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बुधवार, 26 दिसंबर 2012

अनुतरित क्यों


जून की भीषण गर्मी अब व्याकुल करने लगी है , शिशिर ने निश्चय किया कि आज वो पक्का ही कुछ दिन के लिये आफिस में छुट्टियों की अर्जी दे देगा, और फिर काफी समय से निशान्त से मिला भी तो नही, कितनी ही बार तो वह बुला चुका है, उसकी शादी में भी वो नही जा सका था। इसी बहाने कुछ दिन गर्मियां भी कट जायेगीं । और फिर असली आनन्द तो पहाडों में इसी समय है । आफिस जा कर उसने १० दिनों की छुट्टी ली, और वो मंजूर भी हो गयीं । उसने सोचा कि सीधी कोई ट्रेन तो है नही कानपुर से द्वाराहाट की , सो उसने हल्दानी तक बस से जाने का मन बना लिया ।

बस जैसे जैसे आगे चल रही थी, यादों के पन्ने उसे पीछे ले जा रहे थे । निशान्त जिसके साथ २४ घंटो का साथ था, आज वो उसके पास करीब सात साल बाद मिलने जा रहा है । बातें तो अक्सर हो जाती है , मगर देखे हुये एक जमाना सा हो गया । जिद्दी भी तो वो कितना है कितनी बार कहा- अपनी और भाभी जी की एक फोटो तो भेज दो तो कहता है , भाभी को देखना है तो आना पडेगा ।

निशान्त की शादी भी तो ऐसे हुयी थी जैसे चट मंगनी पट ब्याह । और फिर उस समय मैं ऐसी हालत में भी तो नही था कि जा सकता । ये और बात थी कि इसका कारण वो आज तक उसे नही बता सका था , और बताता भी क्या कि अचरा उसे छोड कर चली गयी है , दोस्त की खुशी को वह कम नही करना चाहता था ।

अचरा का जाना उसे जितना दुखी कर गया था उससे कहीं ज्यादा उसे आश्चर्य हुआ था । सब कुछ तो ठीक चल रहा था । अगली सुबह तो मैं उसके घर सबसे मिलने के लिये जाने वाला था , कि शाम को उसने अपनी एक सहेली से एक पत्र भिजवाया था , जिसमें बस इतना लिखा था - मुझे भूल जाओ, और अगर कभी भी मुझे प्यार किया है तो मुझसे कुछ भी मत पूँछना । मैने कभी अपने और अचरा के बारे में किसी को नही बताया था, हमेशा सोचता जब उसके घर वाले राजी हो जायेंगें तभी सबको उसके बारे में बताऊंगा । मगर जिन्दगी ने मुझे ऐसा मौका ही नही दिया । ये सब सोचते सोचते कब हल्द्वानी आ गया पता ही नही चला ।

बस से उतर कर मैने टैक्सी ले ली । पहले तो सोचा कि बिन बताये ही पहुँच जाता हूँ, फिर सोचा कि नही बता देना चाहिये । यही सोच कर फोन कर दिया ।

हैलो कहते ही फोन के दूसरी तरफ से जो आवाज आयी, उसको ना पहचान पाने की गलती तो मैं कर ही नही सकता था । मगर फिर भी, किसी तरह खुद को संभालते हुये मैने कहा - क्या मैं निशान्त से बात कर सकता हूँ उसने कहा - निशान्त तो अभी बाहर गये हैं , मैने कहा आप कौन बोल रही हैं , दूसरी तरफ से आवाज आई- मैं मिसेज निशान्त माथुर । आप कौन बोल रहे हैं ? मैने बिना कुछ कहे फोन रख दिया। आखिर कहता भी क्या , जिसे मैं उसके कहने के बाद भी नही भूल सका था , वो मेरे बिना कुछ कहे ही शायद सब भूल चुकी थी ।

मिसेज निशान्त कोई और नही अचरा ही थी । मुझे कुछ समझ नही आ रहा था, ऐसा लग रहा था कि बस चक्कर आ जायगा । वो सारे सवाल जो बरसों से खुद से किया करता था , फिर से मुझे परेशान करने लगे। बस ड्राइवर से इतना ही कह पाया - गाडी हल्द्वानी की ओर मोड लो ।

 

