प्रशंसक

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

त्रासदी फिर आ सकती है


वो चुपचाप सहती रही 
देती रही जीवन
करती रही पालन
अपने कर्तव्यों का
माफ करती रही
भूल जो अंजानी नही थी
फिर एक दिन 
छलक पडा बाँध
सब्र का
बहुत सोचा कैसे दूँ तकलीफ
अपनो की ही
मगर कोई और रास्ता ना था
भटके को राह दिखाने का
एक हल्की सी भृकुटि तनी
और समाप्त हो गये 
अनगिनत जीवन
रो पडी थी धरा भी, देख अपनी ही करनी
कि नही चाहा था उसने विनाश
पर क्या करती
आखिर सहन की 
कहीं तो सीमा थी
पर आह! धन्य है मानव
इस विपदा मे भी
नही तजा उसने 
विभाजन का धर्म
ढूंढ निकाले उसने
राजनीति के सूत्र
बना ही ली धर्म की दीवारे
करने लगा धार्मिक शिनाख्त 
छिन्न भिन्न विभक्त शरीरों की
विभाजित कर दिया लाशों के ढेर से
हिन्द , पाक और नेपाल

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

ख्वाइशों के पुलिंदे


मुश्किल ना था बयां करना , हाल-ए-दिल तुमसे
मगर आरजू रही आजमां ही ले इम्तेहान-ए-सबर

गुनाह तो ना था ढहा देना, चंद फासलों की दीवार
मगर चाहत से बडी थी, तेरे अहसासों की फिकर

नजरें मिलते ही दे बैठे थे, तुझे जान-ओ- जिगर
मगर ख्वाइश , कुबूल कर ले, तेरी शर्माती नजर

मेरे हर हर्फ-ओ-अल्फाज में शामिल, उसका ही चर्चा
उम्मीद आये उनके चर्चों मे , कभी मेरा भी जिकर

नामुंकिन तो ना था, मांग लेना तुम्हे दुआओं में
मगर हसरत थी हो तुझपे मेरी वफाओं का असर

आसां ना था जब्त कर लेना, तडपते जज्बातों को
तमन्ना थी खुद-ब-खुद हो उन्हे, हालातों की खबर

नामन्जूर था मिलना उनसे, सिर्फ इक उम्र के लिये
अरमां ये, हो बांहो मे तो, थम जाय शाम-ओ-सहर

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

तुमसे मिलकर


तुमसे मिल कर जाना हमने, क्या कुछ मेरे अन्दर था
नन्हा सा बीज सा दिल, इस तपती ज़मीं के अन्दर था

आरजू बस इतनी सी थी, मुझे कोई मुझसा मिल जाये
जिसके प्यार के सागर में, खुशी से दर्द भी खिल जाये
प्यासा सा मन था और, दिल मे भावों का समन्दर था
नन्हा सा बीज सा दिल, इस तपती ज़मीं के अन्दर था

चुपके चुपके देखा तुमको, नजरें बचा बचाकर तुमसे ही
तुम भी अंजाने बनते रहे, सब कुछ जानकर हमसे ही
हम कबसे तुम्हारे थे, बस इक मिलन का अन्तर था
नन्हा सा बीज सा दिल, इस तपती ज़मीं के अन्दर था

बेइंतहा बेचैनी महसूस हुयी, जब भी नजरों से दूर हुये
दुआएं मुकम्मल हुयी, मेरे साये से आ तेरे साये मिले
बरसते भीगे सावन मे, सुलगते अरमानों का मन्जर था
नन्हा सा बीज सा दिल, इस तपती ज़मीं के अन्दर था


गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

नारी शक्ति


अभिमान नही हमको खुद पर, पर मान बचाना आता है
रह जाती चुपचाप मै अक्सर, पर आवाज उठाना आता है

नासमझी अब मत करना, अपमान सहन अब ना होगा
भूखे भेडियों का आहार कही, ये स्त्री तन अब ना होगा
चूडी कंगन चुनरी पहनकर भी तलवार चलाना आता है
अभिमान नही हमको खुद पर, पर मान बचाना आता है

घर की धुरी और लाज अभी तक, नारी ही कहलाती हैं
प्रेम समर्पण और त्याग पर जीवन अर्पण कर जाती हैं
बंजर धरा को ऊसर कर, लहराते खेत बनाना आता है
अभिमान नही हमको खुदपर, पर मान बचाना आता है

बात करूं जब अपनी पसन्द की, तो हंगामे होने लगते हैं
परिवार में हक की बात करूं, सब विद्रोही कहने लगते हैं
घने अंधेरों में चिंगारी बनकर, अस्तित्व बनाना आता है
अभिमान नही हमको खुद पर, पर मान बचाना आता है

