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शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

क्यों पढती हूँ अखबार

हर सुबह इक आस लिये
पढती हूँ अखबार ।
शायद आज ना छपा हो कोई
हत्या लूट का समाचार ॥

हर पेज पर मिल जाता नित्य
दुखद खबरों का अम्बार ।
शेयर से भी तेज बढता जाता
देश में अब व्याभिचार ॥

मौन खबरों में छुपी होती
चीख दर्द और हाहाकार ।
ताक पर धरे जा रहे
प्रतिदिन भारतीय संस्कार ॥

लड रहे संसद में नेता
बिखर रहे परिवार ।
पर आर्थिक पृष्ठ कहता
बढ रहा देश में व्यापार ॥

फिर भी यही आस लिये
पढती हूँ अखबार ।
शायद आज ना छपा हो कोई
हत्या लूट का समाचार ॥



चित्र के लिये गूगल का आभार

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

मुकद्दर की हकीकत


लाख हम चाहे हर सपना ,हकीकत बनता नही ।
जो मुकद्दर में न हो ,वो हासिल होता नही ॥

हालात कभी किसी के ,एक से रहते नही ।
कौन सा जख्म है , जिसकी दवा वक्त होता नही ।।

जिन्दगी में सिर्फ सुख मिलें, ये मुमकिन होता नही
अश्क के आये बिना तो ,खु्शियां भी पूरी होती नही ।।

जो मिला है हमें , वो भी कम तो नही ।
क्यों गिने वो जो , हाथ में आया ही नही ॥

अक्सर जो सोचते हैं, वो पूरा होता नही ।
और जो देता है खुदा, उसे हम सोच पाते ही नही ॥

माना मुड के देखने से वक्त को , मुकदर बनता नही
मगर मुकद्दर बनाने की खातिर बीता वक्त भूलना  कभी नही

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

एक भूली बिसरी याद

कल मै अपनी माँ को अपना एक ब्लाग पढ कर सुना रही थी , तभी उनको अपनी लिखी एक रचना जो उन्होने आज से करीब चालीस साल पहले लिखी थी , आधी अधूरी सी याद आयी । और बहुत कोशिश के बाद उनको वो थोडी सी याद आयी और थोडी उन्होने कल लिखी । ये मेरा सौभाग्य है कि हम अपनी माँ की भूली बिसरी गजल को अपने ब्लाग पर लिख रहे है  ..........

मालिक ने बनाया इंसा को
इंसा ने उसे मजबूर किया |
जब जी चाहा मचला कुचला
जब जी चाहा तब प्यार किया ||

जीने की तमन्ना हर दिल में
हर दिल में गुजारिश होती है |
जीवन के थपेडों को सह कर
मोहब्बत की ख्वाइश होती है ||
मालिक ने .................................

कहने को वफायें करते है
कुछ पाने को मैखानों में |
परदे के पीछे तो कुछ है
जानो उसको अनजानों में ||
मालिक ने.............................

पर सत्य कहे तो जीवन में
हर  पल है एक खजाने मे |
चाहो तो उसे बर्बाद करो
चाहे रखो तहखाने में ||
मालिक ने ............................

इक सीख हमारी भी सुन लो
जीवन को सजाओ सपनों में |
सपनों को फिर साकार करो
तुम सफल रहोगे इस जीवन में ||
मालिक ने ..................

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

ऐसा क्यों होता है इस देश में ??

जून की तपती धूप में
वो बना रही थी मकान |
अपने कलेजे के टुकडे को
दे कर कुछ टूटा समान ||

उन पत्थर के टुकडों से
वो खेल रहा था ऐसे |
उसके हाथों में आया हो
कुबेर का खजाना जैसे ||

पर हाय ये क्या हुआ
वक्त को ये रास ना आया |
काला नाग बन करके
बालक के सामने आया ||

नजर पडी माँ की नाग पर
और मालिक की उस माँ पर |
दौडी वो बच्चे की तरफ
और मालिक झपटा उस पर ||

एक ही पल में विधाता नें
कैसा संग्राम रचाया |
उस बेचारी माँ को
ऐसा कठोर पल दिखलाया ||

उधर नाग ने डसा जीव को
इधर मानुष ने मानुष को |
हतप्रभ थे  सभी देख वक्त की
ऐसी निष्णुर साजिश को ||

