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बुधवार, 26 दिसंबर 2012

अनुतरित क्यों


जून की भीषण गर्मी अब व्याकुल करने लगी है , शिशिर ने निश्चय किया कि आज वो पक्का ही कुछ दिन के लिये आफिस में छुट्टियों की अर्जी दे देगा, और फिर काफी समय से निशान्त से मिला भी तो नही, कितनी ही बार तो वह बुला चुका है, उसकी शादी में भी वो नही जा सका था। इसी बहाने कुछ दिन गर्मियां भी कट जायेगीं । और फिर असली आनन्द तो पहाडों में इसी समय है । आफिस जा कर उसने १० दिनों की छुट्टी ली, और वो मंजूर भी हो गयीं । उसने सोचा कि सीधी कोई ट्रेन तो है नही कानपुर से द्वाराहाट की , सो उसने हल्दानी तक बस से जाने का मन बना लिया ।

बस जैसे जैसे आगे चल रही थी, यादों के पन्ने उसे पीछे ले जा रहे थे । निशान्त जिसके साथ २४ घंटो का साथ था, आज वो उसके पास करीब सात साल बाद मिलने जा रहा है । बातें तो अक्सर हो जाती है , मगर देखे हुये एक जमाना सा हो गया । जिद्दी भी तो वो कितना है कितनी बार कहा- अपनी और भाभी जी की एक फोटो तो भेज दो तो कहता है , भाभी को देखना है तो आना पडेगा ।

निशान्त की शादी भी तो ऐसे हुयी थी जैसे चट मंगनी पट ब्याह । और फिर उस समय मैं ऐसी हालत में भी तो नही था कि जा सकता । ये और बात थी कि इसका कारण वो आज तक उसे नही बता सका था , और बताता भी क्या कि अचरा उसे छोड कर चली गयी है , दोस्त की खुशी को वह कम नही करना चाहता था ।

अचरा का जाना उसे जितना दुखी कर गया था उससे कहीं ज्यादा उसे आश्चर्य हुआ था । सब कुछ तो ठीक चल रहा था । अगली सुबह तो मैं उसके घर सबसे मिलने के लिये जाने वाला था , कि शाम को उसने अपनी एक सहेली से एक पत्र भिजवाया था , जिसमें बस इतना लिखा था - मुझे भूल जाओ, और अगर कभी भी मुझे प्यार किया है तो मुझसे कुछ भी मत पूँछना । मैने कभी अपने और अचरा के बारे में किसी को नही बताया था, हमेशा सोचता जब उसके घर वाले राजी हो जायेंगें तभी सबको उसके बारे में बताऊंगा । मगर जिन्दगी ने मुझे ऐसा मौका ही नही दिया । ये सब सोचते सोचते कब हल्द्वानी आ गया पता ही नही चला ।

बस से उतर कर मैने टैक्सी ले ली । पहले तो सोचा कि बिन बताये ही पहुँच जाता हूँ, फिर सोचा कि नही बता देना चाहिये । यही सोच कर फोन कर दिया ।

हैलो कहते ही फोन के दूसरी तरफ से जो आवाज आयी, उसको ना पहचान पाने की गलती तो मैं कर ही नही सकता था । मगर फिर भी, किसी तरह खुद को संभालते हुये मैने कहा - क्या मैं निशान्त से बात कर सकता हूँ उसने कहा - निशान्त तो अभी बाहर गये हैं , मैने कहा आप कौन बोल रही हैं , दूसरी तरफ से आवाज आई- मैं मिसेज निशान्त माथुर । आप कौन बोल रहे हैं ? मैने बिना कुछ कहे फोन रख दिया। आखिर कहता भी क्या , जिसे मैं उसके कहने के बाद भी नही भूल सका था , वो मेरे बिना कुछ कहे ही शायद सब भूल चुकी थी ।

मिसेज निशान्त कोई और नही अचरा ही थी । मुझे कुछ समझ नही आ रहा था, ऐसा लग रहा था कि बस चक्कर आ जायगा । वो सारे सवाल जो बरसों से खुद से किया करता था , फिर से मुझे परेशान करने लगे। बस ड्राइवर से इतना ही कह पाया - गाडी हल्द्वानी की ओर मोड लो ।

 

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

बेबस दिल्ली



दिल्ली - जिसे कभी दिल वालों की नगरी कहा जाता था, कब और कैसे इस शहर में बेदिल लोग आ कर रहने लगे और इस दिल्ली के दिल को इस कदर कुचल दिया कि आज दिल्ली का दिल सिसक रहा है और बेबसी से वक्त की ओर देख रहा है - कि कब इस धरती पर ऐसे पुत्र पैदा नही होंगे, जिनको जन्म देने का अफसोस उनकी माँओं को होगा ।

जरूरत आज सिर्फ ये नही कि ऐसे लोग जो इक स्त्री के दामन को दागदार करते हैं उनको क्या सजा दी जाय, जरूरत ये भी है कि उस मानसिकता को समझा जाय जो ऐसे लोगों के जेहन में पनपती हैं ।
स्त्री का पुरुष और पुरुष का स्त्री की ओर आकर्षण प्रकृति की एक सामान्य सी सौम्य सी प्रवत्ति है मगर जब इसमें विकृति आ जाती है तब यह प्रकृति के विपरीत होने लगता है। हमें इस बात पर गहन अध्ययन की आवश्यकता है कि इस सोच का अंकुर कैसे जन्म लेता है, कहाँ से इसे हवा पानी मिलता है और फिर कैसे धीरे धीरे यह बढती बढ्ती एक जहरीली बेल का रूप लेकर समाज के उस कोमल अंग को अपनी जकड में लेती है जिसके पास समाज को ना केवल जन्म देने की शक्ति है बल्कि जीवन का आधार भी है ।

हमें सोचना होगा, और जाना होगा उस काल में जिसे लोग राम राज्य कहते हैं । सूक्ष्मता से देखना होगा उस युग को, जब व्यक्ति का व्यक्तित्व मात्र धन दौलत सम्पदा या शक्ति से नही वरन आचरण से मापा जाता था । समाज में वही पूज्यनीय था जिसके लिये शुद्ध आचरण ही उसके जीवन का आधार था , और उस व्यक्ति का समाज में कोई स्थान नही होता था जो पतित था ।
समाज में आखिर आज ऐसा क्या हुआ कि नारी को देवी समझे जाने वाले देश में सिर्फ उसे भोग्या ही समझा जाने लगा । जिस देश में निष्प्राण सी नदी को भी देवी तुल्य माना गया , गाय को माँ के समरूप रक्खा गया, सम्पूर्ण देश को माता कहा गया । फिर कैसे और क्यों ये परिवर्तन हो गया कि अब पिता अपनी पुत्री में भी सिर्फ एक नारी के रूप को देखने लगा । जन्म दाता, संरक्षण कर्ता ही उसे अपना ग्रास बनाने लगा ।

कमी कहाँ है ??

