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गुरुवार, 6 नवंबर 2014

इक पागलखाना चाहिये


जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

कोई बन्धन नही, रस्में नही
रीति नही, जाति नही
सफलताओं असफलताओं के
तराजू मे तौला हुआ इंसा नही
मन से मन मिल जाय
एक ऐसा पागल चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

अपने ही जहाँ अपने ना हो
पराये भी पर अपने से हो
अदृश्य सी दीवारे ना हो
बंधे हुये जहाँ सपने ना हो
बेफिक्र सी इस जिन्दगी को
पागल सा एक पल चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

जाने कितनी जंजीरों में
खुद को बाँधे हम रहे
जीते रहे सबके लिये
और खुद को ही खोते रहे
खामोश हो चले इस दिल को
पागल सी धडकन चाहिये     
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

ये भला है, ये बुरा है
ये है नही तुम्हारे लिये
ऐसे अनगिनत धागों से ही
उलझी जिन्दगी बुनते रहे
खोलने को मन् की ग्रंथियां
थोडा पागलपन तो चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये





8 टिप्‍पणियां:

  1. सच में कितने बंधनों में बंधी हुई है ज़िंदगी...बहुत सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति...

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  2. "खोलने को मन् की ग्रंथियां
    थोडा पागलपन तो चाहिये..."

    Loved it ! :)

    जवाब देंहटाएं
  3. "इक पागलखाना चाहिये"
    क्या बात है ! सुंदर :)

    जवाब देंहटाएं
  4. Pagal hokar hi to sakoon se raha ja sakta hai befikr ho aur agr aise me pagalkhana mil jaaye sab bandhano se mukt to kya bAt ban jaaye fir to... Sunder soch ..sunder abhivyakti :) shubhkamnaayein !!

    जवाब देंहटाएं
  5. चेहरे पे बिखरी हुई हंसी हो चाहे
    या हो ऐशो आराम
    ऐसा कुछ भी नहीं
    जो सुख की अनूभूति कराये
    पागलपन में जो सच्ची खुशी है
    वो और कहाँ मिल पाये

    आप की प्रस्तुति अत्यंत ही सुन्दर है

    जवाब देंहटाएं
  6. मन की भावनाओं का दरिया बह चला इस कविता के माध्यम से. सुंदर प्रस्तुति. बधाई.

    जवाब देंहटाएं

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