे। पापा आप गेट बन्द कर लीजिये, कह कर दोनो निकल गये।
माथुर जी घर में दीवारों और दीवार में लगी पत्नी की तस्वीर के साथ रह गये। विनीता यूं तो हाउस वाइफ ही थी, मगर अक्सर ही सारा दिन घर से बाहर ही होती थी, कभी अपने मायके, कभी सहेलियों और कभी शॉपिंग पर।
माथुर जी को भी घर पर अकेले रहने की आदत सी हो गयी थी। ना कोई खास जरूरते, ना कोई खास खवाइशें। मिलने वालों में केवल दो मित्र ही बचे थे, उनमें से एक चड्डा जी पिछले चार महीनों से अपने बेटे के पास कनाडा गये हुये थे, हाँ पांडे जी जरूर हर मंगलवार की शाम प्रसाद लेकर आते थे जिससे एक दो घंटा कब निकल जाता पता ही न चलता था। बाकी रोज तो कुछ समय अखबारों के साथ बीतता, कुछ नॉवेल्स के साथ और कुछ समय वो अपनी पत्नी के साथ बिताते थे। पैरालिसिस के अटैक के बाद से उनका अकेले घर से निकल पाना सम्भव ही नहीं था। बस किसी तरह से अपने दैनिक काम वो कर लिया करते थे।
कल बातों बातों में उनकी पत्नी ने एक फरमाइश कर दी थी- घर में उनकी और अपनी एक कलर्ड तस्वीर लगाने की। बात ये थी कि माथुर जी की शादी की तस्वीर श्वेत श्याम थी, और कल माथुर जी बोले- जानती हो लाल साडी में तुम ऐसे लगती थी जैसे रजनीगंधा के फूलों के बीच लाल गुलाब। मगर अब कहाँ इस जनम में तुम्हारी वो छवि देखने को मिलेगी। तभी उनकी पत्नी ने कहा- अरे ये कौन सी बडी बात है- रोहन से कह देना वो हमारी शादी वाली तस्वीर को कलर्ड बनवा लायेगा। फिर देख लेना मुझे जी भर कर इसी जनम में, और कह कर लजा गयीं थी, जैसे आज ही ब्याह कर आईं हों।
आज कई दिन बीत गये थे, मगर रोहन के पास माथुर जी की बात सुनने का वक्त नहीं मिला था। जब भी उनकी पत्नी पूंछती रोहन को फोटो बनने दी या नहीं, तो कह देते अरे भूल गया, कल कह दूंगा। और उनकी पत्नी उलाहना देतीं- आपको तब भी कुछ याद नहीं रहता था और आज भी याद नहीं रहता।
माथुर जी कैसे कहते कि उनके बेटे के पास उनके लिये अब वक्त नही। आज दो महीने हो रहे थे, जब रोहन शाम को बात सुनने की बात कह कर निकल जाता था, और माथुर जी शाम और सुबह की प्रतीक्षा के बीच दिन गुजार देते थे। मगर ना कभी सुबह के दो मिनट निकले ना कभी शाम आई।
आज प्रसाद के साथ साथ पांडे जी ने माथुर जी को एक तस्वीर भी दी, जिसमें तीनो मित्र एक साथ कॉलेज के गेट पर खडे थे। माथुर जी बोले- अरे पांडे जी यह तस्वीर तो चड्डा जी के भाई ने खींची थी ना, आपको कहाँ से मिली और ये तो ब्लैक एंड व्हाइट फोटो थी ना। पांडे जी बोले - हाँ माथुर साहब आप सही कह रहे हो। ये चड्डा जी ने इन्टनेट से बनवा कर भेजी है, एक कॉपी आपके लिये और एक मेरे लिये। माथुर जी के चेहरे पर एक खुशी सी चमक गयी। बोले- पांडे जी क्या आप जानते हो ये इन्टरनेट से फोटो बनवाना? पांडे जी बोले- नही, मै तो नही जानता, हाँ मेरी पोती जरूर जानती है। कहिए बात क्या है? तब उन्होने अपनी शादी की फोटो बनवाने वाली बात कही।
पांडे जी बोले- माथुर जी आपकी फोटो बन गयी समझो, अच्छा मै एक काम करता हूँ, मै आपकी ये ब्लैक एंड व्हाइट वाली ले जाता हूँ और अगले मंगल को आपकी और भाभी जी की नई फोटो लेता आऊंगा।
एक हफ्ते बाद दीवार पर कलर्ड फोटो थी, मगर अभी तक ना रोहन को बात सुनने का समय मिला था, ना उसकी निगाह में रजनीगंधा के बीच कोई गुलाब था। हाँ माथुर जी के पास जरूर अब  ना रोहन से कहने के लिये कोई बात नहीं थी ना ही रोहन का आसरा।

