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सोमवार, 28 नवंबर 2022

रामा

 

रामा आज सुबह से बहुत बैचैन थी। उसके मालिक ने उसे इस अवस्था में भी घर से निकाल दिया था। कल तक मुझे खिलाये बिन खाता न था, शाम को घर लौटते ही सबसे पहले मेरे पास आता था, मुझे सहलाता था। सारे घर को सख्त हिदायत थी कि मेरे खाने पीने में कोई कमी न रखी जाय। गांव शहर में फैले लंपी वायरस के कारण आज उसी सुखीराम और उसके परिवार  के बदलते व्यव्हार को रामा चुपचाप देख रही थी। फिर भी स्वप्न में भी उसने सुखीराम से ऐसी आशा न की थी। आज सुबह जब चराने के लिये सुखीराम ने अपने बेटे को मेरे साथ भेजा, तभी मेरे मन को शंकाओं ने घेर लिया था। थोडी देर बाद एक चौराहे पर मुझे खडा कर उसका बेटा हसीराम देखते देखते आंखों से ओझल हो गया। बहुत देर तक मै उसकी प्रतीक्षा करती रही, और जब उसके आने की संभावना लगभग शून्य हो गयी, मै घर की तरफ चल दी। अब समझ आ रहा था मै घर से कितनी दूर लाकर छोडी गयी थी। भूख प्यास से दम निकला जा रहा था। घर के द्वार बंद थे या संभवतः हमेशा के लिये बंद कर दिये गये थे, जो मेरी करूण पुकार पर भी न खुले।

मेरे अंदर पल रही जीवात्मा भी भूख प्यास से व्याकुल हो रही थी। मै मुड़ कर खाने की आस में चल दी कि शायद कही किसी घर के सामने रोटी पानी य कुछ और मिल जाय। मेरी आशा पूर्णतः निराधार न निकली कुछ देर तक चलते चलते मै एक ऐसे मोहल्ले में पहुंची किसके एक घर के बाहर पानी की हौद रखी थी। मैने पानी पी अपनी प्यास बुझाई तो भूख बलवान हो उठी। मै कुछ और आगे बढी तो एक दो घरों के बाहर रोटियां मिल गई। मै रोटी खा  सोचने लगी कि दिन ढलने को आ गया, मै अपने अंदर पल रही नन्ही सी जान जो दुनिया में किसी भी क्षण आ सकती है उसके लिये कुछ नही कर सकती थी। ऐसा सोच ही रही थी कि तभी मुझे मेरी पडोसन श्यामा अपनी बहन गौरी के साथ आती हुयी दिखी। मेरे पास आ, श्यामा सजल नेत्रों से बोली- बहन दिन में तुम्हारी करुण आवाज सुन रही थी, मगर कुछ कर न सकी, हम दोनो ही खूंटे से बंधी थी। मेरे घर के सभी लोग हम दोनो के भरोसे घर छोड, दूसरे गांव अपनी बहिन के घर कुछ काम से गये थी। बस अभी आकर उन्होने हमे खूंटे से खोला, तो हम भाग कर निकल आई और तुमको ढूंढने लगी। तुम चिंता ना करो, कान्हा तुम पर जरूर दया करेंगें। 

तभी पास से गुजरती हुयी एक अजनबी गाय आकर रुक गयी और श्यामा से बोली- बहिन क्या बात है कोई परेशानी की बात है क्या? श्यामा बोली- बहुन हम सब इस मोहल्ले में नई हैं, तुमको पता है क्या ये मोहल्ला कैसा है, फिर श्यामा ने रामा की स्थिति के बारे में सब कह सुनाया । सब कुछ सुन कामधेनू बोली- बहिन ये मोहल्ला और इस मोहल्ले के लोग बहुत अच्छे हैं, मै पिछले दो बरसों से यहीं हूं। इस अनाथ को यहीं के लोगों ने पाला हुआ है, इन दो बरसों में ऐसी एक भी रात नहीं हुई जब मैं भूखी ही सोई हुई हूं।  आज तुम सब भी यहीं रात गुजार लो। कामधेनू की बातों का विश्वास कर तीनों वहीं रुक गई। तभी कामधेनू की दो सखियां भी घूमते घामते आ पहुंची। रामा की स्थिति देख उन्होने भी उसको अकेले ना छोडने का निश्चय किया। 

रात के दूसरे पहर में रामा को प्रसव पीडा उठी, और थोडी ही देर में उसने एक नन्ही सी अबोध बछिया को जन्म दिया। सभी गायें यह सोच कर रंभानें लगीं कि शायद कोई अपने घर से निकल इस नन्ही सी बछिया और रामा की मदद कर दे। कामधेनू सही थी, मोहल्ले के कई लोग रात के एक बजे भी इन गायों की आवाज सुन घर से निकल आये। नन्ही सी बछिया को देख लोगो को यह समझते देर ना लगी कि यह नवजात बछिया है। कुछ ही देर में एक दो लोग गुड रोटी लाकर रामा को खिलाने लगी, एक ने आकर नन्ही बछिया को मोटे से बोरे से लपेट दिया। सभी गायें तो क्या मोहल्ले भर के लोग भी इस नवजन्मा को आशीष दे रहे थे।

रामा जो शाम तक अपने भाग्य को कोस रही थी, अब अपने भाग्य की सराहना कर अपने कान्हा को धन्यवाद दे रही थी और नन्ही सी बछिया भी अब तक खडी हो सभी का अभिवादन कर रही थी। 

रविवार, 27 नवंबर 2022

जरूरी तो नहीं

करीब रहने वाले अज़ीज़ भी हों, जरूरी तो नहीं

मुस्कुराते चेहरों तले, खुशियां पलें, जरूरी तो नहीं


दिलों जान से चाहना ही बस, आपके मेरे बस में

सिलसिले चाहतों के उधर भी हों, जरूरी तो नहीं


सह लेते हैं कुछ लोग, हर ज़ख्म हंसते हंसते भी

हाले दिल हम ज़माने को सुनाए जरूरी तो नहीं


अहसास ऐ बेगानापन काफी है, दिल डुबाने को

बुझे चिराग ही करें तीरगी मकां में, ज़रुरी तो नहीं 


लहज़े बातचीत के बता देते हैं, स्वाद रिश्तों का 

कड़वे अल्फाज़ ही कहे सुने जाय ज़रुरी तो नहीं 


कली गुलाब की काफी है इज़हार ए मोहब्बत को

महंगें गुलदस्तें हों वजह ए इकरार, ज़रुरी तो नहीं 


पलाश करती है कोशिश, अपनों को खुशी देनें की

उसकी हर इक कोशिश हो कामयाब, ज़रुरी तो नहीं 

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