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

बेबस दिल्ली



दिल्ली - जिसे कभी दिल वालों की नगरी कहा जाता था, कब और कैसे इस शहर में बेदिल लोग आ कर रहने लगे और इस दिल्ली के दिल को इस कदर कुचल दिया कि आज दिल्ली का दिल सिसक रहा है और बेबसी से वक्त की ओर देख रहा है - कि कब इस धरती पर ऐसे पुत्र पैदा नही होंगे, जिनको जन्म देने का अफसोस उनकी माँओं को होगा ।

जरूरत आज सिर्फ ये नही कि ऐसे लोग जो इक स्त्री के दामन को दागदार करते हैं उनको क्या सजा दी जाय, जरूरत ये भी है कि उस मानसिकता को समझा जाय जो ऐसे लोगों के जेहन में पनपती हैं ।
स्त्री का पुरुष और पुरुष का स्त्री की ओर आकर्षण प्रकृति की एक सामान्य सी सौम्य सी प्रवत्ति है मगर जब इसमें विकृति आ जाती है तब यह प्रकृति के विपरीत होने लगता है। हमें इस बात पर गहन अध्ययन की आवश्यकता है कि इस सोच का अंकुर कैसे जन्म लेता है, कहाँ से इसे हवा पानी मिलता है और फिर कैसे धीरे धीरे यह बढती बढ्ती एक जहरीली बेल का रूप लेकर समाज के उस कोमल अंग को अपनी जकड में लेती है जिसके पास समाज को ना केवल जन्म देने की शक्ति है बल्कि जीवन का आधार भी है ।

हमें सोचना होगा, और जाना होगा उस काल में जिसे लोग राम राज्य कहते हैं । सूक्ष्मता से देखना होगा उस युग को, जब व्यक्ति का व्यक्तित्व मात्र धन दौलत सम्पदा या शक्ति से नही वरन आचरण से मापा जाता था । समाज में वही पूज्यनीय था जिसके लिये शुद्ध आचरण ही उसके जीवन का आधार था , और उस व्यक्ति का समाज में कोई स्थान नही होता था जो पतित था ।
समाज में आखिर आज ऐसा क्या हुआ कि नारी को देवी समझे जाने वाले देश में सिर्फ उसे भोग्या ही समझा जाने लगा । जिस देश में निष्प्राण सी नदी को भी देवी तुल्य माना गया , गाय को माँ के समरूप रक्खा गया, सम्पूर्ण देश को माता कहा गया । फिर कैसे और क्यों ये परिवर्तन हो गया कि अब पिता अपनी पुत्री में भी सिर्फ एक नारी के रूप को देखने लगा । जन्म दाता, संरक्षण कर्ता ही उसे अपना ग्रास बनाने लगा ।

कमी कहाँ है ??

कमी आई है जीवन के मूल्यों में, बदल गये हैं जीवन के लक्ष्य जीवन का आधार , विचार धारा , और उसका रूप ले लिया है असंतुष्टि ने ।

हमारे लिये मुश्किल नही है समाज से ऐसे दानवों को मिटाना मगर उसके लिये किसी को तो देव बनना होगा , किसी को तो आहवाहन करना होगा एक बार फिर से उस दुर्गा का जो सर्वनाश कर दे ऐसे दैत्यों का ।

सिर्फ अखबार के पन्नों पर चन्द रोज की खबर बना कर इस समस्या का हल नही निकाला जा सकता । स्त्री को सिर्फ दिलासा दिला कर उसके दर्द को कम नही किया जा सकता ।

समाज को सोचना होगा और मानना भी होगा कि यदि स्त्री कोमल है तो यह उसकी कमजोरी नही , उसकी शक्ति है , और जब यह शक्ति प्रचंड रूप लेती है तो यह फूल से फूलन भी बन जाता है । जरा सोच कर देखिये यदि समाज में फूल से ज्यादा फूलन हो गयी तो , स्वयं को सामर्थ्य की धुरी समझने वाले पुरुष का वर्चस्व ही खतरे में पड जायगा , और परिणाम फिर चाहे कुछ भी हो , हारेगा तो जीवन की ही होगी क्योकि प्रहार भी तो जीवनदात्री पर ही किया जा रहा है