सोमवार, 15 जून 2020

मालूम नही


दिन इक और जिया या गुजरा, मालूम नही
खुद से खुश हूं या खफा खफा, मालूम नही

सांसे घडी घडी देतीं, गवाही जिन्दगी की
कितना जिंदा हूँ कितना मरा, मालूम नही

खरीदी फकीर से कुछ दुआएं, हमने भी
हुआ सौदे में घाटा या नफा, मालूम नहीं

छोड पायल उसने, पैरों में घुंघरू पहने
महज शौक है या इक़्तिज़ा, मालूम नहीं

चल तो रहा बाजार में, बहुत जोर शोर से
ये खोटा सिक्का है या खरा, मालूम नहीं

मासूम निगाहों पर, यूं सब कुछ लुटा
उसने किस किसको है ठगा, मालूम नहीं

कर लिया कुबूल खुशी से, जो भी मिला
रहमत-ए-खुदा है या सजा, मालूम नहीं

नज्में तो उसकी, बहुत पाकीजा लगी
तहखाने दिल में क्या दबा, मालूम नहीं

इलाजे क़ल्ब को बेकरार, है पलाश मगर
हकीमे इलाही को रोग क्या, मालूम नही

क़ल्ब - दिल

इक़्तिज़ा - मजबूरी
इलाही - खुदा

शनिवार, 13 जून 2020

छोड़ भी दे



डॉ.रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी का हार्दिक आभार, जिन्होने यह गजल पढने के बाद मेरे ब्लाग पर न केवल टिप्पणी के माध्यम से मुझे सुधार बताये बल्कि मेरे अनुरोध पर उन्होने गलज लिखने की मूल्यवान जानकारी भी साझा की। चाचा जी, मेरा मार्गदर्शन करने हेतु आपको मेरा प्रणाम और धन्यवाद। 



चाह आसरों की रखना छोड़ भी दे
सूखे शाखों से लिपटना छोड़ भी दे 

खुश रखना खुद को तेरी जिम्मेदारी
ये रोना धोना सिसकना छोड़ भी दे

चांद का झूला महज किताबी कहानी
जज़्बातों में बहके रहना छोड़ भी दे

होते नहीं ख्वाब ख्यालों से मुकम्मल
लकीरें ताबीजें आजमाना छोड़ भी दे

बेमतलब के रिश्ते हुए गुजरा जमाना
बेमकसद घुलना मिलना छोड़ भी दे

दो पल भी दुनिया नहीं याद करेंगी
तू ख्वाइशें दफन करना छोड़ भी दे

नकाबपोशी का चलन है जोरों पर
खामख्वाह चेहरे पढ़ना छोड़ भी दे

झुकती है दुनिया शोहरतों से पलाश
अब पत्थर नींव का बनना छोड़ भी दे

शुक्रवार, 12 जून 2020

अच्छी नहीं



ये जिन्दगी है, जंग का मैदान नहीं।
हर बात में यूं जीत हार अच्छी नहीं॥

मिलते हैं रिश्तें, बहुत खुशनसीबी से।
बात बात पर ये तकरार अच्छी नहीं॥

मना लो हर दफा, जिनसे तुझे चाहत।
दरम्यां दिलों के ये दीवार अच्छी नहीं॥

अहमियत वक्त की पहचान वक्त पर।
किस्मतों की सदा दरकार अच्छी नहीं॥

ना हाथ बढाओ गर दिल नहीं मिलता।
फरेबी कसमों की फुआर अच्छी नहीं ॥

फिक्रमंदी का दिखावा है किसके लिये।
आवाम कह रही सरकार अच्छी नहीं ॥

जिस दर ना हो कद्र तेरे अरमानों की।
पलाश उस ठौर इज़्तिरार अच्छी नहीं॥

** इज़्तिरार= अकुलाहट

बुधवार, 10 जून 2020

हमेशा अच्छा नही लगता



हर चीज जगह पर होना, हमेशा अच्छा नही लगता
सलीकों में जिन्दगी जीना, हमेशा अच्छा नही लगता

कुछ आवारगी है जरूरी, मस्ती से जीने के लिये
अदबों लिहाज से रहना, हमेशा अच्छा नही लगता

कट कर तो गिरे पतंगें, किसी अजनबी की अटारी
उड के चूमना आसमान, हमेशा अच्छा नही लगता

हों थोडी सी लापरवाहियां, हों हिदायतें बुजुर्गों की
सधे कदमों से चलना, हमेशा अच्छा नही लगता

ओढ़ लो कभी यूं ही, बचपन की नासमझी
अकल का पैरहन, हमेशा अच्छा नहीं लगता

कुछ कच्चा पक्का बने, खाये कुछ मीठे से उलाहनें
उम्दा तारीफों का तडका, हमेशा अच्छा नही लगता

इन्तजार में महबूब, जरा पलकें तो बिछायें
वक्त पर पहुचना, हमेशा अच्छा नही लगता

कुछ नाराजगी भी हैं जरूरी मोहब्बत के लिये
हर बात मान जाना, हमेशा अच्छा नही लगता
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