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रविवार, 31 दिसंबर 2023

प्रेम और जीवन

 


जब रातों में चुपके से सिरहाने आकर

महबूब ना फेरे बालों में उगलियां

जब प्रियतम ना पढ सकें वो आंखें,

जिनमें बसा हुआ है वह स्वयं

जब ना महसूस हो उसके दूर जाने की

दिल को घडी घडी टीस

जब कहने के लिये, मन की बात

खुद से ही कई कई बार करनी पडे बात

जब तुम्हारे होने के मायने

खत्म हो जाये उसके लिये,

जिसे माना हो तुमने सबकुछ

समझ लेना उस रोज

मर चुका है प्रेम

और प्रेम कभी अकेले नहीं मरता

मरता है उसके साथ

आत्मबल

आत्मविश्वास

मर जाती है चाहत

मर जाते हैं सपने

हां जो जीता है वो होता है

यह मिट्टी का शरीर

वो शरीर जो बस मैदान हैं

जिसमें खेल रहीं हैं सांसें

खेल – बस आने जाने का

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

उघम



आखिरकार उसे अपनी इन परिस्थितियों में ना चाहते हुये भी भीख मांगना ही एक अंतिम मार्ग दिख रहा था। वह सोचने लगा कि कल तक वह भिखारियों को देख कर हमेशा यही सोचता था, कि कैसे ये लोग जीवन यापन के इस सरल से मार्ग को चुन लेते हैं कैसे सरलता से अपने आत्म सम्मान को मार कर यूं अजनबियों के सामने हाथ फैला देते हैं?  अपंग, बच्चों और वृद्धों को देखकर तो फिर भी वह समझ पाता था कि ये अपनी शारीरिक कमियों के कारण भीख मांगनें को विवश हुये होंगें मगर स्वस्थ दिखते युवा या अधेड को देख हमेशा ही उसके मन में यह विचार आता कि मेहनत से बचने के लिये ही ये लोग इस आसान से रास्ते को पेट भरने के लिये चुन लेते हैं।

मगर आज उसे खुद को देख कर यह अहसास हो रहा था, कि सड़क के किनारों पर या मन्दिरों के बाहर बैठे लोग तो प्रत्यक्ष भिखारी हैं, समाज के अंदर तो ना जाने कितने अप्रत्यक्ष भिखारी अपने आस पास रोज ही देखे जा सकते हैंं, 

आज पचीस की उम्र में वह सौ से ज्यादा जगह तो अपनी नौकरी की अर्जी लगा ही चुका था, मगर किसी जगह पैसे की दरकार होती किसी जगह परिचय की। ऐसा लगता कि क्या कोई नही जो मेरी मार्कसीट्स देख कर मेरी योग्यता का अनुमान लगा सके, पढाई की दुनिया से निकलते ही कहां से लाऊं मै अनुभव? ऐसा नही था कि मेरे पिता जी १-२ लाख ना दे सकते हो या मेरे परिवार जनों में कोई किसी दफ्तर में थोडा बहुत परिचय ना रखता हो, मगर मैं उसे भी भीख के समान ही समझता था। आखिर एक छोटी मोटी सी नैकरी के लिये  किसी के सामने पैसे या परिचय के लिये हाथ फैलाना भीख मांगना नही तो मांगने से कुछ कम भी ना था। मगर आज ऐसा लगने लगा था शायद मेरे पास भी एक अप्रत्यक्ष भिखारी बनने के अलावा कोई मार्ग शेष न था।

तभी उसके अंतर्मन ने उसे पुकारा- तुम जब खुद के सारे दरवाजे बंद करके देखोगे, तो ऐसे ही रास्ते दिखेंगें, आज भी अपनी उसी बात पर अडिग रह  क्यों नही हो कि " भिक्षा मांगना कभी अंतिम रास्ता भी नहीं हो सकता", तुम युवा हो तो परिश्रम का विकल्प क्यूं नहीं चुनते। शायद तुमने आस पास जो अपने झूठे अहम का औरा बना लिया है, वह तुम्हे कुछ देखने ही नहीं देता। तुम अपने ही पिता से सहायता मांगनें और भीख मांगने के अंदर को ही नहीं समझ पा रहे। क्या तुम अपने पिता से पैसे लेकर कोई छोटा सा उघम भी नहीं कर सकते हो।  केवल अपने अंको को ही योग्यता की माप क्यों मानते हो? क्या बुद्धि बल का प्रयोग करने की तुममें सामर्थ्य नहीं, यदि है तो विचार करो आखिर तुम सीमित से पैसे से क्या कर सकते हो? 

