प्रशंसक

बुधवार, 31 मई 2017

वो हंसी मंजर................


बडा हसीं था वो एक मजंर
कि कोई नजरों में बस रहा था
हमारी खातिर ही तुम बने थे
ये जर्रा जर्रा भी कह रहा था…………………………..

बडी अनोखी सी बात है ये
बडा ही मुश्किल है ये फसाना
कि जिससे हमने बनायी दूरी
वो मेरी धडकन में बस रहा था
हमारी खातिर ही तुम बने थे
ये जर्रा जर्रा भी कह रहा था…………………………..

वो कपकपाती सी सर्द रातें
वो तेरा ख्वाबों में आ के जाना
कि जिससे हमने नजर चुरायी
वो मेरी नजरों में बस रहा था
हमारी खातिर ही तुम बने थे
ये जर्रा जर्रा भी कह रहा था…………………………..

खुदाया तेरी है रहमते ये
तेरा करम जो हुआ है मुझ पर
कि जिसको हमने दुआ में मांगा
वो मेरे दिल में ही बस रहा था
हमारी खातिर ही तुम बने थे
ये जर्रा जर्रा भी कह रहा था…………………………..

बडा हसीं था वो एक मजंर
कि कोई नजरों में बस रहा था
हमारी खातिर ही तुम बने थे

ये जर्रा जर्रा भी कह रहा था…………………………..

शनिवार, 20 मई 2017

आधुनिक मानवता


ममी रोजी ने देखो आज फिर मेरी फेवरेट डॉल तोड दी कहते हुये रीना किचन में अपनी गोद में रोजी को लेते हुये आयी। रीना की बातों में शिकायत कम प्यार ज्यादा था। रोजी को भी अहसास हुआ उसने कोई नुकसान नही किया बल्कि अपनी शैतानी से रीना को खुश ही किया है  तभी बाहर से कुछ टूटने की आवाज आयी- रीना रोजी के साथ बाहर कमरे की तरफ आयी, जहाँ घर की नौकरानी की तीन वर्षीय लडकी कजरी ने मेज पर रखे ग्लास को तोड दिया था। ओह ममी ये तोड फोड तो अब रोज का ही काम बन गया है, कहते हुये गुस्से में रीना ने एक थप्पड कजरी के कोमल गालों पर दे दिया, ममी आप पता नही क्यों ये सब बर्दाश्त कर लेती हो। फिर नौकरानी की तरफ बढते हुये बोली- तुम जानती हो ये ग्लास का सेट कितने का आया था, ओह तुम कैसे जानोगी, तोडने से तो कीमत पता नही चलती न। ये तुम्हारे एक महीने की तन्ख्वाह से भी महगां है समझी। ऐसा है अब काम करने की कोई जरूरत नही। हमे सफाई के लिये नौकर चाहिये था न कि तोड फोड के लिये।
सहमी एक कोने में खडी कजरी जो कुछ देर पहले अपनी माँ के काम में हाथ बटाने की नीयत से मेज पर रखा ग्लास किचन में रखने जा रही थी, वो भी अपनी बाल बुद्धि से उस ग्लास की कीमत का मूल्य जानने की कोशिश कर रही थी। उधर उसकी रोती बिलखती माँ अपनी रोटी की मिन्नते करती रही फिर कोई आशा न देख अपने सारे दर्द को क्रोध बना कजरी को मारते हुये बोली- अरी करमजली जाने और कइसे कइसे दिन दिखाई दें तेरे कारन और फिर न जाने ऐसा ही क्या क्या कहते और कजरी को मारते हुये घर से चली गयी। 

तभी रोजी रीना की गोद से कब नीचे उतर कर चलने लगी पता ही नही चला, रीना का ध्यान तब गया जब वो टूटे ग्लास के टुकडों की तरफ बढ गयी। लगभग चीखते हुये से रीना बोली- कम रोजी कम हेयर, डोन्ट गो देयर, और रोजी अपने चारों पैरों से वापस रीना की गोद में आ गयी।

बुधवार, 17 मई 2017

वसुधैव कुटुम्बकम्- स्वप्र बनता सच



यू एस. ए. से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र हमहिन्दुस्तानीयूएसए मे ११ मई को प्रकाशित लेख को आप सबके साथ साझा करते हुये हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव कर रही हूँ। मेरी इस रचना को प्रकाशित करने के लिये प्रकाशन के संपादक श्री जय सिंह का हार्दिक धन्यवाद।