कमी आई है जीवन के मूल्यों में, बदल गये हैं जीवन के लक्ष्य जीवन का आधार , विचार धारा , और उसका रूप ले लिया है असंतुष्टि ने ।

हमारे लिये मुश्किल नही है समाज से ऐसे दानवों को मिटाना मगर उसके लिये किसी को तो देव बनना होगा , किसी को तो आहवाहन करना होगा एक बार फिर से उस दुर्गा का जो सर्वनाश कर दे ऐसे दैत्यों का ।

सिर्फ अखबार के पन्नों पर चन्द रोज की खबर बना कर इस समस्या का हल नही निकाला जा सकता । स्त्री को सिर्फ दिलासा दिला कर उसके दर्द को कम नही किया जा सकता ।

समाज को सोचना होगा और मानना भी होगा कि यदि स्त्री कोमल है तो यह उसकी कमजोरी नही , उसकी शक्ति है , और जब यह शक्ति प्रचंड रूप लेती है तो यह फूल से फूलन भी बन जाता है । जरा सोच कर देखिये यदि समाज में फूल से ज्यादा फूलन हो गयी तो , स्वयं को सामर्थ्य की धुरी समझने वाले पुरुष का वर्चस्व ही खतरे में पड जायगा , और परिणाम फिर चाहे कुछ भी हो , हारेगा तो जीवन की ही होगी क्योकि प्रहार भी तो जीवनदात्री पर ही किया जा रहा है

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

अरुणिमा भाग -२


आज आपको अपने जीवन के उस मोड पर ले चलती हूँ , जहाँ पहली बार उससे मिली थी बात करीब १८- २० साल पहले की है पिता जी हर साल गर्मी की छुट्टियों में हमे कही ना कही जरूर घुमाते थे ।और इस बार तो मै ८वीं में फस्ट आयी थी , तो वायदे के अनुसार इस बारहम रानीखेत घूमने आये थे हम लोग जिस होटल में रुके थे , वहाँ अरुणिमा के पापा माली थे ।वो भी अपने पिता जी के साथ दिन भर वही रहती थी और छोटे मोटे काम किया करती थी । दो ही दिन में वो मेरी बहुत अच्छी सहेली बन गयी थी। अक्सर वो मेरे लिये ताजे ताजे फल तोड कर लाया करती थी । जब तक मै खा ना लूँ खुद ना खाती कहती दीदी आप खा लो हम फिर खा लेंगे । आज पापा को किसी से मिलने के लिये जाना था , और माँ रूम में लेटी थी , और मै अरुणिमा के साथ गार्डेन में खेलने के लिये आ गयी थी । हम दोनो खेल ही रहे थे कि अचानक से दौडते दौडते हम मेन सडक पर आ गये थे कि मेरे सामने से एक मोटर निकली एससे पहले कि मै कुछ समझ पाते किसी ने मुझे एक धक्का सा दिया मै दूर सडक के दूसरी तरफ जा गिरी , मै तो बच गयी थी, मगर मुझे जिसने धकका दिया था वो नही बच सका था । वो  कोई और नही अरुणिमा के पिता ही थे , मुझे बचाते बचाते वो अपनी जान गवां चुके थे ।  मुझसे थोडी ही देर पहले ही तो उन्होने कहा था- बिटिया बस यही अंदर खेलना बाहर ना जाना, यहाँ सडक से बहुत तेज गाडियां निकलती हैं ।

अरुणिमा - पांच छः साल की लडकी जो दिन भर चिडिया की तरह पूरे बगीचे में फुदकती रहती थी, बिल्कुल बेजान पत्थर सी बने गयी थी । जब पिता जी ने उसके बाकी घर वालों के बारे में पता किया तो उन्हे मालूम हुआ कि उसके पिता के सिवा उसका कोई और नही था । फिर तो माँ और पिता जी उसको हमेशा अपने साथ रखने का निश्चय करके उसको अपने ही साथ ले आये थे ।

दुर्घटना तो एक घटित हुयी थी मगर भाव सबके मन में अलग थे । जहाँ एक तफर अरुणिमा का मन अपने पिता को खो कर दुखी था, मेरे मन में एक अपराध बोध आ चुका था, मुझे बस यही लगता था कि मेरे ही कारण ऐसा हुआ है, मैं ही अरुणिमा के दुख का कारण हूँ । अपना घर अपने पिता को खोने के बावजूद अरुणिमा ने ही मेरे मन से इस अपराध की भावना को कम किया था ।
क्रमशः ....... 

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

अरुणिमा


अरुणिमा , मेरी कहानी की मुख्य पात्र। मेरे जीवन का केन्द्र बिन्दु। जीवन के हर उतार चढाव की साथी।
बहुत समय से सोच रही थी कि अपने और उसके जीवन को कागज के पन्नों पर अंकित करूं, मगर हमेशा डरती थी कि कही ऐसा ना हो कि मेरी लेखनी उसके व्यक्तित्व के साथ न्याय ना कर सकी तो...
और फिर लिखने का ख्याल मन से हटा देती।
और फिर आज निर्णय ले ही लिया, वो भी उसके कहने पर । कितनी मासूमियत से उसने कहा था- जीजी आप तो इतना अच्छा लिखती हैं, कभी अपनी किसी कहानी में हमारा भी नाम लिख दीजिये, इसी बहाने हम भी छप जायेंगें । वो ये नही जानती थी कि मैं सिर्फ उसका नाम ही नही उसकी पूरी जिन्दगी को लिख देना चहती थी मगर कभी खुद को इस स्तर का अपनी ही नजर में नही पाती थी ।
अरुणिमा यूँ तो उम्र में मुझसे बहुत छोटी थी, मगर बाकी हर चीझ में मुझसे बडी थी, मुझे कोई भी परेशानी हो - छोटी या बडी , उसके पास हर परेशानी का कोई ना कोई हल जरूर होता था।
क्रमशः .........



गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

उधार की जिन्दगी... A Borrowd Life



रेल की पटरी पर ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार से दौड रही थी, और घोष उस पटरी पर अपनी जिन्दगी की रफ्तार को खत्म करने के लिये उस पर अपनी पूरी रफ्तार से दौड रहा था, कि विघुत गति से एक हाथ अचानक आया और वो पटरी से अलग आ गया।
घोष- आपने मुझे क्यों बचाया, मै जीना नही चाहता, मुझे मरना है, आप मुझे छोड दीजिये..
अजनबी- मगर मुझे आपसे कुछ चाहिये जो सिर्फ आपके ही पास है,
घोष- मगर मैं तो आपको जानता तक नही, और फिर मुझसे आप क्या लेना चाहती हैं
अजनबी- उधार की जिन्दगी, मुझे आपकी जिन्दगी चाहिये, बस कुछ दिन की, फिर आप शौक से मर सकते हैं,
घोष- उधार की जिन्दगी, जिन्दगी भी उधार में दी जा सकता है क्या....
अजनबी- जी हाँ , बिल्कुल दी जा सकती है।बस आज से आप ये सोच कर मत जीना कि आप जी रहे हैं आप आज से मेरे लिये मेरी दुनिया में जियेंगें
घोष- मगर आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं कि मै आपकी बात मानूंगा ही, मुझे जाने दीजिये मुझे मरना है
अजनबी- तो आप मान लीजिये ना कि आप मर चुके हैं, और ये आपका नया जन्म है....
घोष- कुछ देर चुप रहने के बाद , चलिये ठीक है मान लेता हूँ, बताइये मुझे कहाँ चलना है
अजनबी- आप मेरे साथ चलिये.....
फिर घोष बाबू, उस अजनबी के साथ रहने लगते हैं
चार महीने बाद..........
फिर वही रेल की पटरी है .............
अजनबी- घोष बाबू आज आप मर सकते हैं मगर जीते जी मैं आपका ये कर्ज नही भूल पाऊंगीं, आपने मुझे मेरे जीवन को एक गति दी है, आज आपसे मैं एक बात कहना चाहती हूँ , मुझे ब्लड कैसर है, उस दिन जिस दिन हमने आपको बचाया था, मैं अपना घर छोड कर यहाँ आयी थी, क्योकि मै रोज हर पल मरना नही चाहती थी, अपनों की आंखों में हर पल मौत का खौफ नही देखना चाहती थी, घर से निकल तो आयी थी , मगर रास्ते भर यही सोचती रही थी कि अकेले कैसे जियूंगीं, जिन्दगी अकेले जीने का नाम नही, प्लेटफार्म पर बैठे उस वक्त भी यही सोच रही थी, कि अचानक आप पर नजर पडी, और लगा था कि आप के साथ ये बाकी पल मैं जी सकती हूँ, आज आप सोच रहे होंगें कि आज क्यों मैने आपको मरने के लिये कहा, दरअसल मुझे कल से अस्पताल में एडमिट होना है , अब घर पर नही रह सकती, बाकी के बचे चंद दिन मुझे अब अस्पताल में ही काटनें होगें, अब मै चलती हूँ
एक के बाद एक ट्रेन निकल रही थी, मगर घोष बाबू के कदम पटरी की तरफ नही फिर से उस अजनबी की तरफ बढ गये, ये कहना मुश्किल था कि वो इस बार उधार देने जा रहे थे या उधार वापस लेने.......

शनिवार, 29 सितंबर 2012

संगम किनारे जन्मी एक प्रेम कथा...........


अब मुझे खुद पर ही गुस्साआ रहा था, आखिर मैने क्या सोच कर उससे मिलने के लिये हाँ कर दी थी, पाँच साल बाद अचानक उसका फोन आया था, और उसकी एक काल पर मैं मिलने को तैयार हो गयी थी, कहाँ गया था मेरा वो मान, कैसे भूल गयी गयी थी मैं उन सभी बातों को, 


सोचते सोचते मैं वक्त की नदी के उस छोर पर पँहुच गयी जहाँ अभिजीत से पहली बार मिली थी। उस दिन मेरा मूड कुछ खराब था, और जब भी ऐसा होता था मैं संगम की सीढियों में आकर बैठ जाती थी, उसकी लहरों को देखते देखते कब मेरे मन का दुख दर्द उसकी लहरें अपने में समेट कर ले जाती थी, मुझे पता ही नही चलता था। उस दिन भी मैं लहरों में खोई हुयी थी कि अचानक से वो आया , और बोला- मैम अगर आपको तकलीफ ना हो तो क्या आप अपनी कार से मेरे चाचा जी को अस्पताल पहुँचा सकती हैं, मैने नजर उठाकर देखा तो पास ही कुछ ऊपर की सीढी पर एक आदमी लेटा हुआ था , शायद उसको माइल्ड हार्ट अटैक हुआ था। बिना कुछ सोचे वक्त गवायें मैं बाहर की तरफ आ गयी, वो कुछ और लोगों के साथ अपने चाचा जी को लेकर पीछे की सीट पर बैठ गया। सिविल लाइन्स के नाजरथ हास्पिटल में उसको ले गयी, क्यों कि पिता जी वहाँ सीनियर डाक्टर थे । उस दिन के बाद फिर तो पता नही कैसे मुलाकातें होने लगी, और एक दिन अहसास हुआ कि अभिजीत मेरी जिन्दगी का हिस्सा ही नही, मेरी जिन्दगी है। पर इससे पहले की मैं या वो मुझसे अपनी बात कहता, संगम की लहरों की तरह ना जाने कँहा खो गया । और मैं बस खुद को ठगा सा महसूस करने के सिवा कुछ ना कर सकी । 

आज भी मैं उसी संगम के तट पर उससे मिलने जा रही थी, एक एक पल मुझे एक दिन से कम ना लग रहा था, लग रहा था कि काश उड सकती तो उड के पहुँच जाती, कीडगंज से संगम का रास्ता इससे पहले कभी लम्बा ना लगा था, एक मन कहता क्यों उसके बताये ठीक वक्त पर या उससे पहले पहुँचना चाहती हूँ , वो क्या कभी तुम्हारे बताये या कहे समय पर आया भी है, आज भी जाकर तुमको ही इन्तजार करना पडेगा जो पाँच साल पहले किया करती थी, मगर फिर भी गाडी की रफ्तार मैं कितनी तेज कर चुकी थी , ये तब पता चला जब बगल से निकलती कार से टकराते टकराते बची।

सरस्वती घाट पर किनारे कार लगाई और लगभग भागते हुये सीढियों की तरफ कदम बढाये, एक सरसरी निगाह से लगभग यही सोचते हुये देखा कि वो अभी नही आया होगा, मगर निगाहें उसे देखेते ही बस ठ्हर सी गयी, कदमों में ऐसा लगा जैसे किसी ने बेडियां डाल दी हो , दिल शताब्दी से भी ज्यादा रफ्तार से चल रहा था, मन में इतनी हलचल थी, कि शायद ही सागर के हदय में तब भी इतनी हलचल नही उठी होंगीं, जब सागर मन्थन हुआ होगा । अब तक वो मेरे सामने आ चुका था । मेरी तन्द्रा तब टूटी जब उसने कहा- कैसी हो लेखा? 

