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शनिवार, 31 मई 2014

बीज




आज बहुत साल बाद गाँव जा रहा था। सुबह का समय था, सो बस से उतर कर सोचा, घर तक पैदल ही चलता हूँ। गाँव की बहुत सारी कच्ची सडकें पक्की हो गयीं थीं। पतली पलती सडकों के दोनो तरफ लहलहाते खेतों से आती हल्की हल्की हवा, तन ही नही मन को भी ठंडक पहुंचा रही थी। पुराने दिनों को याद करता हुआ घर की तरफ जा रहा था कि तभी गांव का जूनियर हाईस्कूल दिखा, कभी ये एक खुली पाठशाला हुआ करता था। पेड के नीचे हम सारे साथी अपनी अपनी पट्टी और कलम ले कर आते और मास्टर जी हमे शिक्षा के साथ साथ जीवन के पाठ भी पढाते। काश उस समय ही ये हाईस्कूल होता तो पढाई के लिये गाँव ना छोडना ना पडता। 
अपने खयालों में खोया हुआ जा ही रहा था कि तभी किसी ने मुझे आवाज दी, मैने मुड कर देखा , मगर कोई दिखा नही। शायद मेरा ख्याल था कि किसी ने मुझे पुकारा। अभी दो कदम आगे बढा ही था कि फिर से वही आवाज सुनाई दी- गोविन्द इधर उधर नही नीचे की तरफ देखो। मैने नीचे सडक की तरफ देखा, ये आवाज एक गेंहूँ के बीज से आ रही थी। मैने झुक कर लगभग बैठ कर उस गेंहूँ के बीज से कहा- क्या हुआ? आपको क्या चाहिये? उसने कहा - कुछ नही, बस मुझे यहाँ से उठा कर उधर खेत में डाल दो। मुझमे अभी भी जीवन है, गाँव की मिट्टी तक पहुंचा दोगे तो मै फिर से पनप जाऊँगा। यदि यही सडक पर पडा रहा तो, किसी ना किसी के पैरो से या किसी गाडी के तले रौंदा ही जाऊँगा।
मै उसे उठाकर सडक के दायीं तरफ के खेत की तरह डाल ही रहा था, कि तभी मेरी नींद खुल गयी, मेरी श्रीमती जी मुझे जगा कर कह रहीं थी कि प्लीज हम उस बच्चे को घर ले आते हैं ना, वो कल से अपने घर के सामने पडा हुआ है, ठीक है हमे नही पता कि वो कहाँ से आया है, मगर क्या हम उसे जीवन नही दे सकते, क्या अपने घर के आंगन में आ कर उसे जीवन नही मिल सकता।
एक पल को फिर से दो मिनट पहले का देखा सपना आँखों मे तैर गया और अगले ही पल मै अपनी पत्नी के साथ अपने घर के दरवाजे की तरफ चल दिया। 

रविवार, 25 मई 2014

आह



आह खाली नही जाती, 
दुआ बेअसर नही होती,
भले और बुरे वक्त की 
कोई उमर नही होती॥

वो पीते है जाम शौक से, 
बेबसों के अश्कों का
उन्हे इल्म नही, 
बर्बादियों की खबर नही होती॥

दौलत मे है बरक्कत, 
सिर्फ नेक नीयत से
वरना चाँदनी किसी दर, 
हर पहर नही होती॥

फक्र ना कर उस असबाब पर, 
जो चार दिन का है
वक्त के सिवाय , 
किसी की सदा कदर नही होती॥

वो लगा  रहे हैं कहकहे, 
महरूमों की सिसकियों पे
अन्जाने क्या जाने, 
गुनहगारों की सहर नही होती

ना हो उदास ऐ पलाश, 
देख बुलंदी तू गुनाहो की
जुर्म की तबियत पे कभी
रहमत की नजर नही होती॥


*सहर = सुबह, असबाब = सामान

शनिवार, 17 मई 2014

मन की चाह



जीवन की आपाधापी में
मन ढूँढ रहा सुकूं के पल
चाह रहा इक ऐसी राह
जो हो अविरल,निर्मल, निश्छल

आयाम बहुत हैं जीवन के
आराम कही मिलता ही नही
थक जाता, मन कभी-कभी
पर जरूरतें तो मिटती ही नही

अब चाहत कुछ वो करने की
ना तन टूटे, ना मन बिखरे
मिट जाये चाहे सब मेरा
जीवन अमिट मेरा निखरे

सर्वस्व समर्पित करती हूँ
जीवन के महासमर को मै
बाधायें कितनी भी मुश्किल हो
मन विजयी करना ही है

रविवार, 4 मई 2014

कुछ कहना है ...............