आज के समय में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो जीवन से परेशान न हो। आप सोचेंगे कि ऐसा तो हमेशा ही रहा है, कभी कोई अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हुआ, इसमें नया क्या है? नया है, नई हैं परेशानियां। बहुत अधिक नहीं, अगर आज से 30 वर्ष पहले के सामाजिक परिवेश पर हम नजर डालें तो समाज की जो तस्वीर हमारे सामने उभर कर आती है, उसमें व्यक्ति आर्थिक परेशानियों से जूझता तो नजर आ सकता था, मगर अकेला नजर नहीं आता था। उसके साथ दिखता था उसका परिवार, उसके मित्र और उसके आस-पास के लोग। आज हमारे पास कहने को तो दो-चार सौ या किसी-किसी के पास तो इससे भी कहीं अधिक मित्र हैं, मगर परेशानियों में हम खुद को अकेला ही पाते हैं। 
पिछले वर्षों के आंकड़ों पर यदि नजर डालें तो विश्व में 1980 की तुलना में 2017 में स्त्री के साथ दुराचार के मामलों की दर में 6 गुना अधिक वृद्धि हुई है। अपहरण के मामलों में भी दोगुना वृद्धि सरकारी कागजों में दर्ज की गई है। पारिवारिक कर्लह, आत्महत्या के आंकड़ें भी कुछ इसी प्रकार से हैं। यह भी वह समस्याएं हैं जो समाज के लोगों द्वारा समाज के लोगों के लिए बनी हैं। 
यहां उपरोक्त आंकड़ें दर्शाने का उद्देश्य मात्र इन समस्याओं का सांख्यकीय विवरण देना नहीं, वरन ऐसे कारकों को उजागर करना, जिसके कारण ऐसे आंकड़ें पल्लिवत हेते हैं। व्यक्ति और समस्याओं का गठबंधन अकल्पनीय नहीं, किंतु जब समस्याएं हमारे सामाजिक ढांचे को प्रभावित करने लगें तब निश्चित रूप से चिंतन की आवश्यकता बन जाती है। 
इस गिरावट का एक प्रमुख कारक है, वह है हमारी सोच का परिवर्तन। आज हम सबसे अधिक स्वयं के लिए सोचते हैं और उस सोच में भी अधिक प्रतिशित होता है भौतिक सुख-सुविधा का अर्जन। चरित्र निर्माण के बारे में सोचना भी चाहिए या तो ऐसा विचार मन में नहीं आता या समय कम पड़ जाता है। एक परिवार में एक छत के नीचे रहने वाले चार व्यक्ति भी विचारों से एक-दूसरे के साथ नहीं रहते अपितु उनके बीच एक-दूसरे को छोटा दिखाने की अनकही सी प्रतियोगिता रहती है। आज परिवार की भी परिभाषा बदल रही है-परिवार का अर्थ है पति-पत्नी और बच्चे। पहले परिवार में पड़ोसी क्या गांव तक शामिल हुआ करते थे, यह भेद करना मुश्किल था कि कौन किसका बेटा या भतीजा है। जब रिश्ते सीमित होंगे, तो जिम्मेदारी के भाव भी सीमित होंगे और वही से मन में अपने और पराए की परिभाषा का जन्म होता है। जो अपना नहीं उसके साथ बुरा व्यवहार करने में भी कोई संकोच नहीं आता। आज हमारे लिए हम ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं जबकि पहले लोग स्वयं के बारे में सोचते न हो, यह नहीं कहा जा सकता किन्तु लोग औरों के दुख-सुख में भी मन के साथ रहा करते थे। 
एक और बात जो आज समाज में देखने को अक्सर मिल जाती है वह है जिम्मेदारी के भाव का अभाव। सिर्फ धन अर्जन करना जीवन का एकमात्र लक्ष्य नहीं बन सकता, हमें यह भी विचार करना होगा कि धन अर्जन कहीं किसी के मन को दुख देकर तो नहीं हो रहा। आज बहुत ही कम लोग हैं जो ऐसा विचार कर अपना व्यवहार सुनिश्चित करते हैं। 
दूसरा कारण है अविश्वास। आज हम सिर्फ स्वयं से अधिक किसी अन्य पर विश्वास करना लगभग विलुप्त सा होता जा रहा है। एक तरफ लोग मन संकुचित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ इस बात से दुखी भी हैं कि लोग मन में आपके साथ व्यवहार नहीं कर रहे हैं। एक तरफ हम ही जिम्मेदारियों से बच रहे हैं, दूसरी तरफ जिम्मेदारियां ही हमें परेशान कर रही हैं क्योंकि भागीदारी खत्म सी हो रही है। हम सहभागी होकर काम करने से दूर हो रहे हैं, हम एकल होने की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। हमें परेशान देखकर यदि कोई स्वयं से आकर मदद के लिए हाथ बढ़ा दे तो भी एक मन सशंकित ही रहता है कि कहीं जरूर इसका कोई स्वार्थ होगा। 
तीसरा करण है- प्रकृति से दूरी। पिछले 2-3 दशकों में जिस तरह से विकास के नाम पर शहरों ने गांवों को लीलना शुरू किया, उसका परिणाम हमारे घरों तक भी पहुंचा। अब घर के आंगन में लगे नीम की जगह लेने लगे गमलों में शौक के लिए लगाए बौनसाई। प्रकृति से जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सीखा जा रहा है वो इन मल्टीस्टोरेज बिङ्क्षल्डगों की नींव में दब गया। अब न बरगद के नीचे चौपाल लगती है, जहां न जाने कितनी समस्याओं के हल निकाल लिए जाते थे न होते हैं बच्चों के खेल जो बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास करते हैं। अन्तोगत्वा परिणाम में दिखते हैं-टूटते घर, टूटते समाज। समाज में समयानुकूल परिवर्तन आवश्यक हैं, यह प्राकृतिक भी हैं, मगर अप्राकृतिक रूप से हुए परिवर्तन विकास नहीं विनाश की ओर ले जाते हैं। 
समाज की सबसे छोटी इकाई है परिवार, जब परिवार समृद्धि होंगे तो समाज निश्चित रूप से समृद्ध होगा। अभी भी समय है, हमें पुनॢवचार करना होगा, अपनी जीवन शैली को, अपनी सोच को और यथा संभव प्रयास करने होंगे। एक ऐसे समाज का निर्माण करने में जो जिसमें बसती है वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना।


