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बुधवार, 25 दिसंबर 2013

डायरी के पन्नों से....


आज मैने खुद से ही बेइमानी की। मैने कसम खाई थी तुमसे बात ना करने की, मगर फिर भी तुम्हे फोन किया, हाँ बोला कुछ भी नही। आज पहली बार हमारे बीच शब्द दीवार बन गये, एक ऐसी दीवार जिसे मै पार नही कर पाई। शायद तुम्हे दी हुयी कसम को तोड देना मेरे बस की बात नही। मगर खुद को तसल्ली नही हुयी, रात के ढलते ढलते एक एस. एम. एस. कर ही दिया , एक शब्दहीन एस. एम. एस.। पुराना साथ और आदते जाते जाते ही जाती हैं । सच एक आदत ही तो बन गये थे तुम , मगर अब छोडनी ही होगी ये आदत, क्योकि बाकी का सारा जीवन इस आदत के बिना ही जीना होगा  
अब तो मेरे सुख से ना किसी को खुशी होती होती है ना दुख से तकलीफ दिन भर में कितनी बार तुम्हारे लिये ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ, तुम्हारे खुशहाल और सफल जीवन के लिये , ये तो मुझे भी नही पता तुम जहाँ भी रहो , खुश रहो, सुखी रहो। क्या करूँ, मजबूर खुद से ही हूँ, जब किसी को हम एक बार अपना समझ लेते है तो उसके लिये चाह कर भी बुरा सोच भी नही पाते, क्योकि जानते है कि अगर कभी भूले से भी उसकी कोई खबर मिली और वो बुरी हुयी तो तकलीफ इस दिल को ही होगी।  
तुम भले ही मुझसे दूर चले गये, तुमने मुझे वो हर चीज वापस कर दी, जो तुम्हे मेरी याद दिला सकती थी, मुझसे भी तुमने वो हर चीज मांग ली, जो कभी तुमने मुझे प्यार् की सौगात समझ कर दिया था,
मै चाहती तो कुछ भी वापस ना करती, मगर मै ऐसा ना कर सकी, क्योकि मै जानती थी कि ये दिये हुये तोहफे तुम्हे याद करने का जरिया नही
मेरी जिन्दगी की जमा पूँजी है तुम्हारे साथ बिताये वो पल जिसमे सिर्फ अपना पन था, मासूमियत थी, सपने थे , उमंगें थी, संगीत था, सरगम था, और था ईश्वर
मगर तुम डरना नही, मै कभी इन यादों की पूंजी लेकर तुम्हारे पास वापस नही आऊँगी
मै हमेशा वही रहूंगी, वैसे ही रहूंगी, जैसा तुम छोड कर गये हो, वैसे ही, उसी रूप मे , उसी तरह जिसे देख कर तुमने कहा था- तुम्हारी आंखों मे मुझे लगता है कोई आइना छुपा है- जिसमें मैं अपने को देखता हूँ शायद इसीलिये इन आंखों मे कभी आंसू भी नही आते, कि कहीं इसमे बसा आइना धुंधला ना हो जाय

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाज में नारी की स्थिति की विवेचना

प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु ने कहा है कि स्त्री की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति निर्भर है।
यूएनडीपी के महिला विकास रिपोर्ट २०११ के अनुसार १३६ देशों में वैश्विक लैंगिक अंतर सूचकांक मे भारत की स्थिति १०१, स्वास्थ्य मे दूसरा निम्नतम स्तर १३५, आर्थिक भागीदारी मे १२४ एवं शिक्षा में १२० है। ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव और संयुक्त राष्ट्र विकास  कार्यक्रम (यूएनडीपी) मानव विकास रिपोर्ट २०११  के अनुसार बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) 2010 मे भारत की स्थिति १०३ देशों मे ७३ है| संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन., २०११  के अनुसार कृषि में भारत की स्थिति १३३ देशो मे ९८ है । अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष. 8 अक्टूबर 2013 को उपलब्ध आकडों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद (नाममात्र) प्रति व्यक्ति में भारत की स्थिति १८४ देशों मे १३८ है|
     इन सभी आकडों से यह स्वतः ही अरस्तु का कथन सत्य प्रतीत होता है।  मनु स्म्रुति में भी कहा गया है कि .....
स्त्री प्रसन्न है तो सारा कुल ही आनंदमय हो जाता है ! पत्नी के रूप में नारी पति, पुत्र तथा गृहस्थ की सुखशांति की संरक्षिका भी मानी जाती थी ! इसलिए तो वेद उसे जागरूक रहने का आदेश देता है !