रास्ते भर कितना सोच कर आयी थी कि  चाहे कुछ भी हो जाय उसके सामने मैं अपनी किसी भावना को , किसी कमजोरी को प्रकट नही करूंगीं । दिखा दूंगीं उसको कि मैं उसके बिना भी खुश हूँ और पहले से कही ज्यादा । मगर दिल भी कब खुद को ही दगा दे जाय ये कोई नही जान सकता, उसके प्यार भरे एक वाक्य ने मुझे बिखेर कर रख दिया, आंखें छलक आयी, खुद को संभालते हुये बोली- अच्छी हूँ और तुम , आज यहाँ इतने लम्बे अरसे बाद ............ कुछ और कहना चाह रही थी मगर सारे शब्द गले में ही रुक कर रह गये। 

लेखा तुम्हारे सारे सवालों का जवाब देने ही तो आया हूँ, मुझे यकीन था तुम जरूर आओगी। और कहते ही उसने दो कागज मेरे सामने कर दिये । पहला कागज मैने खोला, ये तो मेरे पापा की लिखावट थी, ये क्या मेरे पापा ने उससे वचन लिया था- जब तक मैं डाक्टर ना बन जाता लेखा से किसी भी तरह का सम्पर्क नही करूँगा। और अगर मैने ऐसा किया या ये कहा कि मैं डाक्टर नही बन सकता तो आप अपनी बेटी के  भविष्य का कोई भी निर्णय लेने से पहले मेरा विचार नही करेंगें  और नीचे अभिजीत के दस्तखत थे। तभी मैने दूसरा कागज देखा ये थी उसकी डाक्टर की डिग्री। 

इससे पहले की मैं सोचती कि पापा ने मुझे कुछ क्यों नही बताया अभिजीत ने कहा- लेखा तुम्हारे पापा ने जो किया वो हमारी और तुम्हारी भलाई के लिये ही तो था। आज उनके कारन ही मैं एक इन्सान बन सका, वरना तुम ही सोचो क्या था मैं पाँच साल पहले। आज मैं इस लायक हूँ कि उनसे तुम्हे मांग सकूं, क्या तुम इस बीमार डाक्टर के दिल का इलाज करोगी डाक्टर लेखा......

मैने संगम की लहरों की और देखा, जो मेरे इस संगम की साक्षी बन रही थी, और उसकी कलकल की ध्वनि अपनी सहमति प्रकट कर रहीं थी ।





गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कह दो साथी मन की बात............


बीत गयी है आधी रैना
और बची है आधी रात
तोड के अब तो खामोशी
कह दो साथी मन की बात.............

 तेरी चंचल आँखों की तिरछी
चितवन में बसे हैं राज अभी
तेरी पायल की छमछम में
बसते जीवन के राग सभी
अब तो परिभाषित कर दो
जो दिल में हैं तेरे जज्बात

बीत गयी है...................

तेरी झील सी गहरी निगाहों में
अक्सर पाता, बिम्ब मैं अपना
तेरे नीरज से कोमल अधरों पे
बसता हूँ मैं ही, ये देखूं सपना
मरुभूमि से हदय पे, अब तो 
आकर कर दो प्रीत की बरसात
बीत गयी है...............

शनिवार, 22 सितंबर 2012

तो ना चल इश्क की राहों में..........


जो  सोचने को है कुछ अब भी

तो ना चल इश्क की राहों में

जो दुनिया का खौफ है अब भी

तो ना चल इश्क की राहों में

जो परेशां होना, देता सुकू नही

तो ना चल इश्क की राहों में

जो चाहत है सिर्फ खुशियों की

तो ना चल इश्क की राहों में

जो जज्बातों में है दुनियादारी

तो ना चल इश्क की राहों में

जो नैनों में नीर का सागर नही

तो ना चल इश्क की राहों में

जो नही यकी तुझे खुद पर ही

तो ना चल इश्क की राहों में

जो किस्मत आजमाने शौक नही

तो ना चल इश्क की राहों में

जो खुद को खोने का हौसला नही

तो ना चल इश्क की राहों में

 

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

एक गजल तेरे नाम............



हूँ जरा नादां मगर मैं जानती ये बात हूँ

तू मेरी पहचान है और मैं तेरी पहचान हूँ


हर घडी हर पल जो मेरे साथ चलता वक्त सा

लगती कभी उसके सी मैं लगता वो मेरे अक्स सा

दिल से उसको पूजती,जिसके दिल का मैं अरमान हूँ

हूँ जरा नादां मगर...


दूर जब उससे रहूँ, खुशबू सा तन मन में बसे

वो मेरी मुस्कान बन, अँखियों के दरपन से हँसे

प्रीत का दीपक है वो, मै दीप का अभिमान हूँ

हूँ जरा नादां मगर...





शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

व्याकुल मन



क्यो हो रहा इतना व्याकुल मन
ये कैसी उथल - पुथल है मन में
क्यों छा रहा बैचैनी का आलम
आखिर हुआ है क्या इस मन में

सोच रही पर पहुँच ना पाती
उलझी ग्रन्थियों की जड में
कोई अनचाही अन्जानी ताकत
निरंतर क्षीणता ला रही तन में

अखर रहा है व्याकुल हदय को
तेरा पास ना होना इस पल में
समेट ले जो मेरी हर उलझन
इतना सार कहाँ इस अम्बर में

बहती जाती हूँ बस नदिया सी
पीडा समेटे जीवन की लहरों में
पर ये दुर्गम राहें पार ना होती 
वरना खो जाती आ तेरे सागर में

रविवार, 26 अगस्त 2012

नारी - विश्व समाया है तुझमें



वो चूल्हे की आग में तपते हुये निखरता तेरा रूप
क्या मुकाबला कर सकेगी कोई विश्व सुन्दरी इसका
वो आँचल में बार बार लगना हल्दी, तेल, मसाले
बना देता है मामूली सी साडी में भी तुम्हे अप्सरा

तेरी मदमाती आँखों से लिपटता हल्का हल्का धुँआ
बना देता है और भी मदमस्त तेरे श्याम नयनों को
जब जब तेरे अधरों का स्पर्श पाती है टूटी फुकनी
मन देने लगता है उडान अपनी अधूरी कल्पना को

परोस कर लाती हो पसीने से लथपत चेहरा लिये थाली 
तेरी साधारण सी छवि में भी दिखता अलौकिक देवत्व
अपनी थकान को छुपाकर मुझे झलती हो जब झलना
पूजने लगता हूँ मन ही मन तेरा अनुपम व्यक्तित्व

जब जब देखता हूँ तुम्हे इक पहेली सी लगती हो तुम
तेरे एक कोमल से तन में बसे है ना जाने कितने रूप
बन जाती हो कभी तो तुम ममता की शीतल छाया
कभी तेजस्विनी ऐसी की फीकी पड जाती प्रचंड धूप


गुरुवार, 23 अगस्त 2012

मृगमरीचिका के पार

सात साल बाद अचानक वो आँखों के सामने यूँ आ जायेगा इस बात की तो कल्पना करना भी रचिता ने छोड दिया था, आज सानिध्य को अपने सामने देखकर उसे अपनी आँखों पर यकीन नही आ रहा था । मगर जिस हालात में वो दोनो एक दूसरे के सामने थे, चाह कर भी कुछ कहे बिना ही एक बार फिर अलग हो गये। रचिता उसे एक बार फिर एक सपना समझ कर भूलने लगी कि एक दिन उसके मेल बाक्स में सानिध्य का मेल आया । उसमें सिर्फ एक ही बात लिखी थी कि वो एक बार उससे बात करना चाहता है, अगर वो भी ऐसा चाहती है तो बस इतना बता दे कि क्या उसने अपना नम्बर बदला तो नही जो उसे वैसे ही याद है जैसे उसे अपना नाम। इन दो लाइनों को पढने के बाद रचिता के सामने बीते वो हर पल सामने आने लगे जिसकी यादों पर भी उसने पर्दा डाल दिया था, और खुद को वह यह समझा चुकी थी कि सिर्फ वो ही हमेशा सानिध्य को प्यार करती थी, मगर आज उसे ऐसा लगने लगा कि जैसे उसके प्यार का इम्तहान पूरा हुआ, वक्त ने ही अचानक उससे उसके सानिध्य को दूर किया था और आज उसको वो सब मिल जायगा जिसका उसको इतने बरसों से इन्तजार था । उसने बस मेल के उत्तर में बस इतना ही लिखा कि जो नम्बर तुम्हे याद है उसे हम कैसे बदल सकते थे।
मेल करने के थोडी ही देर बाद फोन की घंटी बजी, और उसके ही साथ रचिता की धडकने भी ।बात हुयी तो पता चला कि सानिध्य की अपनी पूरी दुनिया है, जिसमें उसकी पत्नी और उसकी बच्ची है, रचिता को बुरा तो नही लगा मगर वो यह सुन कर खुश भी ना हो सकी। मगर वो सानिध्य को दुबारा खोना नही चाहती थी। प्यार ना सही दोस्त बन कर तो वह उससे साथ तो पा ही सकती है, मगर कुछ दिनो बात करने के बाद रचिता को पता चला कि न सानिध्य के मन में भी रचिता के लिये वही भावनायें हैं जो रचिता के मन में थीं । रचिता अपना खोया प्यार पा कर बहुत खुश थी, वह अपने प्यार को पा कर यह भी भूल गयी कि जिस सानिध्य को वह प्यार करती थी, अब वह सानिध्य नही है, वह अब एक पति एक पिता है। मगर कुछ ही दिनों में रचिता को तो अपनी भूल  का अहसास हो गया पर सानिध्य की दीवानगी दिन पर दिन बढने लगी, जब भी रचिता उससे कहती कि वो सिर्फ उसका दोस्त ही है तो वह कहता नही तुम मेरी दोस्त नही मेरा प्यार हो, मेरा पहला प्यार और फिर रचिता उसके प्यार में कब खो जाती ये उसको भी नही पता चलता ।
पर आज रचिता ने निश्चय कर लिया कि वो सानिध्य के प्यार को ढुकरा देगी भले ही उसके लिये उसको अपना प्यारा दोस्त खोना ही पडे।मगर वह रिश्तों की इस उलझन में खुद को और सानिध्य को भी अब और नही उलझने देगी।
फिर तो जब भी सानिध्य का फोन आता वो अपनी पढाई का बहाना बना देती , हफ्तों ना उसको मेल करती ना उसका जवाब ही देती । इस तरह करते करते करीब तीन महीने निकल गये । रचिता को लगने लगा था कि इस तरह से वह सच्चाई से दूर नही रह सकती और ना ही सानिध्य के मन से अपने प्यार को मिटा सकती है ।
आज शाम कालेज से आने के बाद उसने सानिध्य को मेल की " आज हम बहुत खुश है , जब भी समय मिले मुझसे बात करना"। मेल करने के दो मिनट बाद ही सानिध्य का फोन आया ," तो आज मैडम जी को पूरे ९४ दिन बाद फुर्सत मिल गयी हमसे बात करने की, चलो हमारी याद तो आयी, रचिता तुमको मेरी याद नही आती थी क्या , कितनी मेल की तुमको तुमने एक का भी जवाब नही दिया, अरे हाँ अपनी बातों में मै तो भूल ही गया , तुम किसी खुशी की बात कर रही थी, बताओ क्या बात है हम भी तो खुश हों । रचिता ने जैसे ही कहा- सानिध्य मुझे प्यार हो गया है , तो सानिध्य ने कहा हम तो कब से आप से प्यार करते हैं हाँ बस आपसे सुनना चाहते थे, चलो आज आपने मान भी लिया, आज मै कितना खुश हूँ मैं बता नही सकता..... तभी रचिता ने बीच में रोकते हुये कहा- सानिध्य, मुझे प्रतीक सर से प्यार हो गया है । ये क्या कह रही हो रचिता ये कैसे हो सकता है, वो तो तुम्हारे सीनियर है ना, फिर उनका घर है बच्ची है, क्या तुमने कभी कहा उनसे , नही कहा तो कहना भी नही ये गलत है। सोचो उनकी पत्नी उनकी बच्ची को पता चलेगा तो वो तुमको कितना बुरा समझेंगीं । मै ये नही कहता कि तुम गलत हो, यार मान लिया कि फीलिंग्स आ सकती है मगर रचिता अभी अगर तुमने खुद को ना रोका तो बहुत गलत होगा, भावनात्मक रूप से भी और सामाजिक रूप से भी। तुम उनकी इज्जत करती हो ये अच्छी बात है मगर जिस प्यार की बात तुम कर रही हो उसका कोई भविष्य नही । मै कभी तुम्हारा बुरा नही सोचूँगा, और ये तुम भी जानती हूँ इसीलिये कह रहा हूँ । तुमको हो सकता है अभी मेरी बातें अच्छी ना लग रहीं हो , तुमको आज और कुछ दिनों तक थोडा दुःख भी होगा मगर यकीन मानो ये सब उससे बहुत कम होगा जो तुम्हे आगे दिखना पड सकता है अगर तुम प्रतीक के साथ रहती हो ।
तब रचिता ने कहा- सानिध्य यही तो हम कब से तुमको समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अब तुम्हारा हमारा एक साथ कोई भविष्य नही, जो प्यार हम तुमको करते थे वो तो उस दिन ही खत्म हो गया था जब तुमने अपनी दुनिया बसा ली थी, मगर जब-जब तुमको समझाने के कोशिश की तुम नही समझे , इसलिये हमे आज तुमसे ये सारा झूठ कहना पडा । सानिध्य हम आठ साल नही मिले तब भी तो तुम खुश थे ना, हाँ कभी कभी मेरी याद आती रही होगी । आज से हम दोनो ही उसी दुनिया में चले जाते है जिसमें पिछले आठ सालों से हम दोनो रह रहे थे।
अलविदा सानिध्य
प्लीज अब हमे ना फोन करना और ना ही मेल करना क्योकि शायद दुबारा मैं भी अपने मन को प्यार की इस मृगमरीचिका से बाहर ना निकाल पाऊँ ।