शनिवार, 13 मई 2017

अतिथि देवो भवः


पिछले तीन महीने से दो चीजों की मार झेल रहा था-  बीमारी, और पैसा, एक और भी चीज है गर्मी मगर शायद उसको गिनाना उचित नही लग रहा, वरना आप लोग समझेगें की नाहक ही अपनी परेशानियां बढा चढा कर लिख रहा हूँ । मौसम की सबसे ज्यादा मार गरीब पर ही पडती है और इसे एक गरीब ही बेहतर समझ सकता है।
एक तरफ जहाँ दुनिया में सभी को छुट्टियों और खास कर इतवार का इन्तजार रहता मुझे लगता कि शनिवार के बाद यदि किसी भी तरह सम्भव हो सकता तो मै सोमवार ले आता। अरे नही नही ये ना समझिये कि मै अपनी पत्नी से तंग हूँ, सच तो यह था कि मैं घर आने वाले मेहमानों से डरता था, सभी समझते थे कि मै बहुत ठीक से रह रहा हूँ किसी को मुझसे मदद चाहिये होती थी किसी को मदद का वादा। और इधर तो जबसे मुन्ने की तबीयत क्या खराब हुयी सभी अपने को एक से ज्यादा हमदर्द बताने के लिये आते थे, मगर उनके आने से दर्द कम होता था या ज्यादा ये सिर्फ हम दो प्राणी ही जानते थे। अपनी छोटी सी कमाई से जैसे तैसे काम चला ही लेता था मगर इधर तीन महीनों से मेरी कम्पनी की हालत कुछ ठीक नही थी और क्म्पनी की इस हालात ने मेरी कमर तोड दी, ऊपर से  बच्चे की बीमारी और गर्मी। कितना सोचा था कि इस बार नया नही तो पुराने कूलर का जुगाड जरूर कर लूंगा मगर अरमान बस रात के सपने की तरह ही रहे। 
एक दिन श्रीमती जी ने कहा- सुनो मुन्ने को देखने अक्सर कोई ना कोई आया ही करता है और फिर इतनी गर्मी है तो खाली पानी देना जरा ठीक सा नही लगता, अब रोज रोज नीबू या कुछ मीठा तो लाया जा नही सकता अगर हो सके तो रूहाफ्जा की एक बोतल ला दो। 
मुझे श्रीमती जी की बात ठीक भी लगी। गाँव पास ही होने के कारण अक्सर कोई ना कोई आया ही करता था, और फिर सबके सामने गरीबी का रोना तो नही रोया जा सकता। मैने कहा ठीक है एक दो दिन में देखता हूँ ।
आज इतवार था, मगर आज उतना परेशान नही था, कारण था रूहाफ्जा की बोतल घर आ चुकी थी। अभी जैसे तैसे हम लोग खाना खा कर लेटे ही थे कि मुन्ने की दूर की बुआ यानी मेरी बहन ने दरवाजे पर लगी डोरबेल बजाने की जगह अपनी आवाज से ही काम लेना ज्यादा उचित समझा, और हमे दरवाजा खोलने से पहले ही अपने अतिथि की सूचना मिल गयी।
यहाँ मैं अपनी पत्नी के एक कौशल की तारीफ जरूर करूंगा, चाहे जितना दुखी हो या चाहे जितना सामने वाले को पसन्द ना करती हो मगर मिलती ऐसी आत्मीयता से थी बस सामने वाले के मन में यदि कही जरा सा भी जहर हो तो अमॄत बन जाय।