वेदों में,नर के रूप को जहाँ परमपुरुष कहा गया वही नारी को आदिशक्ति परम चेतना कहा गया ।मोहम्मद अली जिन्ना  ने भी औरत की शक्ति को कलम और तलवार से भी बडा माना हैं । सरल, सहज, समर्पण, सेवा,एंव  त्याग की प्रतिमूर्ति नारी,  आज २१ वीं सदी में भी उत्पीड़ित है।
स्वतंत्रता के पश्चात् पुरूषों के समक्ष बराबरी से आने का हौसला नारी में हुआ लेकिन नारी मुक्ति का आंदोलन आज भी जारी है। स्त्री मुक्ति मांग रही है, गृहिणी, घर में काम करती स्त्री, दफ्तर में काम करती स्त्री, कारखाने में काम करती स्त्री, मानवीय रिश्तों में बंधी स्त्री, पुरूष प्रेम के द्वन्द्व में दुविधाग्रस्त स्त्री, बौद्धिक बनती स्त्री, अक्षर ज्ञान से रहित स्त्री, साक्षर स्त्री, उच्च पदस्थ स्त्री, स्त्री........? स्त्री....? मुक्ति चाहती है। मुक्ति को परिभाषित करते हुए फ्रायड कहते हैं कि ‘‘चयन और निर्णय की स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व एवम् मनोविज्ञान के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।‘‘
वैदिक काल की उच्च प्रस्थिति प्राप्त नारी का सच, पुरूष व्यवहार के समक्ष उजागर हो जाता है। विद्वानों का मानना है कि वैदिक युग में महिलाओं को मर्दों के बराबर का हक प्राप्त था और स्वयंवर के द्वारा वे खुद अपने जीवनसाथी का चुनाव करती थीं। ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रन्थ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमे मैत्रेयी और गार्गी के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतीय संस्कृति की उदगम स्थली गंगोत्री तो वेदमाता ही है। जीवन को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पवित्र धामों में स्नान कर मुक्ति का अधिकारी बनाने वाले वेद को माता कहा जाता हो, गायत्री को ,‘ गंगा को , गाय को, देश की पवित्र भूमि को माता कहा गया है, क्योकि उस समय स्त्री सम्मान का सूचक थी, अशिक्षित गंवार एवं मूर्खा नारी को बनाना भारत का कभी धर्म नही रहा।
अगर भारत का इतिहास पलटकर देखें तो सीता , दुर्गा , पार्वती को माता का दर्जा दिया गया है , चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में इस प्रकार की प्रशिक्षित महिलाओं का उल्लेख किया गया है । अवस्ता और पहलवी में ,नर और नारी की शिक्षा में थोड़ी सी विभिन्नताएँ थीं। जिससे परिवार संभालने के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक जिम्मेदारी को भी बखूबी निभा लेती थी । बौद्ध काल में भी विदुषी होने का प्रमाण मिलता है। बावजूद नारियाँ, शिक्षा ग्रहण करने संघ में जाया करती थीं। जहाँआरा, जेब्बुनिसा, नूरजहाँ, रजिया सुल्ताना, बेगम हजरज मुगलकाल युग में स्त्रियों की स्थिति का प्रतिनिधित्व करती नजर आती हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के साथ महात्मा गांधी की सामाजिक न्याय की प्रक्रिया ने स्त्री को पुरूष के बराबर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन ने नारी को समानता का स्थान प्रदान करने के लिए संगठित किया। भारतीय नारी जागरण का कार्य इसी काल में राजा राम मोहन राय, विवेकानंद, तिलक, दलपतराय, दुर्गाराम, मेहता जैसे पुरूष समाज सुधारकों द्वारा प्रारंभ किया गया। राजा राम मोहन राय द्वारा प्रारंभ किये गये इस सामाजिक आंदोलन में नारी की दुर्दशा को आर्थिक कारणों से जोड़ा गया। इंदिरा गाँधी, सरोजिनी नायडू, मदर टेरेसा , रानी लक्ष्मी बाई जैसी महिलाओं ने कर्मों की बदौलत अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज करवाया है।
आज सभी जगह चाहे वह घर हो या बाहर, पुरूष वर्ग की उच्चता और निम्नता के भाव के साथ महिलाओं के प्रंति अत्याचार का स्वरूप दैहिक मानसिक और लैगिंग उच्चतम रूप में सर्वत्र दिखाई देता है और इन अत्याचार एवं अपराधों के उपचारार्थ बनाये गये कानून सामाजिक पहलुओं के अनुरूप नहीं है। सामाजिक दृष्टिकोण से अनुपयुक्त है। वर्तमान न्याय प्रक्रिया न्यायालय और न्याय को समर्थ बनाने वाली नहीं है।

