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शनिवार, 29 नवंबर 2014

अधूरे स्वप्न


आज उम्र के साठ सावन देखने के बाद भी कभी कभी मन सोलह का हो जाता है, जाने क्या छोड आयी थी उस मोड पर जिसे जीने को मन बार बार व्याकुल है, जाने क्यो आज भी मन अतृप्त ही है, कितनी बार कितने तरीको से मन को टटोल कर उलट पलट कर देखा, मगर आज तक पा नही सकी उस खाली मन को, बस हमेशा एक हूक सी उठ जाती है, उस उम्र को जीने की।

      पता ही नही चला कब वो सब मुझसे छूट गया जिससे बनती थी मेरी परिभाषा। जाने कब मेरी आशाओं ने अपने को चुपचाप एक गठरी में बाँध लिया और ओ ली असीमित खामोशी की चादर।
      बारह साल की उमर जिसमें एक बचपन, लडके या लडकी की सीमा में नही बँधता, उसे तो दिखता है सिर्फ खुला आकाश जिसमें कभी वो पतंग उडाना चाहता है और कभी खुद उड जाना चाहता है। मगर आह रे मेरा भाग्य, ना मुझे आकाश मिला ना पतंग, सिर्फ डोर बन कर रह गयी, जिसे सबने तरह तरह से उडाया। जाने कितनो ने बाँधी इस पर अपनी हवस, लालसा, और वासना की पतंग। मेरे पिता ने मेरा भी कन्यादान किया मगर ये कन्यादान मुझे ससुराल नही बाजार ले गया, और मै दुल्हन की जगह बन के रह गयी एक बिकाऊ गुडिया।

      आज ये गुडिया, एक बुढिया बन चुकी है, समय चक्र ने मुझे उस जाल से तो निकाल दिया , जिसे मछली समझ कर कभी मुझ पर डाला गया था, मगर फिर भी नही निकाल सकी हूँ मन में बसे उस स्वप्न को जिसमें सारी दुनिया को अपनी डोर में बाँधे अपनी आशाओं की पतंग उडाती फिरती हूँ। कभी कभी पूरा जीवन ही एक ऐसा स्वप्न बन जाता है, जिसकी कोई सुबह नही होती।



गुरुवार, 20 नवंबर 2014

जाने कबसे


जाने कबसे इन आँखों में
तेरा ख्वाब सजाये बैठे हैं

बात करे, हम कुछ भी
तेरा जिक्र छुपाये बैठे हैं

जुल्फों की बदली में इक
सावन को बसाये बैठे हैं

हाथों की चंद लकीरों में
तेरा नाम लिखाये बैठे है

हथेली की हरी हिना में
खुशबू तेरी महकाये बैठे हैं

हर आती जाती सांसों में
तेरी आस लगाये बैठे हैं

पल पल बीत रहे लम्हों में
तेरी उम्मीद जगाये बैठे हैं

संग बिताये, चार पलों में
हम इक उम्र बिताये बैठे हैं

तनहा घनी अंधेरी रातों में
यादों के दिये जलाये बैठे हैं

क्या खबर तुझे, हम तुझमें
अपनी दुनिया बसाये बैठे हैं


शनिवार, 15 नवंबर 2014

थोडी सी धूप, थोडी सी बारिश दे दो


एक चीज मागूं
देखो मना मत करना
मुझे अपने हिस्से की
थोडी सी धूप दे दो 
चाहती हूँ उसमें
खुद को सेंकना
जिसमें तपा कर
तुमने खुद को
बना लिया है
कुन्दन
बनना चाहती हूँ
तुम सी
जानती हूँ
नही बन सकती तुम सी
फिर भी
एक कोशिश करनी है
तुझमें मिलना है मुझे
बन जाना है मुझे
तेरी परछाई
साथ चलना है बनकर
तुम्हारी हमकदम
बताओ क्या दे सकोगे मुझे
अपने हिस्से की धूप
बना सकोगे मुझे
अपनी छाया


XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX

सुनो, 
तुमने कहा था  एक बार
कुछ देने के लिये
आज मांगती हूँ,
मुझे चाहिये
तुम्हारी बारिश की 
चंद बूंदे
भिगोना है 
सूखा अतृप्त मन
उगानी है 
प्रीत की फसल
बंजर हो चली
आशाओं पर
देखनी है 
लहलहाती फसल
भावनाओं की
जिन्हे चाहिये
चंद बूंदे
तुम्हारी बारिश की

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

जिन्दगी ये तो ना थी..............