कोकिला दीदी हमारे गाँव के सरपंच जी की बेटी है, ना रूप गुण की राशि ना पढाई लिखाई पर सौभाग्य ऐसा की लखपति को ब्याह गयीं। हमारी श्रीमती जी किसी के धन बल पर रीझ जाय या सम्बन्ध व्यव्हार बढाये ऐसी महिला ना थी। और कोकिला दीदी के पास गर्व करने के पर्याप्त संसाधन ईश्वर ने जुटा दिये थे। सो आप उन दोनो के सम्बन्ध की मधुरता की कल्पना कर ही सकते हैं।
दो चार मिनट की वार्तालाप के बाद श्रीमती जी उठी और बोली- दीदी आपके लिये कुछ ठंडा लाती हूँ। और थोडी ही देर में वो दो ग्लास रूहाफ्जा ले कर आयी।
कोकिला दीदी मुँहफट है ये तो मै बचपन से जानता था मगर आज भी नही बदली इसका आभास नही था। ग्लास देखते ही बोली- क्या रे निखिल, तुमने अपनी बीबी को नही बताया कि तेरी दीदी को रुहाफ्जा बिल्कुल भी पसन्द नही। फिर थोडा नाटकीय अंदाज से बीते समय को याद करते हुये बोली - मुझे याद है तेरी शादी में भी टंकी का टंकी यही घोल दिया गया था, मगर चाचा तक को याद था कि उनकी बिटिया तो इसको हाथ तक नही लगा सकता तब कही से उन्होने मेरे लिये कोकाकोला की बोतल मंगायी थी।
मै उनकी बात का मतलब समझ रहा था, तुरन्त उठा और बोला- अरे दीदी, इसको बताया तो था मगर शायद बच्चे की बीमारी में याद ना रहा होगा, आप बताओ ना क्या पियोगी, वही कोकाकोला या कुछ और..। कुछ और नही तुम तो कोकाकोला ही ला दो।
बस मै अभी आया कह कर मेरा हाथ जेब में पडा जिसमें आखिरी पचास का नोट और मुन्ने की दवा का पर्चा थे। मन ही मन सोच रहा था कि यदि रूहाफ्जा पी ही लेती तो क्या बिगड जाता आखिर लोग कडवी दवाई कैसे पी जाते है फिर रूहाफ्जा इतना भी बुरा तो नही, टी वी पर भी तो एड आते हैं तभी मेरी निगाह अपनी पत्नी पर गयी जिसकी आंखों में मै साफ पढ सकता था – अतिथि देवो भवः

गुरुवार, 11 मई 2017

क्या कहिये




जो दिख रहा वो सच नही 
फिर अनदिखे को क्या कहिये 
हस रहे जख्म महफिलो में
गुमसुम खुशी को क्या कहिये

हर किसी ने हर किसी की
किस्मतों पर रश्क खाया
फिर भी आसूं हर आँख में 
तो नजरिये को क्या कहिये

दिल लगाया इसलिए कि
दिल को तो कुछ सुकून हो
दिल लगा सूकूं काफुर हुआ 
तो दिल्लगी को क्या कहिये

कुछ कर गुजरने की चाहत 
जगी तो वो नेता बन गए 
कुछ छोड, कर गुजरे वो सब
तो दिल्ली को क्या कहिये 

जीते जी वो मर गए जो
हो गये जिंदगी से खफा 
जिन्दगी फिर भी न रूठी 
तो जिंदगी को क्या कहिये