कानून बने, पर उन्हें माना किसने: बाल विवाह सन 1929 में गैरकानूनी घोषित हुआ, फिर भी आज लड़कियों की औसतन 14-15 वर्ष की उमर में शादी हो जाती है. शहरी लड़कियों की शादी की औसत उम्र 18-20 वर्ष तथा ग्रामीण लड़कियों की शादी 10 साल से कम उम्र में ही हैं. विधवा विवाह कानून सन 1856 में पारित हुआ था लेकिन सच बात तो यह है कि आज भी इक्के-दुक्के पुरुष ही विधवा से शादी करने का साहस जुटा पाते हैं. बाकी तो उसे जूठन समझ कर शादी से साफ इनकार कर देते हैं. हिंदू कोड बिल सन 1955 में पास हुआ, पर कितनी स्त्रियां पति के दुराचारों को, तलाक के अधिकार का उपयोग़ कर, चुनौती दे पाती हैं ? आज हमारे पास बलात्कार (धारा 376 आईपीसी),अपहरण और अपहरण निर्दिष्ट उद्देश्यों (धारा 363 -373 आईपीसी), दहेज के लिए हत्या मौतें या उनके प्रयास (धारा 302/304-B ​​आईपीसी), अत्याचार - मानसिक और शारीरिक दोनों (धारा 498 ए आईपीसी), छेड़छाड़ (धारा 354 आईपीसी), यौन उत्पीड़न (धारा 509 आईपीसी), लड़कियों के आयात (21 तक उम्र के वर्ष) (धारा 366 बी आईपीसी) जैसे बहुत से कानून होने के बाद भी, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की २०१२ की महिलाओं के खिलाफ अपराध के रिकार्ड के अनुसार के केवल २०१२ मे, प्रति २ मिनट में अपराध की रिपोर्ट घटना दर्ज की गयी, अपराध की दर महिलाओं के खिलाफ 2012 में 41.7 था.
आसाम में यह उच्चतम है जो कि ८९.५  है। इसी ब्यूरों की रिपोर्ट मे पांचवे अध्याय की ५ अ सारणी मे, २००७ से २०१२ के बीच के आकडों के औसत निकाला गया, जिसके अनुसार , भारत में प्रति १ घंटे में तीन रेप ,४-५  अपहरण , एक दहेज , २ -३ दहेज के कारण मृत्यु, १०-११ का पति द्वारा शोषण , और ५-५ महिलाओं की शालीनता पर हमले की घटनाएं होती हैं।

शक्ति और सामर्थ्य के अतिरिक्त मानसिक दृष्टि से हीनता की भावना उसमें भरने में समाज अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
नारियों के साथ एक और विडंबना यह है कि नारीपुरुष यौन संबंधों का सारा प्रतिफल उन्हें ही भुगतना पड़ता है गर्भ के रुप में। पुरुष तो हाथ झाड़कर अलग हो जाता है और नारी को नौ महीनों तक कुछेक क्षणों का परिणाम साथ-साथ रखना पड़ता है. इस कारण नारी को डरना पड़ता है और पुरुष निर्भीक रह्ता है।चिकित्सकीय साक्ष्य भी साथ ही साथ पुलिस विभाग का व्यवहार ये संपूर्ण प्रक्रिया न्याय को हासिये में ला खड़ा कर देते है । शारीरिक अपराध संबंध में महिलाएं जब पुलिस थाना में जाकर रिर्पोट लिखाने में आज भी एक भय सा महसूस करती है । प्रत्येक विज्ञापन आज स्त्री के स्त्रीत्व को छलता हुआ दिखाई देता है। कोई भी वस्तु चाहे उसका उपयोग केवल पुरुष द्वारा किया जा रहा हो, ब्लेड, डिओ, आदि सभी पर एक असामान्य आकर्षण द्वारा स्त्री की भोग्या छवि को ही दर्शाया जा रहा है। उसे इंसान नही ग्लैमर डाल के रूप मे ही देखा जा रहा है। जिससे समाज के भीतर उनकी छबि भी प्रभावित हो रही है। समाज का वातावरण हर ओर एक शंका से ग्रसित है। शिक्षित और आत्म्निर्भर नारी भी निर्भय हो कर कही भी कभी भी आ जा नही सकती, एक अनचाहा डर उसके व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से आकार नही लेने देता। 