शनिवार, 11 अगस्त 2012

सभ्य समाज का छुपा सच



आज मै एक ऐसे शख्स से मिली, जो मेरी नजर में खुदा से कम नही मगर समाज उन्हे हिराकत भरी नजर से देखता है, कोई उनके साथ तो क्या आस पास भी नही रहना नही चाहता। आज सुबह जब मैं अपने घर के लॉन में बैढी अखबार पढ़ रही थी कि एक करीब ६० वर्ष की महिला आयी, मुझे लगा कि जरूर पैसे मांगने वाली होगी, मगर नही वो तो काम माँगने आयी थी, मैने कहा- अरे इस उम्र में क्या काम करोगी और मै पाँच रुपये देने लगी, जो अभी थोडी देर पहले टमाटर खरीदने से बचे थे और मैने पल्लू में बाँध लिये थे। कहने लगी - बिटिया कुछ काम पर रख लो, जो चाहे दे देना , मुझ बुढिया को चाहिये भी क्या, बस दो बखत की रोटी। मुझे लगा ये ऐसे पैसे नही लेने वाली मगर ऐसे कैसे काम पर रख ले, वो भी संजय से बिना पूँछे, मैने कहा - अम्मा ऐसा करो इस लॉन की घास निकाल दो। वो काम करने लगी, तो मैने कहा - अम्मा तुम्हारे कोई बेटा बहू नही है क्या जो इस उम्र में ऐसे काम ढूँढ रही हो , तो उसने कहा - अरे ये सब मेरा नसीब कहाँ , जब आज तक घर ही नही मिला तो बेटा तो बडी दूर की बात हो गयी, उसकी इस एक बात ने मेरे मन में हजारों सवाल खडे कर दिये,मैने कहा - आप ऐसा क्यों कह रही हैं, तो वो बोली- अरे हम तो नाच गाना करके कमाने खाने वाली हैं, जब तक उम्र रही हुनर का खाया मगर और अब तो ना उमर का जोर रहा ना पैसे का, दो रोटी के भी लाले पडे हैं, सारी जिन्दगी मेहनत का ही खाया अब भीख माँग कर नही खाया जाता , और मेरा कल जानने के बाद कोई अपने घर में मेरा साया पडने तक को मनहूसियत समझता है। अब तक मैं ये तो समझ गयी थी कि ये कौन है, मगर अब मेरे मन में नये प्रश्न जन्म लेने लगे कि आखिर क्यो इन्होने ये काम किया, मैने कहा अम्मा तो क्या तुम पैदाइशी से इसमें थी या.... मुझे बीच में रोकते हुये और कुछ याद करते हुये बोली - नही नही, पैदा तो मैं बहुत बडे खानदान में हुयी थी, उन दिनों मेरे पिता जी का बडा रुतबा हुआ करता था, हम लोग इलाहाबाद में रहते थे, बनारस गयी थी सबके साथ बाबा बिश्वनाथ के दर्शन करने, वही खो गयी , और ऐसी खोयी कि वापस कभी घर की दहलीज नसीब नही हुयी कहते कहते वो कहीं खो सी गयी, उनकी बात सुनते सुनते मेरी आँखों में पानी आ गया मगर उनकी आँखों मे नमी का कोई नामो निशान ना था, शायद वक्त की मार ने उनके आँसू भी उनसे छीन लिये थे, मैने कहा- तो आप कितनी बडी थी तब, अपना घर नही जानती थी क्या जो वापस नही जा पाई। आसमान की ओर देखते हुये बोली- सब तकदीर के खेल हैं, मैं तब करीब सात या आठ बरस की थी, घर वालों से मेले में अलग हो गयी थी, खडी रो रही थी, कि एक आदमी आया और कहने लगा कि यहाँ मत रो मेरे साथ आओ, उधर की तरफ कैंप लगा है वही सारे खोये बच्चे हैं वहाँ तुम्हारे पिता जी तुमको लेने के लिये आये होंगें, और मैं उअसके साथ चल पडी, ना जाने उसने मुझे क्या सुंघाया, कि जब आँख खुली तो बस अपने सामने तबले और घुंघरू ही देखे, बहुत कोशिश की निकलने की मगर रज्जो को नूरजान बनने से नही बचा पायी, और अचानक उनकी आँखों से पानी की वो धार बह निकली जो शायद बरसों से बादल बन कर कही रुकी हुयी थी, मैं उनके पास चली गयी, अम्मा कुछ बहुत बुरा याद आ गया क्या? तो कहने लगी , बुरा या भला ये तो दुनिया ही जाने, करीब वहाँ आने के तीन साल बाद की बात है, उस दिन जब मैं मुजरा कर रही थी तो सामने एक शख्स को देखा जिसको देखने के बाद मेरे पैर वही जम से गये, दिल जोर से धडकने लगा, और मन में नयी जिन्दगी की आस जाग पडी, पता है वो इन्सान कौन था वो मेरा अपना खून, मेरा भाई था, उस दिन एक पल को लगा कि धरती मैया यही फट जाओ और मैं समा जाऊँ, और दूसरे पल लगा कि शायद ईश्वर को मुझ पर दया आ गयी और मेरा भाई आज राखी का फर्ज निभाने आया है, मगर नही वो तो बस ये कह कर निकल गया कि हम सबने ये मान लिया है कि तुम मर चुकी हो, और तुम भी यही मान लेना, मरे हुये लौट कर नही आया करते।
उस दिन मेरे मन में एक ही बात आयी थी जो आज भी बस सवाल ही है कि जब एक रज्जो नूरजान बन सकती है तो फिर एक नूरजान रज्जो काहे नही बन सकी.............
और मेरे सामने अमीरन और उमरावजान की तस्वीर उभर आयी जो मैने बचपन में देखी थी.........