तभी उसने देखा उसके पिता घर के खुले आगंन में अपना सब्जी का ढेला बाजार ले जाने को तैयार कर रहे हैं, वह सोचने लगा कि क्यों उसने आजतक अपने पिता में एक मेहनती व्यक्ति नहीं देखा, एक उघमी नहीं देखा। उसे अहसास हुआ कि रोजी रोटी कमाने का साधन तो उसके सामने ही था, मगर अपनी किताबी योग्यता को ही जीविका का आधार मानने के कारण वह इसे कभी अपने लिये एक विकल्प के रूप में देख ही नहीं सका। 

पिता के घर से निकलने से पूर्व वह यह निश्चय कर चुका था कि वह अपने ज्ञान से, बुद्धि बल से अपने पिता से इस उघम को एक दिन ऐसी जगह ले जाएगा जहां से वह कई भीख मांमने वालों को सक्षम बना सके। दूर से ही वह अपने पिता के सब्जी के ठेले को ऐसे देखने लगा जैसे एक विधार्थी अपनी कलम या एक सैनिक अपनी बंदूक को देखता है और आंखों के सामने उसे मेहनत से सजी वो सब्जी की दुकान दिखने लगी जहां वह आवाज लगा कर सब्जी नहीं बेच रहा और ना ही उसके पिता गलियों गलियों में घूम रहे हैं बल्कि उसके पिता एक अच्छी सी कुर्सी पर बैठे पैसे गिन रहे हैं और वह देश के कोनों कोनों से  विभिन्न प्रकार के फल - सब्जियों लाने वाला शहर का प्रसिद्ध क्रेता है।

शनिवार, 20 मई 2023

मां, कैसे करुं तेरा अभिनन्दन



**Images Refereed from Google Search 

बुधवार, 28 दिसंबर 2022

अनचाहा

 


हर दिन की तरह उस दिन भी सूरज निकला, हर दिन की तरह मै भी तैयार हो कर काम के लिये निकल गई, हर दिन की तरह उस दिन भी मां ने कहा बेटा, अपना खयाल रखना, संभल कर जाना जमाना बहुत खराब है, मगर उस दिन वो हो गया था जिसे कभी भी नही होना चाहिये था, किसी के भी साथ नही होना चाहिये था। वो दिन अमावस की रात से भी ज्यादा काला हो गया था मेरे लिये, ऐसा कालापन जिसमें हजारों सूरज भी उजाला नहीं भर सकते थे। दुनिया के लिये मैं एक खबर बन गई थी, कुछ लोगों के लिये कैंडिल मार्च का एक मौका, समाज के लिये कलंक, मां बाबू जी के लिये नासूर और खुद के लिये एक बोझ।

उस दिन के बाद से नौ महीने मैने कैसे निकाले, ये या तो मै जानती थी या मेरा विधाता। मां बनना मेरे लिये अभिशाप था, और जन्म देते ही मै इस अभिशाप से मुक्त हो जाना चाहती थी। मगर जिंदगी को हम जैसा देखते है, वैसी कभी भी नही होती, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।

अस्पताल में बच्चे को जन्म देने के बाद, मै बिना बच्चे को देखे अस्पताल से बाहर निकल आई थी, मुझे नही पता वो लडका था या लडकी, और उस समय मुझे यह जानने की बिल्कुल इच्छा भी नहीं हुई थी। उस समय तो ऐसा लगा था जैसे कोई अनचाही चीज जिसे मै अपने साथ ढो रही थी, उससे मुक्त हुई थी।

आज हर चीज से बाहर आ गई थी, नये शहर में नई नौकरी कर अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश करने लगी थी। पुरानी हर चीज को भूलने का मुझे यही एकमात्र रास्ता दिखा था

एक रविवार, सुबह एक चाय पी चुकी थी, हल्की हल्की से ठंड शुरु हो चुकी थी, रेवती बर्तन साफ करके जाने को थी, तभी मैने कहा- जाने की जल्दी ना हो तो दो कप चाय बना लो। मैं कुर्सी पर बैठी कब सो गई पता नही, रेवती की आवाज - दीदी चाय से अचानक लगा जैसे बहुत देर से सोई हुई थी।

रेवती भी वही पास ही बैठ गई। कुछ बात करने के लिहाज से मैने पूछा- और घर में कौन कौन है?

रेवती- दीदी हम, हमारा आदमी दो मन के और दो अनचाहे बच्चे।

“अनचाहे बच्चे” ये शब्द मेरे कानों में गरम सीसे सा पडा, फिर भी खुद को संयत करते हुये बोली- ऐसा क्यो कह रही है, अनचाहे से क्या मतलब है तेरा?