 कार्मिक लोक शिकायत .विधि एवं न्याय विभाग की संसद की स्थायी समिति की 62वीं रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2009 तक कुल सरकारी र्कमचारियो मे महिलाओ का प्रतिशत 10.4 है तथा किसी भी विभाग मे उनका अनुपात 35प्रतिशत से ज्यादा नहीं है ।सर्वाधिक कर्मचारी वाले रेलवे विभाग मे केवल 6.43प्रतिशत तथा रक्षा क्षेत्र मे 11.77प्रतिशत महिलाएं है। 2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामला भारत में १६ दिसम्बर २०१२ में हुई एक बलात्कार तथा हत्या की घटना थी। 14 सितंबर २०१३ को इस मामले के लिए विशेष तौर पर गठित त्वरित अदालत ने चारों वयस्क दोषियों को फांसी की सज़ा सुनाई। सब लगभग सारा ही समाज इस संदर्भ मे जागरुक था, मीडिया अपना सहयोग दे रहा था , उस स्थिति मे भी न्याय मिलने में, १० माह का समय लगा। आज भारत में मातृत्व संबंधी मृत्यु दर दुनिया भर में दूसरे सबसे ऊंचे स्तर पर है. देश में केवल 42% जन्मों की निगरानी पेशेवर स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा की जाती है. यूएनडीपी मानव विकास रिपोर्ट (1997) के अनुसार 88% गर्भवती महिलाएं (15-49 वर्ष के आयु वर्ग में) रक्ताल्पता (एनीमिया) से पीड़ित पायी गयी थी। सरकार महिलाओ के सम्मान के प्रति कितनी जागरुक है इसका पता हम इस बात से ही लगा सकते है कि  सरकार ने राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान विदेशियों को सेक्स परोसने के लिए दिल्ली में 37900 सेक्स वर्कर पंजीकृत किए थे। 
जिस आजादी की लडाई में रानी लक्षमीवाई, रजिया सुल्ताना, बेगम हजरत मह,  रानी अवंतीबाई जैसी अनेक नारियों ने अपनी वीरता का परिचय देश को स्वाधीन कराने के लिये दिया उसी देश में, आजादी के ६६ वर्षों के उपरान्त भी ,स्त्री को आत्मरक्षा करने हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन, गौरव का विषय नही, आज हम स्वयं को उन लोगो से असुरक्षित महसूस कर रहे है, जो लोग जो घर मे हमारे अपने है,  जिनके साथ हम कंधे से कंधा मिला कर राष्ट्र निर्माण करना चाहते है, और वो समाज जिसमें स्त्री को वन्दनीय कहा जाता है। आज हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग को आवश्यकता है सोच परिवर्तन की, कानून का अस्तित्व तो घटना के बाद होता है,किन्तु जब तक सोच स्वस्थ नही होगी, नारी के स्थिति मे कोई चमत्कारिक परिवर्तन नही आने वाला, आरक्षण जैसी सुविधायें समाज में सकारात्मक सोच नही लाती, वरन पुरुषों मे महिलाओ के प्रति द्वेष उत्पन्न करने वाला मीठा जहर मात्र है। आज जरूरत है नारी को मानसिक स्तर पर सकारात्मक करने की, और यह  है जिम्मेदारी है समाज को बनाने वाली दो्नो इकाइयों- स्त्री एंव पुरुष की ही है।
** मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रोघोगिकी संस्थान में आयोजित एक कार्यक्रम में हुयी गोष्ठी में व्यक्त किये गये विचार जिसमें दितीय पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।




शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

शेष..............


प्रिया की आँखों में कभी एक भी आंसू नही देख पाता था, मगर आज वो फफक फफक कर रो रही थी और मैं कुछ भी नही कर पा रहा था। नवप्रिया- हमारी दो साल की बेटी, ये नाम मैने और प्रिया ने मिलकर ये सोचते हुये रक्खा था कि वो हम दोनो के प्यार का ईश्वर का दिया अनमोल रत्न है, हम दोनो का अंश,तो नाम भी ऐसा हो जिसमें हम दोनो का अंश हो।वो हम दोनो की जान थी, भला कभी उसकी किसी बात को मैने या प्रिया ने टाला था,  पिछले दो सालों में ऐसा कभी नही हुआ, मगर आज उसकी किसी ख्वाइश को मैं पूरा नही कर पा रहा था।