बेटा, जरा ध्यान से सब काम देखना, तुम तो जानते ही हो ये मजदूर लोग जब तक इनके सामने रहो काम करते हैं, वरना तो बस राम ही मालिक। तुम्हारी माँ भी अकेले सब नही कर सकती, और मेरी छुट्टियां खतम हो चुकी हैं। फिर ये तुम्हारा ही तो घर है अपने हिसाब से काम कराओ, ये ही तो उम्र है सीखने की। पापा मुझे आपसे कुछ बात करनी थी, निखिल ये बात बहुत मुश्किल से और बहुत धीमे से कह पाया था, मगर पिता जी ने उसकी बात की गम्भीरता शायद नजरंदाज कर दी थी, या उन्हे ये समझ ही नही आया था कि परेशानियों का उम्र से कोई नाता नही, किसी को भी हो सकती है, वो बोले बेटा अगली बार आऊंगा तो बात करूगां, जो चाहिये हो अपनी माँ से कह देना।
पिता जी के जाने के बाद, निखिल जी जान से घर बनवाने में दिन भर जुटा रहा, वो अपनी परेशानियों को सोचना भी नही चाहता था, मगर शायद ऐसा होता नही। दिन मे तो व्यक्ति अपने को काम में उलझा कर कुछ देर के लिये अपनी परेशानियों से मुंह मोड लेता है, मगर रात के सन्नाटों में जब वही अपने विकराल रूप में सामने आ जाती है, तब आँखे मूंद लेने पर भी नजर आती हैं।
निखिल को कुछ समझ नही आ रहा था क्या करे, आज उसे अकेले होना बहुत बुरा लग रहा था, सोच रहा था, अगर कोई बडा भाई या बहन होती तो शायद वो अपनी बात कह कर मन का बोझ तो हल्का कर लेता, उसका कोई ऐसा दोस्त भी तो नही। उसे थोडा सा गुस्सा अपनी माँ पर भी आ रहा था, कभी उन्होने उसे किसी के साथ ज्यादा घुलने मिलने ही नही दिया। फिर माँ से भी वो कुछ कह ही नही सकता था, वो तो उसे जरा सा एक कांटा चुभ जाने पर भी ऐसे व्याकुल हो जाती थी मानो दुनिया की बहुत बडी आपत्ति आ गयी हो, रो रो कर बुरा हाल कर लेती थी, सलाह देने लगती थी - बेटा अब उधर से फिर ना जाना, और ना जाने किस किस तरह से समझाती।
उसे याद था, एक बार जब माँ बीमार थी और उससे चाय बनाने को कहा था, चाय लाते समय जाने कैसे कप उसके हाथ से गिर गया था, और हाथ जल गया था, उस दिन का दिन था और आज का दिन है माँ ने उसे कभी किचेन में एक काम नही करने दिया।
फिर जब आज वो सचमुच ही बडी आपत्ति मे था, तो कौन था जो उसकी मदद करता, एक मात्र पिता जी से ही आशा थी, तो उनके पास भी पुत्र के लिये समय नही था।
बिस्तर पर लेटा निखिल धीरे धीरे घूमते सरकारी पंखे को देख रहा था । जो हवा कम ध्वनि ज्यादा दे रहा था। इतनी आवाज थी कि रोते निखिल को अपनी ही प्रतिध्वनि सुनाई नही दे रही थी। मगर ना जाने कैसे उसने अपने मन की बात सुन ली । मन ने कहा निखिल तुम्हारे पास मरने के सिवाय कोई और रास्ता नही। फिर तो ये बात उसके कानों में तब तक गूंजती रही जब तक निखिल ने अपने मन की बात मान नही ली।
सुबह कमरे में निखिल की माँ को सब कुछ वैसा ही मिला जैसा मिला जैसा कल था, एक निखिल को छोड कर। पिता और माँ के पास कुछ भी नही था कहने के लिये, सिर्फ प्रश्न था कि आखिर क्यों निखिल ने ऐसा किया। पिता के कानों मे बार बार निखिल के शब्द सुनाई दे रहे थे " पापा मुझे आपसे कुछ बात करनी थी "

अब तो सिर्फ ईश्वर ही जाने कि वो क्या कहना चाह्ता था, मगर माथुर साहब जिस बेटे की धीमे से कही बात को उस दिन अनसुना कर गये थे, अब वो बात हर पल उन्हे एक चीख के साथ सुनाई दे रही थी, "पापा मुझे आपसे कुछ बात करनी थी"। वो लाख कोशिशों के बाद भी नही समझ पा रहे थे कि एक सत्रह साल के बच्चे को ऐसी क्या बात परेशान कर रही थी, कि वो आत्महत्या करने को मजबूर हो गया। अब उन्हे याद आ रहा था कि कैसे पिछले तीन दिनो से वो मेरे आगे पीछे घूम रहा था, वो मेरे आस पास था लेकिन मै उसे समझ नही पा रहा था, अपनी व्यस्तता के बीच कैसे मै अपने बच्चे की परेशानियों को नही देख पाया। क्या एक बच्चा जिस समस्या को अंतहीन समस्या के रूप मे देख रहा था, मेरे पास भी क्या उसका कोई हल ना होता। क्या माँ का प्यार उसकी ममता ने उसके पुत्र को उससे दूर कर दिया था, क्या वो ये समझ गया था कि माँ उसका सम्बल नही बन सकेंगी। ना जाने ऐसे ही कितने सवाल थे जो रह रह कर माथुर जी के जेहन में उठते थे और जवाब में सिर्फ आंसू के कतरे उनके ह्दय को भिगोते जाते थे।
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