रेवती- दीदी जी अब आपसे भला क्या छुपाऊं। जब मेरी शादी हुई तब ही मैने मेरे मरद को बोल दिया था कि हम दो से ज्यादा बच्चे नहीं करेंगें, तब तो उसने भी खुशी से हामीं भर दी थी कि हां दो होंगें तो उनको अच्छा पढा लिखा कर अच्छा आदमी बना देंगें, वो मेरी तरह ट्रक नही चलायेगा, और ना ही तेरी तरह घर घर काम करेगी।

तीन साल में भगवान की दया से हमे एक लडका और और लडकी हो भी गये। मगर रग्घू अपनी बात पर ना टिका रहा। आये दिन मुझसे एक और बच्चे के लिये कहता रहा। मेरे लाख मना करने के बाद भी अपनी जोर जबरदस्ती से मेरे पेट में एक बार और बच्चा दे दिया। मैने खूब कहा सुना – कि ये बच्चा गिरा देते हैं, तो उसने मुझे छोडने की धमकी दे दी। आखिरकार करती भी क्या, जन दी एक और बच्चा।

कहते कहते रेवती का मन और आवाज दोनो भारी हो गये। एकाएक वो चुप हो गयी।

और मेरा मन गिनती में उलझ गया। मगर ये तो तीन बच्चे हुये, चौथा भी क्या ऐसे ही हो गया।

रेवती शायद अब कुछ नही कहना चाह रही थी, मगर मै आगे सुनने के लिये आतुर थी, मै उसके कंधे पर हाथ रख बोली- ऐसा ही तो होता है इस समाज में, स्त्री पैदा तो करती है, मगर उसकी अपनी मर्जी हो ये कहां जरूरी है। रग्घू को तू उसके बाद भी नहीं मना कर पाई थी क्या। 

रेवती – नही दीदी, तीसरे के बाद तो मैने कसम खा ली थी, कि चाहे मुझे रग्घू से अलग ही रहना पड जाय मगर अब मै अपना पेट नही चिरवाऊंगी।

मगर जानती हो दीदी – रग्घू ने तो वो कर दिया, जो हम कभी सोच भी ना सकते थे।

थोडा रुक कर बोली - एक बार वो ट्रक ले कर करीब एक महीने बाद लौटा। और उसके बाद से मुझसे कटा कटा रहने लगा।

पहले तो मैने उसको मनाने की बडी कोशिशे की, फिर उसको उसके हाल पर छोड बच्चों के साथ लग गई, पहले दो मकान थे, अब दो और पकड लिये थे, पैदा करने वाला तो अपनी ही दुनिया में था, बच्चों का पेट पालने के लिये काम तो मुझे ही करना था।

और फिर करीब आठ साढे आठ महीने बाद, एक दिन सुबह सुबह दरवाजे पर एक बच्चे के रोने की आवाज आई, मै उठ कर बाहर निकली तो देखा एक सत्रह अठरह साल की लडकी, गोद में एक बच्चा लिये खडी थी।

मैने पूछा- तुम कौन हो? तो बोली – रग्घू को उसका बच्चा देने आई हूं, कह कर मेरे हाथ में बच्चा थमा, बिजली की तरह गायब हो गई। मैं गुमसुम सी दरवाजे पर तब तक खडी रही जब तक रग्घू बच्चे के रोने की आवाज सुन कर दरवाजे पर नही आ गया। मेरे हाथ में बच्चा देख बोला- अब ये कौन है, मेरे सबर का बांध टूट गया, मै बोली- ये मुझसे पूंछ रहा है, ये कौन है, तू बता ये कौन है? रग्घू को काटो तो खून नही वाली स्थिति हो गई। कई घंटे हम लडते रहे, बच्चा बिलबिलाता रहा, आखिरकार मेरे अंदर की मां ने एक और अनचाहा बच्चा स्वीकार कर लिया। बीते दिनों से लौटते हुये रेवती के चहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी - हंस कर बोली, जानती हो दीदी, अपना मनवा वही बच्चा है, जो रोज मुझे लेने और छोडने आता है, सगी औलाद से भी ज्यादा माने है मुझे।

रेवती की बातों ने मुझे अंदर तक हिला दिया। मुझे मेरी तकलीफें उस अबोध की तकलीफों के सामने बहुत छोटी लगने लगीं। मै उस नन्ही सी जान को अस्पताल के हवाले करते समय यह क्यो नही सोच पाई कि जिसने अभी दुनिया में आंख भी नही खोली थी उसको मै कैसे छोड आई। भले ही वो अनचाहा था, मगर क्यों नही उसको अपनी ममता दे सकी।

रेवती आज मेरी नजर में किसी विदुषी से कम ना थी जिसमें ना सिर्फ जीवन सी सच्चाइयों का सामना करने की हिम्मत थी, बल्कि अपनी मेहनत और लगन से अनचाहे को मनचाहे में बदलने का हौसला भी था।आज एक सामान्य सी स्त्री ने मुझ पढी लिखी को इंसान और स्त्री होने के मायने समझा दिये थे, जिंदगी को अब मै एक नये नजरिये से देख पा रही थी और चाय का कप किचन में रख मैं भी अपने अनचाहे को मनचाहा बनाने का निर्णय कर चुकी थी।

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