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

अरुणिमा भाग -२


आज आपको अपने जीवन के उस मोड पर ले चलती हूँ , जहाँ पहली बार उससे मिली थी बात करीब १८- २० साल पहले की है पिता जी हर साल गर्मी की छुट्टियों में हमे कही ना कही जरूर घुमाते थे ।और इस बार तो मै ८वीं में फस्ट आयी थी , तो वायदे के अनुसार इस बारहम रानीखेत घूमने आये थे हम लोग जिस होटल में रुके थे , वहाँ अरुणिमा के पापा माली थे ।वो भी अपने पिता जी के साथ दिन भर वही रहती थी और छोटे मोटे काम किया करती थी । दो ही दिन में वो मेरी बहुत अच्छी सहेली बन गयी थी। अक्सर वो मेरे लिये ताजे ताजे फल तोड कर लाया करती थी । जब तक मै खा ना लूँ खुद ना खाती कहती दीदी आप खा लो हम फिर खा लेंगे । आज पापा को किसी से मिलने के लिये जाना था , और माँ रूम में लेटी थी , और मै अरुणिमा के साथ गार्डेन में खेलने के लिये आ गयी थी । हम दोनो खेल ही रहे थे कि अचानक से दौडते दौडते हम मेन सडक पर आ गये थे कि मेरे सामने से एक मोटर निकली एससे पहले कि मै कुछ समझ पाते किसी ने मुझे एक धक्का सा दिया मै दूर सडक के दूसरी तरफ जा गिरी , मै तो बच गयी थी, मगर मुझे जिसने धकका दिया था वो नही बच सका था । वो  कोई और नही अरुणिमा के पिता ही थे , मुझे बचाते बचाते वो अपनी जान गवां चुके थे ।  मुझसे थोडी ही देर पहले ही तो उन्होने कहा था- बिटिया बस यही अंदर खेलना बाहर ना जाना, यहाँ सडक से बहुत तेज गाडियां निकलती हैं ।

अरुणिमा - पांच छः साल की लडकी जो दिन भर चिडिया की तरह पूरे बगीचे में फुदकती रहती थी, बिल्कुल बेजान पत्थर सी बने गयी थी । जब पिता जी ने उसके बाकी घर वालों के बारे में पता किया तो उन्हे मालूम हुआ कि उसके पिता के सिवा उसका कोई और नही था । फिर तो माँ और पिता जी उसको हमेशा अपने साथ रखने का निश्चय करके उसको अपने ही साथ ले आये थे ।

दुर्घटना तो एक घटित हुयी थी मगर भाव सबके मन में अलग थे । जहाँ एक तफर अरुणिमा का मन अपने पिता को खो कर दुखी था, मेरे मन में एक अपराध बोध आ चुका था, मुझे बस यही लगता था कि मेरे ही कारण ऐसा हुआ है, मैं ही अरुणिमा के दुख का कारण हूँ । अपना घर अपने पिता को खोने के बावजूद अरुणिमा ने ही मेरे मन से इस अपराध की भावना को कम किया था ।
क्रमशः ....... 

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

अरुणिमा


अरुणिमा , मेरी कहानी की मुख्य पात्र। मेरे जीवन का केन्द्र बिन्दु। जीवन के हर उतार चढाव की साथी।
बहुत समय से सोच रही थी कि अपने और उसके जीवन को कागज के पन्नों पर अंकित करूं, मगर हमेशा डरती थी कि कही ऐसा ना हो कि मेरी लेखनी उसके व्यक्तित्व के साथ न्याय ना कर सकी तो...
और फिर लिखने का ख्याल मन से हटा देती।
और फिर आज निर्णय ले ही लिया, वो भी उसके कहने पर । कितनी मासूमियत से उसने कहा था- जीजी आप तो इतना अच्छा लिखती हैं, कभी अपनी किसी कहानी में हमारा भी नाम लिख दीजिये, इसी बहाने हम भी छप जायेंगें । वो ये नही जानती थी कि मैं सिर्फ उसका नाम ही नही उसकी पूरी जिन्दगी को लिख देना चहती थी मगर कभी खुद को इस स्तर का अपनी ही नजर में नही पाती थी ।
अरुणिमा यूँ तो उम्र में मुझसे बहुत छोटी थी, मगर बाकी हर चीझ में मुझसे बडी थी, मुझे कोई भी परेशानी हो - छोटी या बडी , उसके पास हर परेशानी का कोई ना कोई हल जरूर होता था।
क्रमशः .........



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