माना नाग से नही कर सकते
हम उम्मीदें मानवता की |
पर क्या ये उचित है कि तजे
इंसा मर्यादायें सब मानवता की ||

हाय ! बन क्यों जाता मानुष
इतना भीषण दानव |
क्या आने वाली पीढी कहेगी
कल सच में तुमको मानव ||

कैसे बन जाता है इंसा
हैवान इंसान के भेष में |
ईश्वर की इस धरती पर
ऐसा भी होता है इस देश में ||

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

ये भी किया जाय


फूलों से इश्क तो बहुत किया
अब काँटों से मोहब्बत की जाय ।
चाँदनी रात के आँचल में
सूरज की चाहत की जाय ॥

अल्लाह के सच्चे बन्दों की भी
कुछ देर इबादत की जाय ।
औरों को तो कह लिया बहुत
अब खुद से खुद की शिकायत की जाय ॥

जो कुछ पल की राहत दें
कुछ ऐसी शरारत की जाय ।
जैसी आजाद भगत ने की
वैसी एक और बगावत की जाय ॥

दुनियादारी की अदालत में
कुछ हंसी गुनाहों की वकालत की जाय |
बहुत हुआ जाना इतिहास की गलियों में
ऐतिहासिक बन जाने  की हिमाकत की जाय ||

फूलों से इश्क तो बहुत किया
अब काँटों से मोहब्बत की जाय ……………

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

बच्चे :ना भविष्य बनना हैं ना भगवान


हम अक्सर कहते रहते है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं मगर आज इस भविष्य का वर्तमान ही ……………………
अपना पेट भरने के लिये , 
कभी झूठे पत्तलों को चाटता हुआ दिखता है
तो कभी किसी की अमीर की , 
जेब काट कर भागता हुआ दिखता है
 कभी अपने कन्धों पर ,
खुद से ज्यादा बोझ ढोता हुआ दिखता है
कभी नन्हे हाथो से ,
सडकों पर सफाई करता हुआ दिखता है
कभी किसी कूडे के ढेर से ,
अनगिनत चीजें बीनता हुआ दिखता है
कभी प्लेटफार्म पर ,
चाय समोसे बेचता हुआ दिखता है

मै अपने देश के हर सभ्य , सुशिक्षित संस्कारी व्यक्ति से यह पूँछना चाहती हूं क्या यही उनके सपनें है। क्या सिर्फ अपने बच्चों को दुनिया की सारी खुशियां दे देने से हमारा दयित्व पूरा हो जाता है ? तब हमे फिर शायद सिर्फ यह कहना चाहिये कि हमारे बच्चे हमारा भविष्य है । क्यों कि शायद जिन बच्चों के माँ बाप नही उनका  तो खुद का ही कोई भविष्य नही होता है ,वो क्या देश का भविष्य बनायेंगें ? ये तो हम सबको सोचना होगा कि कही उनका भविष्य बिगडनें से देश का भविष्य ही ना बिगड जायें ? क्यों कि देश का भविष्य जिन गलियों में बसता है उसके एक किनारे पर ये लाचार और बेबस बच्चे है तो दूसरे पर हमारे आपके समृध बच्चे …..

बच्चे भगवान का रूप होते हैं यह हम सभी अपने मासूम बच्चों को देख कर कहते हैं और भगवान को प्रसन्न करने के लिये तो मन्दिर में फल फूल धन और ना जाने क्या क्या नही चढाते मगर वही मन्दिर के बाहर खडे एक मासूम से मगर गन्दे से बच्चे को कठोर झिठ्की से ज्यादा अगर कुछ देते है तो वो होता है थोडा सा प्रसाद । हे ईश्वर मै आपसे विनती कराती हूँ कि धरती पर सदा मूर्ति रूप में ही विराजमान रहना , तभी आपका भजन पूजन अर्चन वन्दन नित्य होगा , क्योकिं अगर आप एक सामान्य बालक के रूप में मन्दिर की चौखट पर बैठ जायेंगें तब तो शायद कोई आपको सूखी रोटी का भी भोग ना लगाये । क्योंकि धरती के प्राणी तुम्हारी मूर्ति की पूजा को ही सच्ची भक्ति और आराधना मानते हैं।
भारत की ऐसी दशा को देख कर तो यही पंक्तियां याद आती हैं