मुझे याद है, इससे पहले कभी खुद को इतना लाचार और मजबूर कभी नही पाया था। मगर जीवन की एक घटना ने मेरे जीवन की दशा और दिशा दोनो को ही मोड दिया। आज सोचता हूँ कि क्या वाकई में उस समस्या का जो हल मैने निकाला था वही सिर्फ एकमात्र रास्ता था, उस समस्या से निकलने का। कितनी बार प्रिया ने कहा था- आप मुझे कुछ क्यों बताते क्यो नही, पता नही कौन सी चिंता आपको परेशान करती रहती है अगर कुछ पैसों की बात है तो आप चाहे तो मेरे सारे गहने बेच दो या गिरवी रख दो, सारे पैसे का इन्तजाम बडे आराम से हो जायगा, पर उन गहनों को मै हाथ भी कैसे लगा सकता था, एक भी गहना तो बनवा कर कभी नही दे पाया था उसे, हाँ शायद मेरे पिता जी या माता जी होते तो वो अपनी बहू को जरूर कुछ ना कुछ देते। मगर मेरे जैसा एक अनाथ लडका जो स्वयं का ही पिता होता है और मां भी, वो उसे सूखे प्यार के सिवा किसी भी वस्तु से अलंकृत नही कर सका था। आज जो कुछ भी प्रिया के पास था वो सब कुछ उसके पिता यानी मेरे श्वसुर की अकूत सम्पदा का एक छोटा सा अंश था, देना तो वो बहुत कुछ चाहते थे, मगर शायद प्रिया मेरे स्वभाव को जानती थी, और इसीलिये उसने पिता जी के लाख बार कहने पर भी उनके राजनगर वाले घर पर रहने को मना कर गोविन्द्पुर के एक छोटे से किराये के फ्लैट को अपने प्यार से किसी महल में परिवर्तित कर दिया था। मगर शादी के दिन से ही मैने मन में ढान लिया था कि प्रिया को बहुत बडा ना सही मगर उसे उसका एक घर जरूर बना कर दूंगा। पिछले तीन सालों में कडी मेहनत के बाद भी कुछ नही कर पा रहा था, और मकान की कीमतें थी कि दिन पर दिन आसमान छूती जा रहीं थीं। एक छोटी सी नौकरी से एक छोटा सा घर बनाना भी आसमान के तारे तोडना जैसा प्रतीत होने लगा था। मगर अपना घर बनाने का स्वप्न मन के कोने में हर पल सांस लेता था।
और फिर चार महीने पहले, मेरे आफिस के एक मित्र ने बताया कि नेहरु नगर में एक घर बिकने वाला हैं कीमत भी कुछ ज्यादा नही है सिर्फ पन्द्रह लाख, सात लाख रुपये का डाउन पेमेंट दे कर बाकी का पैसा इन्स्टालमेंट में दे देना, हाँ चार लाख कैश देना पडेगा। मैने कहा- सात लाख से कम नही हो सकते तो उसने कहा- ना यार उनको पैसे की जरूरत है इसीलिये तो मकान बेच रहे हैं। अपने सारे एल आई सी और बाकी जगहों से किसी तरह पैसा इकट्ठा करके मकान मालिक को पैसा देने जाने ही वाला था, कि अचानक आफिस से बॉस का फोन आया और मुझे तुरंत दिल्ली जाने को बोला। कल ही राजेश ने बताया था कि मकान मालिक को अगर आज पैसे ना दिये तो वो किसी और को मकान देने वाले है, सो मैं उसको पैसे दे कर दिल्ली चला गया, ये कह कर कि वो आज ही मकान मालिक को पैसा जमा कर दे। मगर दो दिन बाद, दिल्ली से वापस आने पर जब मैने राजेश से पैसे की रसीद मांगी तो उसने कहा दे दूंगा रसीद कहाँ चली जा रही है जैसे तेरे पास वैसे ही मेरे पास, और ऐसे करीब महीना निकल गया। फिर एक दिन जब आफिस गया तो पता चला कि राजेश नौकरी छोड कर कही और चला गया है, और जो पैसे मैने उसको अपने मकान के लिये दिये थे उन पैसों से उसने मेरे नही अपने मकान के लिये इटावा में कही जगह खरीद ली है।
मुझे कुछ समझ नही आ रहा था, कि अब मै क्या करूँ, ये भी जानता था, कि मेरे रहते प्रिया कभी अपने पिता से किसी भी तरह की कोई मदद नही लेगी। और मेरे पास आज घर चलाने तक के पैसे नही थे, आफिस से भी तीन लाख रुपये उधार लिये थे ये सोच कर कि पांच हजार महीने तनख्वाह से कटा भी दूंगा तो भी दस हजार में किसी तरह खर्च चल ही जायगा। बाकी कुछ और काम कर लूंगा तो उससे बाकी का कर्ज निकल जायगा। मगर सब कुछ बदल गया था, लेनदार भी कब तक चुप रहने वाले थे। आज आफिस में मांगते थे कल घर आ कर मांगते। 
मेरे पास सिर्फ और सिर्फ एक ही रास्ता बचा था, मेरे ना रहने पर प्रिया के पिता सहारा बन कर मेरी पत्नी और मेरी बेटी को वो सब दे सकते थे जो अब मै इस जीवन में नही दे सकता था।
और फिर कल मैने स्वयं को खत्म करने के निर्णय को सत्य करते हुये अपने दिल पर पत्थर रखते हुये नींद की गोलियां खा कर , अपनी पत्नी और पुत्री के जीवन की हर नींद को सुखमय करने का रास्ता निकाल ही लिया।