रविवार, 29 जुलाई 2012

राखी- प्रतीक भाई बहन के स्नेह का...........


रजनी सोच रहा हूँ इस बार राखी पर दीदी के लिये कोई अच्छी सी साडी ले आते हैं, क्यों तुम्हारा क्या ख्याल है। आप भी ना घर कैसे चला रही हूँ इसका तो कोई ध्यान नही बस आपको दीदी के अलावा कुछ सूझता ही कहाँ है? अब साडी का मतलब कम से कम हजार रुपये, अरे मै कहती हूँ जब १०१ से काम चल जाता है तो इस खर्च की क्या जरूरत, एक बार दे दोगे तो हर बार का ही हो जायगा और ज्यादा ही मन कर रहा है तो २०१ दे देना। फिर तुम्हारी दीदी भी आखिर क्या ले कर आती है वही बेसन के लड्डू वो भी घर से बना कर , बीच मे ही रोक कर अनय ने कहा, मगर वो ही मुझे पसन्द है तुम भी तो जानती हो मुझे और कोई मिठाई पसन्द ही नही, मगर रजनी कहाँ कुछ मानने वाली थी, हाँ ठीक है मगर मेरे लिये तो कुछ ला ही सकती हैं कह कर वो रसोई में चली गयी, और अनय बेमन से आफिस के लिये तैयार होने चल दिया । आफिस मे भी आज अनय का मन नही लग रहा था, सोच रहा था क्या फायदा इतने हाई पैकेज की नौकरी करने का, जो मै अपनी दीदी के लिये एक साडी भी नही खरीद सकता, वो दीदी जो हमेशा मेरी खुशियों के लिये पापा जी से छुप कर मेरे लिये बपपन में चाकलेट, बैट बॉल और ना जाने क्या क्या ला दिया करती थीं, मेरी हर छोटी छोटी खुशी को पूरा कर देती थीं, और सोचते ही सोचते उसने रजनी को फोन कर दिया - रजनी ऐसा करना दीदी को फोन कर देना कि कल राखी पर ना आयें, मुझे आफिस के काम से तीन दिन के लिये बाहर जाना है, हाँ मेरा बैग पैक कर देना मुझे तुरन्त ही निकलना होगा। मै कहूँगा तो शायद ठीक ना लगे, अब तुम ही बताओ आफिस का काम वो भी टूर छोडा तो नही जा सकता ना जिसमें चार पैसे बनने की उम्मीद होती है। आप चिन्ता ना करो मै दीदी से कह दूंगी । और फिर उसने दूसरा फोन अपनी दीदी को किया- दीदी इस बार राखी पर आप नही मै आ रहा हूँ , आप तो बस मेरे लड्डू बना दो । उसने घडी देखी ५ बजने वाले थे, फटाफट वो घर के लिये निकला , अभी उसको अपनी दीदी के लिये साडी भी तो लेनी थी और समय से घर भी पहुँचना था।

सोमवार, 23 जुलाई 2012

अनसुलझे उत्तर



तुम भी कमाल करती हो सुधा, एक हफ्ते से तुम अस्पताल मे हो और मुझको बताना जरूरी भी नही समझा , वो तो आज जब छुट्टियों के बाद मैं कालेज गया तब शिशिर ने मुझे बताया कि तुम बीमार हो । मुझसे अगर कोई गलती हुयी तो बता देती, आखिर किस बात की तुमने मुझे ये सजा दी  कहते कहते महिम का गला रूँध सा गया, आँखे छलक सी गयी । महिम तुमने कोई गलती नही की, प्लीज ऐसा क्यो सोचते हो , और फिर अगर मै अगर खुद को सभांल पाने की स्थिति में ना होती तो तुमको बुलाती ही,आखिर तुम्हारे सिवा और किसे बुलाती । तो तुमको लगता है कि इतने दिनों से तुम यूँ ही यहाँ एड्मिट हो , और मै बेकार ही तुम्हारी फिक्र कर रहा हूँ , और कहते कहते महिम कुछ नाराज सा हो गया, तो धीरे से सुधा ने महिम का हाथ थामते हुये कहा- महिम सच कहना क्या आधी रात अगर मै तुमसे कहती कि मै बीमार हूँ तो क्या वाकई तुम अपनी पत्नी को छोड कर मेरे पास आ पाते........... कहते  कहते उसने आँखे बन्द कर ली  मगर उसके हाथ की पकड इतनी मजबूत हो गयी थी जैसे कोई बच्ची अपनी नयी गुडिया को समेट कर सो जाती है , और महिम बस अपनी गुडिया को अपलक देखता रहा, क्योकि कहने के लिये शायद उसके पास भी कुछ नही था, और शायद सुधा को भी किसी उत्तर का इन्त्जार नही था, या शायद कुछ प्रश्नो के जवाब हो कर भी नही होते.............

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

जब से...............



