क्यो हो रहा इतना व्याकुल मन
ये कैसी उथल - पुथल है मन
में
क्यों छा रहा बैचैनी
का आलम
आखिर हुआ है क्या इस
मन में
सोच रही पर पहुँच ना
पाती
उलझी ग्रन्थियों की
जड में
कोई अनचाही अन्जानी
ताकत
निरंतर क्षीणता ला
रही तन में
अखर रहा है व्याकुल
हदय को
तेरा पास ना होना इस
पल में
समेट ले जो मेरी हर
उलझन
इतना सार कहाँ इस अम्बर
में
बहती जाती हूँ बस नदिया
सी
पीडा समेटे जीवन की
लहरों में
पर ये दुर्गम राहें पार
ना होती
वरना खो जाती आ तेरे
सागर में
विरह की व्याकुलता को कहती सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहते जाना,
जवाब देंहटाएंकुछ पाने को,
सहते जाना।
बहुत खुबसूरत कोमल अहसास और सुंदर शब्द संयोजन.....
जवाब देंहटाएंव्याकुल मन की बेचैनी ने सुन्दर रची है रचना ।
जवाब देंहटाएंबहती जाती हूँ बस नदिया सी
जवाब देंहटाएंपीडा समेटे जीवन की लहरों में
पर ये दुर्गम राहें पार ना होती
वरना खो जाती आ तेरे सागर में
बहुत खुब.
कल 02/09/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बहुत सुन्दर कोमल भाव
जवाब देंहटाएंसे लिखी मनभावन रचना...
:-)
विरह वेदना की सुंदर अभिव्यक्ति.........
जवाब देंहटाएंखुबसूरत कोमल अहसास, कविताओं का सुन्दर खजाना है ब्लॉग
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सशक्त उदगार अपर्णा जी ....हर शब्द व्याकुल अपनी पीड़ा कहने को
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