मेरे जाने के बाद जैसा मैने सोचा था मेरे श्वसुर जी आये और प्रिया से अपने साथ रहने को कहा, मगर ये क्या प्रिया ने तो जाने के लिये बिल्कुल मना कर दिया, बोली- पिता जी वो घर तो मेरे लिये उसी दिन पराया हो गया था जिसे दिन आपने अपना आशीर्वाद देकर मेरा हाथ इनके हाथ मे दे कर कहा था- बेटी अब नवीन के साथ ही तुम्हारी दुनिया है। अब आप ही बताओ कैसे मै उसकी उजडी दुनिया को छोड कर कही और जाऊँ, आप बिल्कुल चिन्ता ना कीजिये, मगर जीवन में कभी भी किसी की जरूरत हुयी तो सबसे पहले आपको याद करूंगीं। आप बस मुझे आशीर्वाद दो कि मै उनके सारे अधूरे सपने पूरे कर सकूँ। फिर वृद्ध पिता अपनी पुत्री से कुछ भी  ना कह सका बस चुपचाप बैठ कर अपने दामाद को चिरनिद्रा में लीन होते देखता रहा। प्रिया की अश्रुधार सावन की मूसलाधार वर्षा जैसी रुकने का नाम ना लेती थी। रोते रोते बस एक ही बात खुद से कहती जाती- कि मै आपकी पत्नी तो बन गयी मगर आपकी साथी नही बन सकी, आप दिन रात परेशान रहे और मैं पता तक ना कर सकी कि आप क्यों इतने परेशान हो। मुझे मकान नही घर चाहिये था, और वो तो उसी दिन मिल गया था जब आप मुझे मिले थे, उधर नवप्रिया रो कर बार बार अपनी तोतली आवाज में कभी अपनी माँ कभी अपने नाना से कहती- पापा से कहो उडे ना , पापा ने प्रामिस किया था , मेरी गुलिया लेने चलेगें......
चाह कर भी नवीन प्रिया से कैसे कहता कि - मुझे माफ कर दो | मै ही तुम्हारा पति तो बन गया था, मगर तुम्हारा साथी नही बन सका । बचपन मे ही अनाथ हो गया था सारा जीवन अनाथालय मे बिताया, जब स्कूल मे सारे बच्चों के पापा आते तो सोचता था मेरे पापा क्यों नही है और जब अपने श्वसुर के रूप मे पिता को पाया तो कभी उन्हे पिता मान ना सका। आह! क्यो नही समझ सका कि पिता से मदद लेने में अभिमान नही होना चाहिये था, क्यो नही उनके घर को अपना घर नही मान सका, सारा जीवन अनाथ आश्रम में बिताने के बाद जब मुझे घर में रहने का सौभाग्य मिला तो क्यों उनके घर को सिर्फ एक मकान समझने की भूल कर बैठा। क्यों नही समझ सका कि प्रिया के सिवा मेरे श्वसुर का और कोई भी तो नही था, तो जो कुछ भी उनका था वो आखिर और किसको देते। क्यों नही समझा कि वो सब जो मैं ईश्वर से मांगता था, उसने वो सब मुझे दिया था, मगर मैं ही पहचान ना सका था।
और आज जब मै ईश्वर के द्वार पर खडा हो कर उनसे अपनी पत्नी और पुत्री की खुशियों की याचना कर रहा हूँ कि प्रभु मेरी इस भूल को क्षमा कर दो, मेरे निर्जीव पडे हुये शरीर में वापस मेरे प्राण डाल दो तो क्यों ईश्वर मेरी भूल माफ नही कर रहे हैं। ठीक ही तो है- अपनी भूल की इससे बडी सजा और क्या हो सकती है कि मुझे उनकी तकलीफों को देखते हुये एक ऐसे जीवन को जीना है जिसका ना तो धरती पर कोई अस्तित्व है ना आकाश में, मुझे अपने शेष जीवन चक्र को पूरा करना है जो ना हो कर भी है, एक ऐसा जीवन जहाँ मेरे जैसे बहुत से लोग हैं मगर सभी अपने मे अकेले साथ होकर भी एक भीड जैसे कोई किसी को नही जान सकता, कोई किसी की आवाज नही सुन सकता, सिर्फ देख सकता है। हर कोई अपनों को दुखी होते, रोते बिलखते देखता है, कभी ईश्वर से माफी मांगता है तो कभी अपनी लाचारी पर चीखता और अपनी विवशता पर रोता है। चारो तरफ सिर्फ नैराश्य , करुण क्रन्दन, और बेबसी का साम्राज्य था। कर्म का यहाँ कोई अस्तित्व नही था, कितनी अकर्मणता का वास था यहाँ, धरती पर तो अपनी परेशानियों से निकलने के लिये हम कुछ उपाय कर भी सकते थे मगर यहाँ सिर्फ मौन हो कर देखने मात्र की क्रिया ही शेष थी। सभी को उस उम्र को जीना था जो शेष थी, वो उम्र जिसे दे कर हमे ईश्वर ने धरती पर भेजा था और हमने ईश्वरीय सत्ता के विरुद्ध आचरण करते हुये उसको जीने से मना किया था। मगर ईश्वर ने अपने लोक मे आने का हर द्वार तब तक के लिये बन्द कर दिया था जब तक हम उसकी दी हुयी आयु को जी नही लेते।  सच कहूं तो हममें से कोई भी आत्महत्या नही कर सका है, मृत तो सिर्फ शरीर हुआ है, आत्मा तो अभी शेष है, और इस आत्मा को अभी अपनी भूलों का प्रायश्चित करना शेष है..........