कभी कभी सोचती हूँ कि जो मैं जी रही हूँ , क्या इसी को जिन्दगी कहते है? क्या इसी जिन्दगी को मैने ख्वाब में देखा था, तब से जब से जिन्दगी को जीने की कोशिश की थी। क्या सच में इसी को कहानीकार, दार्शनिक, लोग जिन्दगी कह गये हैं? क्या मेरी भी जिन्दगी बस चंद सांसों की डोर में बंधी ऐसी मोती की माला है, जिसकी डोर का एक दिन टूट जाना तय हैं? मेरी भी जिन्दगी के मोती एक दिन बिखर जायेगें और रह जायेगी टूटी डोर........
ये तो नही था मेरा सपना, मेरी सोच, मेरी आशा, मेरा विश्वास, मेरे जीने का आधार, मेरी तमन्नायें। कितना कुछ सोचा था मैने उसके साथ, कितने सारे रंग थे हमारी जिन्दगी में, कितनी उमंगें थी, कितनी ख्वाइशें थी, कितनी उम्मीदें थी उन ख्वाबों में, कितनी तरंगें थी उन उम्मीदों में और कितनी ऊर्जा थी उन तरंगों में और हर एक तरंग मे थे तुम।
आज समझ आ रहा है कि सब कुछ तुम्हारे ही हाथों में तो था, शायद तभी तो तुमसे नाता छूटते ही सब छूट गया, और रह गयीं हैं सिर्फ सूखी सांसे, जिन्हे सुनती और गिनती रहती हूँ अपनी तन्हाई में। हाँ आज भी सांसो के साथ रह जाती है एक उम्मीद, काश कभी एक बार मिल सके तुम्हारा साथ और मिल सके मुझे एक बार फिर मेरा हर खोया हुआ सपना, मिल सकें फिर से जिन्दगी के रंग, वो रंग जो इस वीरान सी हो गयी जिन्दगी के अंधेरों में कही खो गये हैं। वो अंधेरा जिसमें मैं खुद को भी नही देख पाती, बस बनाती रहती हूँ आभासी आकृति अपने खोये हुये सपनों की।
अब तो मेरे पास उतनी सांसे भी नही जितने सपने तुमने दिये थे मुझे, एक अनमोल सौगात की तरह। बस एक बार आ जाओ और ले जाओ अपने वो सारे सपने जो तुमने एक दिन चुपके से मेरी आंखों में रख दिये थे। क्योंकि मुझे कोई अधिकार नही कि तुम्हारे उन सपनों को भी मैं अपनी वीरान सी जिन्दगी के अंधेरों के हवाले कर दूँ। एक सैलाब सा बसा है मेरी आँखों में, मगर रोक रखा है उसे, क्योकि डरती हूँ कि उसमें वो सारे ख्वाब बह ना जाये जो तुम्हारी अमानत हैं। डरती हूँ कही जीवन की माला टूट गयी तो तुम्हारे सपने भी ना बिखर जाये। फिर भला कौन दे पायेगा तुमको तुम्हारी अमानत, क्योकि दुनिया वालों को तो सबसे ज्यादा खुशी मिलती है ख्वाबों को जलाने में, कही मेरे साथ साथ तुम्हारे सपनों को भी अग्नि के हावले ना कर दे ये दुनिया।

बस एक बार आ जाओ , और ले जाओ अपने सारे सपने क्योकि................

रविवार, 9 नवंबर 2014

नपुंसक.................