*चित्र के लिये गूगल का आभार

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

गाँठ


बुआ जी बुआ जी, देखो ना कितनी देर से मै ये गांठ खोलने की कोशिश कर रहा हूँ, मगर ये खुल ही नही रही। प्लीज आप खोल दो ना। पाँच साल का टुक्कू मेरे पास एक मोटा धागा लेकर आया था। तब तक पीछे से दौडती हुयी प्रीती आयी और बोली नही बुआ जी आप ना खोलियेगा, हम लोग खेल खेल रहे है, टुक्कू ये तुमको ही खोलनी है, नो चीटिंग और हाँ धागा टूटना नही चाहिये, अगर टूट गया तो तुम हार जाओगे। ओके ओके पता है मुझे कहते हुये बेचारा टुक्कू दुबारा से गाँठ खोलने की कोशिश करने लगा।
मेरे सामने चार महीने पहले की अविनाश के कहे शब्द कानों में सुनाई देने लगे- श्रुति प्यार के धागे में कभी गाँठ नही लगनी चाहिये, और अगर कभी लग भी जाय तो उसे पति पत्नी को मिल कर खोल लेना चाहिये। धागे के टूट जाने में हम दोनो की ही हार है। मगर श्रुति अविनाश की किसी भी बात को सुने बिना अपनी माँ के पास चली आयी थी। यहाँ पर भी सभी ने तो उसको समझाया था, मगर जब श्रुति ने कहा कि ठीक है मै चली जाती हूँ यहाँ से , मगर अविनाश के पास दुबारा नही जाऊंगी, इतनी बडी दुनिया है कही भी चली जाऊंगी, पर अब आप लोगो पर बोझ नही बनूंगी, उसके बाद से सबने कुछ भी उससे ना कहने का निश्चय कर लिया था।

आज नन्हे से बच्चों के खेल ने श्रुति के मन पर पडे पर्दे को एकाएक हटा दिया, और वो चल दी अपनी गाँठ सुलझाने अपने अविनाश के पास। 

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

आजकल


नजरे बदली हैं , या बदला है नजरिया
हवाओं मे आजकल, कुछ तल्खियां सी है

दूरियां बढ रही है, या रुक गये है कदम
राहों में आजकल, कुछ पाबंदिया सी है

अल्फाज थक गये या खत्म बाते हो गयी
अहसासों में आजकल, कुछ सर्दियां सी है

मौसम हुआ बेजार , या बेफिक्र बागबां हुआ
फूलों में आजकल, कुछ बेनूरियां सी है

खो गया है चैन, या सुकून मिलता नही
धडकनो मे आजकल कुछ बेचैनियां सी है

दिन ढलता नही, या राते बगावत कर रही
लम्हों में आजकल कुछ सख्तियां सी है

आंखों का है धोखा या धोखा मिट रहा 
रिश्तों में आजकल कुछ हैरानियां सी है

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

भंवर


वो चुपचाप बस स्टाप पर खडी बस का इन्तजार कर रही थी, पिछले दो सालों से तो वो बस से आना जाना भूल ही गयी थी। वो हमेशा रितेश के साथ ही बस से आया जाया करती थी। जिस किसी दिन अगर रितेश को छुट्टी लेनी होती उस दिन या वो भी छुट्टी ले लेती या फिर ऑटो से आती जाती। कभी कभी रितेश कह भी देता - यार इतने सारे लोग तो बस मे आते जाते है, तुम कभी अकेले क्यो नही जा पाती बस से, तो वो हल्के से बस मुस्करा कर कह देती - क्या करूँ , मुझे बस की भीड में ऐसा लगने लगता है जैसे मै किसी भँवर में फंस जाउंगी । और फिर तुमहारे रहते मै भला अकेले क्यो जाऊं। अचानक उसे वो दिन याद आ गया जब रितेश ने उसके जन्म् दिन से दो दिन पहले उससे झगडा करके बोलचाल बन्द कर दी थी। कहाँ उसका मन था उस दिन ऑफिस आने का, अगर जरूरी मीटिंग ना रही होती तो वो उस दिन ऑफिस ना आई होती। सभी ने तो उसको बधाई दी थी , एक उसे छोड कर, और मेरी खुशी तो सिर्फ उसमे ही बसती थी। आंसू थे कि बस पलकों पर रोके थे, ऑफिस में सबके सामने कमजोर नही पडना चाहती थी। कितनी बार कोशिश की थी कि आधे दिन की छुट्टी ले कर घर चली जाऊं। मगर रितेश जो मेरा चेहरा देख कर मेरे मन की हर बात पढ लेता था, आज मेरी आँखों सेछलकने को तैयार आंसूं नही दिख रहे थे। ऑफिस से निकल कर बस स्टाप मे खडी बस से ज्यादा रितेश का इन्तजार कर रही थी। मन मे एक उम्मीद थी कि बस वो आ कर मुझे जन्मदिन की बधाई दे । उसका बात कर लेना ही मेरे लिये किसी तोहफे से कम ना होता। इसी उधेड्बुन में खडी खडी तीन बसे छोड चुकी थी। अंधेरा भी हो रहा था कि तभी एक बाइक मेरे बिल्कुल करीब से आ कर रुकी। घबराहट, अपने अकेले होने और आज रितेश के मेरे साथ ना होने की मिश्रित सी भावनाओं ने मेरे रुके हुये आंसुओं को और रुकने ना दिया। और मै मुंह हाथों से ढकते हुये रो पडी थी। तभी किसी ने मेरे चेहरे से हाथ हटाते हुये, दूसरे हाथ से मेरी तरफ ताजे लाल फूलों का गुलदस्ता मेरी तरफ करते हुये कहा- इति, तुम्हे जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो, और ये रहा तुम्हारा तोहफा ड्राइवर के साथ। और होले से झुकते हुये सलाम करने के अंदाज में कहा, आइये मैडम कहाँ छोडना है आपको। फिर कितनी देर तक वो रितेश के साथ हवा से बाते करते हुयी उडती रही थी।