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

मिश्रा जी .......................................


आज कई दिनों के बाद थोडी सी धूप निकली थी, पिछले पूरे एक हफ्ते से सूर्य देवता के दर्शन दुर्लभ हो गये थे। मई जून के महीनों में गर्मी जब अपने प्रचंड रूप में होती है तब बस यही लगता है कि इससे तो अच्छे सर्दी के दिन होते हैं और जब दिसम्बर जनवरी अपने पूर्ण यौवन के साथ आते हैं तब धूप की हल्की सी गर्माहट ऐसा ही आभास देती है जैसे किसी प्रियतमा को अपने प्रियतम के पत्र आने का इन्तजार हो और वो खुद ही आ जाय। मन बहुत आनन्दित हो रहा था। सोचा आज इस धूप का आनन्द लेते हुये कुछ लिखा जाय। रायपुर से दो बार मेल आ चुका था, उन्होने अपनी वार्षिक पत्रिका के लिये एक कहानी की मांग थी। पिछले वर्ष जब उनके पत्रिका के दस वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य मे आयोजित समारोह मे गया था, तब ही उन्होने कहा था , हमारे प्रत्येक वार्षिक संकलन को आपकी कहानी का सदैव इन्तजार रहेगा । मगर पिछले दिनो की सर्दी ने जैसे दिमाग में भी बर्फ जमा दी थी। कहानी क्या कोई विचार ही मन मे नही आ रहा था। कई बार सोचा अपने ही जीवन की किसी घटना को कहानीबद्ध कर देते है, मगर फिर इतनी सारी बातें एक के बाद एक याद आती जाती जैसे किसी सुदुर यात्रा में गंतव्य तक पहुँचने से पहले बहुत से छोटे बडे स्टेशनों को पार करना ही पडता है, कभी कभी कोई कोई बात जब याद आती तो अपने साथ कुछ देर के लिये ठहरने को मजबूर कर देती जैसे आगे बढने का सिगनल ना मिलने पर ट्रेन रुक जाती है ।
धर्मपत्नी जी दो बार चाय दे चुकी थी, तीसरी बार चाय मांगने पर चाय के साथ उनकी मधुर सी झिडकी का नाश्ते के रूप में मिलना तय था, सो चाय पीने की इच्छा को मन मे ही दबा लिया । तभी सामने से मिश्रा जी आते हुये दिखे,ऐसे लगा जैसे बिन मांगी मुराद पूरी हो गयी। अब तो चाय स्वयं ही आयगी जैसे घोर तप करने वाले तपस्पी के पास शिव जी आने को मजबूर हो ही जाते हैं।
मिश्रा जी जो हमेशा प्रसन्न रहने वाले व्यक्तियों मे से है, आज उनका मुख उस सूरज की तरह लग रहा था जिसे कोहरे ने घेर रखा हो, और वो उससे लड कर अपनी किरणों की आभा को संसार में फैलाने की अपनी पूरी कोशिश कर रहा हो । मैने कहा- मिश्रा जी क्या हुआ? क्यो आज खुश दिखने के लिये आपको कोशिश करनी पड रही है, बताइये तो बात क्या है?