बुधवार, 10 मई 2017

छोटी नौकरी


उसे ना बहुत गोरी ही कहा जा सकता था ना ही सांवली। हाँ कद काठी ऐसी थी कि एक बार मुड कर देखे बिना रुका ना सके, और सबसे बडा उसका आकर्षण थे उसके नागिन से लम्बे सुर्ख काले बाल, जो लडकों के तो क्या लड्कियों तक के मुंह से उफ्फ निकलवा देते।
पिछले दिनों ही मेरे पडोस में रहने आयी और चंद ही दिनों में ऐसी दोस्ती हुयी कि लगता पिछले जनम में जरूर हम बहन ही रहे होंगें। एक कारण यह भी था कि जब से मेरी नौकरी का ट्रांसफर हुआ मै भी बिल्कुल अकेली ही थी।
कई साल की नौकरी में कभी हास्टल रही कभी पीजी मगर इस बार मन किया बिल्कुल अकेले रहा जाय। ऐसा नही था कि मैं अकेले किसी खास आजादी के कारण रहना चाह रही थी, मगर इतने सालों के बाहर रहने के अनुभवों में एक बात तो समझ आ गयी थी कि यदि अपनी सेहत और मन का खाना है तो अपने रसोई बनानी पडेगी, और फिर मकान लेने का एक और फायदा था कि जब चाहे घर से कोई आ जा सकता था। मगर बहुत जल्द अकेले रहने के नुकसान भी दिखने लगे, शुरु शुरु में तो खूब घर सजाया, खूब मन का बनाया, फिर धीरे धीरे ऑफिस की थकान घर तक आने लगी, और कई कई दिन मैगी और ब्रेड पर निकलने लगे।
अभी कुछ दिनों पहले जब पडोस में नैना रहने आयी तो लगा जिन्दगी अब कुछ मजे से कटने वाली है, और हुआ भी यही, यूं तो नैना उम्र में मुझसे चार पाँच साल छोटी थी मगर दो चार मुलाकातों में ही उसने साफ साफ कह दिया, हम दोस्त हैं ये दीदी वीदी हम तो नही मानने वाले, और मैने भी हंस कर उसकी दोस्ती को ही गले से लगाया।
नैना की बातों से ही पता चला कि पडोस में रहने वाले अग्रवाल जी की दूर की चचेरी बहन लगती है, और नौकरी ढूंढने के सिलसिले में यहाँ आयी है। उन दिनों मेरे ऑफिस में भी निविदा पर जगह निकली थी ये सोचकर कि शायद नैना का कुछ काम बन जाय, जब मैने उसको निकली हुयी जगह के बारे में बताया तो वो बोली- क्या तुमने भी मुझे इतना छोटा समझ लिया, ऐसी छोटी नौकरी थोडे ही करूंगी, ये ही करना होता तो अपना ही घर क्या बुरा था।
बात शायद नैना ने ठीक ही कही थी, मगर उसके कहने में जिस गर्व का मुझे अनुभव हुआ वो कुछ चुभ सा गया। कौन सा मैने उसको सारी जिन्दगी ये नौकरी करने को कहा था, मैने तो बस अपनेपन के नाते बताया ही था। खैर दिन जाते रहे, नैना को आये करीब दो महीने हो रहे थे, मगर अभी कुछ काम बन सका था। छोटी नौकरी वो करने को तैयार ना थी और बडी नौकरी उसे मिलती नही थी।
यूं तो रोज शाम को आने का उसका नियम ऐसा था जैसे सूरज का ढलना और चाँद का निकलना मगर आज जब दो दिन हुये तो मुझे चिन्ता होने लगी। सोच रही थी कितनी मूर्ख हूँ आज के मोबाइल के जमाने में भी उससे ना तो उसका नम्बर लिया ना अपना दिया। ऑफिस से काफी थकी थी सो आलस करके लेट गयी, सोचा आती ही होगी। रात भूखी ही सो गयी, सुबह फिर वही ऑफिस। आज ऑफिस में कुछ कम काम था सो दिन में कई बार नैना के बारे में ख्याल आया। सोचा शाम को आज मै ही घर जाऊंगी, मगर अचानक एक हफ्ते का ट्रेनिंग का प्रोगराम मुझे सौंप दिया गया क्योकिं जयंत (मेरे सीनियर) की वाइफ को अचानक दिल का दौरा पड गया था। इस भागमभाग में नैना कही खो सी गयी। मगर मुंबई जाने से लेकर आने तक के रास्ते भर बराबर नैना की याद