आफिस के लिये चाहे जितना सोचो कि समय से निकल जाऊँ, मगर रोज कुछ ना कुछ ऐसा हो ही जाता है कि घर से निकलते निकलते देर हो ही जाती है, , और उस पर ट्रैफिक से दो - चार होना। बस एक शनिवार ही होता है जब थोडा सा ट्रैफिक कम मिलता है, कारण ज्यादातर आफिस बन्द होते हैं, 
आज घर से दस मिनट पहले ही निकल गया, लगा कि आज तो समय से आफिस पहुँच ही जाऊंगा, मगर ये क्या, लगता है अभी अभी कोई एक्सीडेंट हुआ है, लोगो ने जाम लगा रख्खा है। लोग भी ना, उनके पास जाम लगाने का तो खूब समय होता है, मगर ये नही कि उस व्यक्ति को अस्पताल पहुंचा दे, ताकि किसी की जिन्दगी और बहुत से लोगों का समय बच सके। जाम में फंसी गाडी में बैठे बैठे ख्याल आया कि मै ही देख लेता हूँ कि क्या हुआ है फिर मेरे आफिस के रास्ते में अस्पताल भी पडता ही है, मै ही पहुँचा देता हूँ । उतर कर थोडा आगे बढा और एक सज्जन से पूँछा - अरे भाई साहब क्या हुआ है , बोले अरे एक नपुंसक मर गया है। तभी कानों में और भी लोगों की बाते कानों से टकराई, कोई कह रहा था - अरे अब कोई इसी की बिरादरी का आये तो उठाये इसको, कोई कह रहा था - और क्या इसको उठा कर कौन बवाल में पडे, कोई कह रहा था- अरे आज कल का तो जमाना ही नही कि किसी पचडे मे पडे और फिर इन लोगों के बीच.......
जितने लोग थे, उतनी बातें थीं
मै सोच रहा था - जो व्यक्ति हमसे कोई रिश्ता नाता ना होते हुये भी, हमेशा से हमारी खुशियों मे बिना बुलाये ही शरीक होता है , हमारे बच्चों को दुआयें देता है, हमारे सुखी जीवन के लिये ढेरों आशीष देता है, जिसके लिये हम कहते हैं कि इनकी दुआ कभी खाली नही जाती, आज मरने के बाद उसकी ये स्थिति की सडक पर लावारिश लाश की तरह पडा - अपनी बिरादरी के चार लोगों का इन्तजार कर रहा है, शायद लावारिश से भी बुरी स्थिति है इसके, लावारिश की मदद के लिये तो शायद कोई आगे आ भी जाय, या पुलिस को ही सूचना दे दे, मगर इसके लिये तो वो भी नही होने वाला कि कोई इसके साथ वाले को ही सूचना दे। नपुंसक वो नही , नपुंसक है हम,  हमारा समाज, हमारी सोच, जो जीवित को तो जाति, धर्म और लिंग में बांटती ही है, आज ऐसी सोच ने एक मृत शरीर को भी नही छोडा।
और फिर मै उस भीड को चीरते हुये, उस मत शरीर की तरफ बढ गया, उसे अन्तिम यात्रा पर ले जाने के लिये.... 

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

इक पागलखाना चाहिये


जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

कोई बन्धन नही, रस्में नही
रीति नही, जाति नही
सफलताओं असफलताओं के
तराजू मे तौला हुआ इंसा नही
मन से मन मिल जाय
एक ऐसा पागल चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

अपने ही जहाँ अपने ना हो
पराये भी पर अपने से हो
अदृश्य सी दीवारे ना हो
बंधे हुये जहाँ सपने ना हो
बेफिक्र सी इस जिन्दगी को
पागल सा एक पल चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

जाने कितनी जंजीरों में
खुद को बाँधे हम रहे
जीते रहे सबके लिये
और खुद को ही खोते रहे
खामोश हो चले इस दिल को
पागल सी धडकन चाहिये     
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

ये भला है, ये बुरा है
ये है नही तुम्हारे लिये
ऐसे अनगिनत धागों से ही
उलझी जिन्दगी बुनते रहे
खोलने को मन् की ग्रंथियां
थोडा पागलपन तो चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये





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