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बुधवार, 17 मई 2017

वसुधैव कुटुम्बकम्- स्वप्र बनता सच



यू एस. ए. से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र हमहिन्दुस्तानीयूएसए मे ११ मई को प्रकाशित लेख को आप सबके साथ साझा करते हुये हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव कर रही हूँ। मेरी इस रचना को प्रकाशित करने के लिये प्रकाशन के संपादक श्री जय सिंह का हार्दिक धन्यवाद।




आज के समय में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो जीवन से परेशान न हो। आप सोचेंगे कि ऐसा तो हमेशा ही रहा है, कभी कोई अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हुआ, इसमें नया क्या है? नया है, नई हैं परेशानियां। बहुत अधिक नहीं, अगर आज से 30 वर्ष पहले के सामाजिक परिवेश पर हम नजर डालें तो समाज की जो तस्वीर हमारे सामने उभर कर आती है, उसमें व्यक्ति आर्थिक परेशानियों से जूझता तो नजर आ सकता था, मगर अकेला नजर नहीं आता था। उसके साथ दिखता था उसका परिवार, उसके मित्र और उसके आस-पास के लोग। आज हमारे पास कहने को तो दो-चार सौ या किसी-किसी के पास तो इससे भी कहीं अधिक मित्र हैं, मगर परेशानियों में हम खुद को अकेला ही पाते हैं। 
पिछले वर्षों के आंकड़ों पर यदि नजर डालें तो विश्व में 1980 की तुलना में 2017 में स्त्री के साथ दुराचार के मामलों की दर में 6 गुना अधिक वृद्धि हुई है। अपहरण के मामलों में भी दोगुना वृद्धि सरकारी कागजों में दर्ज की गई है। पारिवारिक कर्लह, आत्महत्या के आंकड़ें भी कुछ इसी प्रकार से हैं। यह भी वह समस्याएं हैं जो समाज के लोगों द्वारा समाज के लोगों के लिए बनी हैं। 
यहां उपरोक्त आंकड़ें दर्शाने का उद्देश्य मात्र इन समस्याओं का सांख्यकीय विवरण देना नहीं, वरन ऐसे कारकों को उजागर करना, जिसके कारण ऐसे आंकड़ें पल्लिवत हेते हैं। व्यक्ति और समस्याओं का गठबंधन अकल्पनीय नहीं, किंतु जब समस्याएं हमारे सामाजिक ढांचे को प्रभावित करने लगें तब निश्चित रूप से चिंतन की आवश्यकता बन जाती है। 
इस गिरावट का एक प्रमुख कारक है, वह है हमारी सोच का परिवर्तन। आज हम सबसे अधिक स्वयं के लिए सोचते हैं और उस सोच में भी अधिक प्रतिशित होता है भौतिक सुख-सुविधा का अर्जन। चरित्र निर्माण के बारे में सोचना भी चाहिए या तो ऐसा विचार मन में नहीं आता या समय कम पड़ जाता है। एक परिवार में एक छत के नीचे रहने वाले चार व्यक्ति भी विचारों से एक-दूसरे के साथ नहीं रहते अपितु उनके बीच एक-दूसरे को छोटा दिखाने की अनकही सी प्रतियोगिता रहती है। आज परिवार की भी परिभाषा बदल रही है-परिवार का अर्थ है पति-पत्नी और बच्चे। पहले परिवार में पड़ोसी क्या गांव तक शामिल हुआ करते थे, यह भेद करना मुश्किल था कि कौन किसका बेटा या भतीजा है। जब रिश्ते सीमित होंगे, तो जिम्मेदारी के भाव भी सीमित होंगे और वही से मन में अपने और पराए की परिभाषा का जन्म होता है। जो अपना नहीं उसके साथ बुरा व्यवहार करने में भी कोई संकोच नहीं आता। आज हमारे लिए हम ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं जबकि पहले लोग स्वयं के बारे में सोचते न हो, यह नहीं कहा जा सकता किन्तु लोग औरों के दुख-सुख में भी मन के साथ रहा करते थे। 
एक और बात जो आज समाज में देखने को अक्सर मिल जाती है वह है जिम्मेदारी के भाव का अभाव। सिर्फ धन अर्जन करना जीवन का एकमात्र लक्ष्य नहीं बन सकता, हमें यह भी विचार करना होगा कि धन अर्जन कहीं किसी के मन को दुख देकर तो नहीं हो रहा। आज बहुत ही कम लोग हैं जो ऐसा विचार कर अपना व्यवहार सुनिश्चित करते हैं। 
दूसरा कारण है अविश्वास। आज हम सिर्फ स्वयं से अधिक किसी अन्य पर विश्वास करना लगभग विलुप्त सा होता जा रहा है। एक तरफ लोग मन संकुचित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ इस बात से दुखी भी हैं कि लोग मन में आपके साथ व्यवहार नहीं कर रहे हैं। एक तरफ हम ही जिम्मेदारियों से बच रहे हैं, दूसरी तरफ जिम्मेदारियां ही हमें परेशान कर रही हैं क्योंकि भागीदारी खत्म सी हो रही है। हम सहभागी होकर काम करने से दूर हो रहे हैं, हम एकल होने की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। हमें परेशान देखकर यदि कोई स्वयं से आकर मदद के लिए हाथ बढ़ा दे तो भी एक मन सशंकित ही रहता है कि कहीं जरूर इसका कोई स्वार्थ होगा। 
तीसरा करण है- प्रकृति से दूरी। पिछले 2-3 दशकों में जिस तरह से विकास के नाम पर शहरों ने गांवों को लीलना शुरू किया, उसका परिणाम हमारे घरों तक भी पहुंचा। अब घर के आंगन में लगे नीम की जगह लेने लगे गमलों में शौक के लिए लगाए बौनसाई। प्रकृति से जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सीखा जा रहा है वो इन मल्टीस्टोरेज बिङ्क्षल्डगों की नींव में दब गया। अब न बरगद के नीचे चौपाल लगती है, जहां न जाने कितनी समस्याओं के हल निकाल लिए जाते थे न होते हैं बच्चों के खेल जो बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास करते हैं। अन्तोगत्वा परिणाम में दिखते हैं-टूटते घर, टूटते समाज। समाज में समयानुकूल परिवर्तन आवश्यक हैं, यह प्राकृतिक भी हैं, मगर अप्राकृतिक रूप से हुए परिवर्तन विकास नहीं विनाश की ओर ले जाते हैं। 
समाज की सबसे छोटी इकाई है परिवार, जब परिवार समृद्धि होंगे तो समाज निश्चित रूप से समृद्ध होगा। अभी भी समय है, हमें पुनॢवचार करना होगा, अपनी जीवन शैली को, अपनी सोच को और यथा संभव प्रयास करने होंगे। एक ऐसे समाज का निर्माण करने में जो जिसमें बसती है वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना।


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