आती रही। वापस सीधे ऑफिस रिपोर्ट करना था सो शाम को सीधे अग्रवाल जी के घर ही गयी, उम्मीद थी कि गेटे पर ही नैना मिल जायगी तो उसको घर लेती आउंगी, और फिर पूंछूंगी क्यो नही आयी इतने दिनों से, फिर मन में ही सोचा इतने दिन अरे आज मिला कर तीन दिन होते, सच जब किसी से रोज का ही मिलना हो तो एक एक दिन भी महीनों सा बन जाता है। डोर बेल बजायी तो अग्रवाल जी की मिसेजे ने गेट खोला, मिसेज अग्रवाल जिनकी ना तो ऐसी उमर थी कि उनको आंटी कहा जा सकता था और ना दीदी जैसी उनसे आत्मीयता कभी जुड सकी थी सो हमेशा आप से ही काम चला लेती थी। और आज तो उस आप का भी विलोप करते हुये सीधे बोली- कई दिन से नैना नही आयी, कही गयी है क्या?
मिसेज अग्रवाल ने मेरे उत्तर के प्रतियुत्तर में मुझे अन्दर आने का निमंत्रण देते हुये कहा- लगता है अभी सीधे ऑफिस से आ रही हो, देखो गरमी भी तो कितनी ज्यादा हो रही है, आओ अंदर आ जाओ। गरमी की बात सुनते ही मुझे भी अनुभव हुआ कि वाकई गरमी बहुत थी और शायद मेरे चहरे की थकन देखकर उन्हे पहले मुझे पानी देना ज्यादा जरूरी लगा होगा। एक ही सांस में पूरा ग्लास पानी पी गयी, शायद तभी उन्होने मुस्कराकर कहा- और लाऊं क्या। थोडा सा खुद पर झिझक भी हुयी, कि इतनी आतुरता से पानी पीने कि क्या जरूरत थी मगर शायद गरमी में सूखा गला नही समझ सकता था और वो सूखी मिट्टी में पडी बारिश की हर बूंद को सोखता चला गया।
खाली पानी के ग्लास को मेरे हाथ से लेकर मेज पर रखते हुये मिसेज अग्रवाल बोली- नैना अपने घर चली गयी है, चली गयी है क्या मतलब था इसका क्या अब उसको वापस नही आना था, क्या उसको नौकरी मिल गयी थी या घर में कोई समस्या आ गयी थी, कई सारे सवाल मन में ऐसे आ गये जैसे पटरी पर माल गाडी के डिब्बे पलक झपकते ही निकल जाते हैं, मगर मिसेज अग्रवाल बहुत ही संयत थी। कही मेरे सवालों को वह अन्यथा ना ले, मैने खुद को बहुत नियन्त्रित करते हुये पूंछा- चली गयी मतलब, उसको कही नौकरी मिल गयी क्या?
मन ही मन गुस्सा तो आ रहा था कि ऐसे भी कोई जाता है क्या, कम से कम मिल कर तो जाती, उसकी खुशी से मुझे बहुत खुशी होती, मगर गुस्से को मन में ही रखना उचित था। तभी मिसेज अग्रवाल ने कहा- नही नौकरी कहाँ मिली, वो तो हम सबको छोड कर जाने कहाँ चली गयी। उसका फोन उसका सामान उसकी डिग्री सब यही पडे हैं, दो तारीख की सुबह निकली थी, कह रही थी – भाभी आप सबको बहुत परेशान किया, अब नही करूंगी, आज चाहे जैसी नौकरी मिले छोटी या बडी कर लूंगी। आज पूरे तेरह दिन हो गये नैना का कही पता नही, ना कही से कोई दुर्घटना की खबर ना किसी रिश्तेदारी में। दो महीने पहले एक एक्सीडेंट में माँ बाप नही रहे थे, ये उसको अपने साथ ले आये थे, मै बेऔलाद क्या जानती थी कि मेरे नसीब में तो औलाद का सुख था ही नही।

उफ्फ कितना कुछ समेटी थी खुद में , कभी कुछ नही बताया, और मै समझती थी कि हम एक माँ से जायी बहन से हैं जिनके बीच कोई बात अकेली नही। तो क्या वो सिर्फ मुझे ही खुशी देने आयी थी। मन में सैकडों सवाल हर रात उठते हैं और दब जाते हैं। बस तब से लेकर हर शाम जब घर लौटती हूँ तो मन में एक ही आस रहती है वो कही से आ जाय, और मुझसे कहे- ऐसी छोटी नौकरी थोडे ही करूंगी। 
GreenEarth