काश आज फिर किसी भी बहाने से रितेश आ जाता। मगर वो जानती थी कि आज वो जहाँ जा चुका है वहाँ से कभी कोई भी लौट कर नही आया। उसका साथी, उसका ड्राइवर एक एक्सीडेंट मे अपनी जान गवां चुका है, इस सत्य के साथ उसे बाकी का जीवन बस की भीड भरे भंवर में अकेले ही बिताना है।
 

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

प्रभा


उम्र के साठ बसन्त, पतझड और सावन देखने के बाद, आज दिल में अचानक जिन्दगी जीने की ख्वाइश पता नही कहाँ से जाग उठी। ये खवाइश तो दिल में तब भी नही उठी जब हाथों में मेंहदी रचाये, पायलों के मधुर संगीत के साथ आँखों में सतरंगी सपने लिये नव जीवन में प्रवेश किया था। जीवन जीने की ख्वाइश होती है ये सोचने का भी वक्त कहाँ मिल सकता था, विवाह बंधन में बंधते ही तीन बच्चों की जिम्मेदारी की कुंजी पाने वाली नववधू को। मिला था एक कठिन लक्ष्य, पत्नी बनाने के सौभाग्य के साथ मिला था सौतेली माँ का कलंक। जिसे मैं अपनी ममता और समर्पण से दिन रात धुल रही थी । मुझे एक ऐसी तलवार की धार पर जीवन मिला था कि चाहे कुछ भी करती, मेरा छलनी होना निश्चित था।
बच्चों को संवारने की कोशिश में जब भी उन्हे थोडी सी तपिश देती, मेरी आत्मा मेरे अपनों के शब्द बाणों से छलनी हो जाती। आखिर सौतेली माँ जो थी, एक ऐसी माँ जिसे ना तो अपने बच्चे को डाँटने का अधिकार मिलता है, ना दंड देने का। तो क्या हुआ जो मैने निर्णय कर लिया था कि मै सिर्फ यशोदा ही बनूंगी, देवकी नही।
मुझे सिर्फ अपने गले में पडे मंगल सूत्र को देख कर ही याद आता कि मै पत्नी भी हूँ। 
समय चक्र मे बहुत कुछ मिलता और छूटता गया। कई मकसद थे जिन्हे पूरा करते करते आज ऐसी जगह आ गयी थी कि अपना नाम भी आज याद करना पड रहा था।
जिस घर को अपना सर्वस्व समझ चालीस साल पहले आयी थी, आज उसी देहरी पर सब कुछ छोड आयी थी। 
कैसे मेरे मन में खुद को फिर से तलाशने की ख्वाइश जगी , कह नही सकती। कुछ था जो बरसों से अन्दर ही अन्दर टूट रहा था, कुछ था जो मुझे सब कुछ छोडने नही दे रहा था। कितनी बार मन चाहा था, दिखावे की दुनिया और बेमकसद से रिश्तो को तोड देने का। 
आज बरसों के बाद मेरे अन्तस में चुपचाप गुमसुम सी बैठी प्रभा ने मुझे पुकारा था। और चल पडी थी मै एक नयी राह पर सारे पुराने रिश्तों और बन्धनों से मुक्त एक नये आकाश की ओर उस प्रभा को नयी पहचान देने जो बरसों से मद्धिम सी पडी थी मगर उसमें अभी भी चमकने की चाह कही सांस ले रही थी। 
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