मिश्रा जी एक कटे हुये पेड की तरह मेरे बगल में पडी हुयी कुर्सी पर बैठ गये। जो व्यक्ति कल तक साठ का होने पर भी पचास का भी नही दिखता था आज अचानक से सत्तर से कम का ना लगता था, मै सोचने लगा कि इन दस दिनों में ऐसा क्या हुआ जो इन्होने दस दिनों मे बीस वर्ष का समय पार कर लिये। मैं जानता था कि वो जिस व्यक्तित्व के मालिक है, उन्हे कोई सामान्य सी मुसीबते तो क्या कठिन बाते भी नही हिला सकती, वो ठीक उस बुजुर्ग बरगद के पेड की तरह थे, जो कितनी ही आंधी तूफानों को बडी सरलता से झेल जाता है। उनकी खामोश नजरें मेरे मन में कोतुहल और चिन्ता के ज्वार को आमंत्रित कर रहा था । कि अचानक उनके मौन नेत्रों के कोरों से एक अश्रु धार बह निकली। धीरे से मैने उनके कांधे पर हाथ रखते हुये कहा- भाई कुछ तो बताओ क्या हुआ ? तो जेब से रुमाल निकालकर आँखों को पोछते हुये बोले- अरे पहले भाभी जी से बता तो दो की एक नही दो कप चाय ले आये। फिर थोडा सा गम्भीर होते हुये बोले - नवीन तुमसे मेरे जीवन का कुछ भी तो नही छुपा, तुम तो जानते हो कि मैने या तुम्हारी भाभी कभी किसी से किसी भी चीज की आशा नही रक्खी। जो चाहा ईश्वर ने मुझे मांगने से पहले ही दे दिया। मगर आज एक ऐसे द्वंद में फंस गया हूँ जिससे निकलने का कोई रास्ता ही नही दिख रहा। अपने आप को जीवन मे पहली बार इतना बेबस और लाचार महसूस कर रहा हूँ। समझ नही आ रहा कि हम दोनो से कहाँ गलती हो गयी। हमे तो लगता था कि हम अपने दोनो बच्चो को अच्छे संस्कार दे रहे हैं। तुमतो जानते ही हो कि मेरी हैसियत से बहुत बाहर था रोहित को विदेश पढाई के लिये भेजना, मगर वो तो तुम्हारी भाभी ने जिद पकड ली कि चाहे जैसे हो उसको भेजना ही है , उसने अपने जेवरों तक का उसने लालच नही किया। फिर जब रोहित ने वही अपनी मरजी से जब शादी करने और वही रहने का निर्णय लिया तब भी हमने खुशी से और पूरे मन से उसकी बात को स्वीकार किया। उसके इस तरह शादी करने के कारण मुझे निम्मी के लिये लडका ढूंढने में कई बार दिक्कते भी आयी मगर हमने कभी ये रोहित पर जाहिर नही किया। और परसों मैने एक जगह उसका रिश्ता पक्का किया और जब रोहित को बताया कि लडके वालों ने दस लाख की डिमांड की है तो इससे पहले की मै कुछ और कहता - वो बोला पापा ये तो बहुत बडी रकम है, इतना इन्तजाम आप कैसे कर पाओगे, आप इतने सारे पैसे कि लिये बोल कर कैसे आ गये। आप प्लीज कोई और रिश्ता देखिये जो आप कर सको, और फिर अभी अपनी निम्मी की कौन सी ज्यादा उम्र हो गयी है आज कल तीस तो नारर्मल ऐज है। अब मै उससे क्या कहता कि तेरे बाप के पास बेटी की शादी तो क्या अपने क्रिया कर्म तक का भी पैसा नही। कैसे मैं निम्मी की माँ से ये कह दूँ कि अब ये रिश्ता तो क्या मै अपनी बिटिया का कन्यादान तक करने में सक्षम नही हूँ। कैसे कह दूँ निम्मी से कि उसके भाई को वो अभी तो क्या कभी बडी नही दिखने वाली या कहाँ से ढूँढ के लाऊं वो दामाद जो बिना दाम के मेरी बेटी को ब्याह ले। या कह दूँ रोहित से कि कुछ नही तो कम से कम उसे अपनी बहन की राखी का फर्ज तो निभाना ही पडेगा भले ही वो मातृ या पितृ ऋण से विमुख हो जाय। शायद मै किसी से कुछ भी नही कह सकता। और जब कुछ कह नही सकता, कर नही सकता तो फिर आखिर मैं जी ही क्यो रहा हूँ कहते कहते मिश्रा जी आकाश की ओर ऐसे तकने लगे जैसे शायद ईश्वर से भी अब उन्हे किसी जवाब की उम्मीद नही बची थी। शायद तभी तो सूरज ने भी खुद को बादलों की ओट में स्वयं को छुपा लिया था। मेरे पास भी कुछ कहने के लिये शब्द नही थे, बस यही सोच रहा था कि क्या वाकई हम लोगों ने अपने बच्चों को संस्कार देने में कोई कमी की है, या ये आज की आधुनिक प्रदूषित हवा का असर हैं! ठीक इसी समय श्रीमती जी चाय ले कर आ गयी, हम दोनो चुपचाप चाय पीने लगे, मगर अब सिर्फ चाय ही पी रहा था, क्योंकि चाय की इच्छा तो काफी पहले ही समाप्त हो गयी थी। 
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