हाय ! ये कैसी प्रथा देश की कि
पत्थर को भगवान बनाया ।
और उस ईश्वर की अनुपम कृति का ही
 मोल समझ ना पाया ।
बच्चे होते रूप ईश्वर का
ये तो प्रति पल दोहराया ।
पर  मिट्टी की मूरत में ही
सारा ध्यान लगाया । 
काश की सारे अनाथ बच्चे
भी पत्थर बन जाते ।
कभी तो मन्दिर में भगवान बन
थोडा सा भोग तो पा जाते ।



ये नन्हे बेबस बच्चे कहते
बिन गलती की ना हमे सजा दो । 
भविष्य नही भगवान नही
बस हमको भी इंसान बना दो ॥

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

कुछ ढूँढ रही हूँ

इस अंजान शहर में कोई अपना ढूँढ रही हूँ |
कुछ नही अपनी जिन्दगी का मुकद्दर ढूँढ रही हूँ ||

किसको फुरसत है जो पल भर साथ बैठ सके |
जो मेरे साथ चल सके वो डगर ढूँढ रही हूँ ||

खुशी के जश्न मनाने को तो लोग मिल ही जायेंगें |
समझ पाये जो मेरे गम वो नजर ढूँढ रही हूँ ||

ये सोच कर आये है लोग ना भूल सकें मुझको |
सुर्खियों में जो मुझे ला दे वो खबर ढूँढ रही हूँ ||

सुना है के ये शहर किसी को मायूस नही करता |
मेरी उम्मीदों को दे जो किनारे वो लहर ढूँढ रही हूँ ||

अक्सर खोई हुयी चीजें ही लोग खोजते है जहाँ में |
जिसमें खो दूँ मैं खुद को वो भंवर ढूँढ रही हूँ ||

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

राष्ट्रकुल खेल २०१०


आज भारत इतिहास के पन्नों पर एक स्वर्णिम अध्याय लिखने की ओर अग्रसर हो रहा है।
पिछले दिनों देश कुछ विषम परिस्थितियों में रहा , पर देशवासियों ने जिस समझदारी का परिचय दिया उसके लिये मैं तहेदिल से हर भारतीय का शुक्रिया अदा करती हूँ । राष्ट्रकूल खेलों को सफल बनाना हम सभी की जिम्मेदारी है ।
मै ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि वो इस आयोजन को सफल और यादगार बनाने की हम सबको हमारी दुआ कुबूल करें ।
खेल में भाग लेने वाले सभी खिलाडियों को हमारी शुभकामनायें ।

आज कुछ कर दिखाने का फिर से वक्त हाथ में आया है
दुनिया में परचम लहराने का समय फिर से आया है
भारतीय क्या होते है बतलाने का वक्त फिर से आया है
खेल खेल कर विश्वविजयी बनने का समय फिर आया है


ये खुदा प्रार्थना आप हमारी स्वीकार करें
हे ईश्वर दुआयें आप हमारी मंजूर करें
भारत को इक नयी ऊँचाई पर हमें पहुँचाना है
हम करें ऐसा की हर कोई हम पर गुरूर करे ।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

शब्द की शक्ति- The Power of Word


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी



बस शब्द ही रह जायेंगें
जब हम जहाँ से जायेंगें
जब भी करेंगें याद वो
मेरे शब्द ही दोहरायेंगें

इसलिये तो कहते हैं आपसे
सदा सोच कर ही बोलिए
जो शब्द तीखे हों तीर से
वो बात मुख से न बोलिये

नेता हो या अभिनेता हो
कविवर हो या विधार्थी
विजयी बनेगा जग में तब
जब शब्द बनेंगें सारथी


शब्दभेदी बाण से ही तो
पृथ्वी ने गौरी को था मारा
शब्दो के मायाजाल से ही
सावित्री से यम था हारा

शब्द है इक ऊर्जा
जो नष्ट ना होगी कभी
शब्द की महिमा के आगे
नतमस्तक हुये है देव भी

माँ का कभी आशीष बन
जीवन को देते सफलतायें
और कभी सब खाक करतें
बनके गरीब दुखियों की हाय


इसलिये तो कहते हैं आपसे
सदा सोच कर ही बोलिए
जो शब्द तीखे हों तीर से
वो बात मुख से न बोलिये
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