हर चीज  खूबसूरत नजर आने लगी, जब से वो बसने लगे  मेरी निगाहों में,
मोहब्बत की रूह से रू-ब-रू हुये तब, जब कही हर बात उन्होने इशारों में।

देखा सुना पढा लिखा भी
यूं तो बहुत इश्क के बारे में....
मगर दिखा ना था अब तक
जो दिखता है अब हर नजारे में
हर बात भली सी लगने लगी जबसे, बसने लगे वो, मौसम के नजारों में,
मोहब्बत की रूह से रू-ब-रू हुये तब, जब कही हर बात उन्होने इशारों में।

महसूस हुआ है अब हमको
कितने तन्हा थे हम, खुद में
क्यो हुये ना थे खुश अब तक
जबकि खडे थे खुशियों के ढेरों में
क्या होता है साथ ये जाना, जब दो कदम साथ चले, सागर के किनारों में,
मोहब्बत की रूह से रू-ब-रू हुये तब, जब कही हर बात उन्होने इशारों में।

ना जाने कहाँ कैसे और कब
खो गया हर डर मेरे मन से
कुछ संवर गये, कुछ निखर गये
कहते है अब तो ये सब हमसे
दुनिया को सिमटते देखा , जब पाया खुद को, उनकी बाहों के सहारों में,
मोहब्बत की रूह से रू-ब-रू हुये तब, जब कही हर बात उन्होने इशारों में।

मंगलवार, 5 जून 2012

क्या लिखूँ -- दर्द या खुशी


चाहती हूँ हमेशा लिखना
वो जो औरों को खुशी दे
उन्हे कुछ पल अपने
हंसी अतीत में खोने दे

मेरे हर शब्द उन्हे लगे
बात अपने ही मन की
पढते पढते सोचने लगे
कहानी अपने ही मन की

मगर सदा सम्भव नही
होता औरों को हँसाना
अपने शब्दों के दर्पण में
किसी की तस्वीर बिठाना

भरा हो मन ही जब
पीर के पानी से
कैसे श्रंगार गाऊँ
कवित्व की बानी से

मगर नही छुपाना ही होगा
दर्द को किसी अलंकार मे
उलझाना ही होगा अश्कों को
शब्दों के भ्रमर जाल में

जैसे आँसू खुशी और गम
दोनो में ही आते है
देखने वाले मगर उसकी
अपनी अपनी परिभाषा बनाते हैं

वैसे ही लिखूँगीं कलम से
कुछ इस तरह के गीत
खुशहाल हो या जख्मी दिल
मिले उसे अपना ही अतीत

बुधवार, 30 मई 2012

तेरे आने के बाद


तेरे आने से पहले मेरी नींदें
ख्वाबों से बेजार तो ना थी
प्यार के अहसास से दिल
मरहूम रहा हो ऐसा भी ना था
मगर फिर भी तेरे आने से
लगता है सब बदल सा गया
अब ही से तो हमने किया है
शुरू अपनी जिन्दगी को जीना
सुबह तब भी निकलता था
सूरज पूरब से ही और
शाम को चाँद भी आकर
बिखेरता था चाँदनी अपनी
मगर फिर भी तेरे आने से
लगता है सुबह लाती है प्यार
चाँद की चाँदनी मे घुली
होती है सनम मोहब्बत तेरी
फूल पहले भी खिलते थे
भीनी भीनी सी खुशबू लिये
सावन भी आया करता था
हल्की हल्की सी फुहारें लिये
मगर कुछ तो है ऐसा जो
पहले महसूस ना हुआ कभी
जाना है तेरे आने से
किस बात की थी हमको कमी
नजर वही है, नजारे भी है वही
बस बदल गया है नजरिया तेरे आने से
राहें वही है , और हम भी है वही
बस मिल गयी मंजिल तेरा साथ पाने से
आज जाना और माना हमने
क्यों होता है इश्क इबादत
कैसे बन जाता है अजनबी
जिन्दगी और सांसों की जरूरत............

शनिवार, 5 मई 2012

इक ख्वाब खुली आँख का.......


आँखों में बसता है मेरे

आसमां का इक छोटा सा टुकडा

जिसमें देखती हूँ मै

खुद को उडते हुये

उस स्वच्छंद आकाश में

खुद को विचरते हुये

चंचल आतुर मन में

कुछ अनसुलझे सपनें लिये

ढूँढती हूँ बादलों के पार

अपनी आशाओं की इमारत

और तलाशती हूँ उसके

हर कोने में अपनी पहचान

तभी एक अनदिखा चेहरा

उरक सा जाता है बादलों के बीच

और फैला के बाहें, मौन निमन्त्रण दे

करता है कोशिश बांधने की

असमंजस में पड कभी उसकी ओर

कभी उससे दूर मै कदम बढाती

कभी मन मचलता है इस नये

अन्जाने बन्धन में बंधने को

कभी तडपता, विचलित हो जाता

दूर गगन से परे उड जाने को

मगर जितना भी उडती हूँ

आकाश विस्तृत होता ही जाता

और ठहरती जहाँ भी मुझे

खडा नजर वो ही आता

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

आखिर क्यों ये काफी नही .. Is the feelings are bounded by words?


क्या ये काफी नही कि तेरा मुझसे कुछ और नही दिल का नाता है

क्या ये काफी नही कि तुझ पर ही शुरू और खत्म होती है तलाश मेरी

क्या ये काफी नही कि मेरी खामोशी को तुम शब्दों में बदल लेते हो

क्या ये काफी नही कि मीलों की दूरी भी, हमे तुमसे दूर नही कर पाती

क्या ये काफी नही तेरे साथ इक साये सा हमेशा मेरा अहसास रहता है

क्या ये काफी नही कि तेरी आंखों मे चमक लाती है सफलता मेरी

क्या ये काफी नही कि मेरे हर उलझे सवाल का जवाब तुम ही हो

क्या ये काफी नही कि तुमपर ही आकर ठहरती है हर आरजू मेरी

क्या ये काफी नही कि अपनेपन की परिभाषा तुमसे ही तो बनती है

क्या ये काफी नही कि तेरी सांसों की आहटों मे बसी है धडकन मेरी

क्या ये काफी नही कि तेरी पलकों के आशियाने में बसते है सपने मेरे

क्या ये काफी नही कि दर्द की घडियों में इक चाह्त होती है सिर्फ तेरी

क्या ढाई लफ्ज जरूरी है हमारी मोहब्बत की इबारत लिखने के लिये

क्या इक रिश्ते का बन्धन ही कह सकेगा कि मै थी हूँ और रहूंगीं तेरी
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