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रविवार, 29 जुलाई 2012

राखी- प्रतीक भाई बहन के स्नेह का...........


रजनी सोच रहा हूँ इस बार राखी पर दीदी के लिये कोई अच्छी सी साडी ले आते हैं, क्यों तुम्हारा क्या ख्याल है। आप भी ना घर कैसे चला रही हूँ इसका तो कोई ध्यान नही बस आपको दीदी के अलावा कुछ सूझता ही कहाँ है? अब साडी का मतलब कम से कम हजार रुपये, अरे मै कहती हूँ जब १०१ से काम चल जाता है तो इस खर्च की क्या जरूरत, एक बार दे दोगे तो हर बार का ही हो जायगा और ज्यादा ही मन कर रहा है तो २०१ दे देना। फिर तुम्हारी दीदी भी आखिर क्या ले कर आती है वही बेसन के लड्डू वो भी घर से बना कर , बीच मे ही रोक कर अनय ने कहा, मगर वो ही मुझे पसन्द है तुम भी तो जानती हो मुझे और कोई मिठाई पसन्द ही नही, मगर रजनी कहाँ कुछ मानने वाली थी, हाँ ठीक है मगर मेरे लिये तो कुछ ला ही सकती हैं कह कर वो रसोई में चली गयी, और अनय बेमन से आफिस के लिये तैयार होने चल दिया । आफिस मे भी आज अनय का मन नही लग रहा था, सोच रहा था क्या फायदा इतने हाई पैकेज की नौकरी करने का, जो मै अपनी दीदी के लिये एक साडी भी नही खरीद सकता, वो दीदी जो हमेशा मेरी खुशियों के लिये पापा जी से छुप कर मेरे लिये बपपन में चाकलेट, बैट बॉल और ना जाने क्या क्या ला दिया करती थीं, मेरी हर छोटी छोटी खुशी को पूरा कर देती थीं, और सोचते ही सोचते उसने रजनी को फोन कर दिया - रजनी ऐसा करना दीदी को फोन कर देना कि कल राखी पर ना आयें, मुझे आफिस के काम से तीन दिन के लिये बाहर जाना है, हाँ मेरा बैग पैक कर देना मुझे तुरन्त ही निकलना होगा। मै कहूँगा तो शायद ठीक ना लगे, अब तुम ही बताओ आफिस का काम वो भी टूर छोडा तो नही जा सकता ना जिसमें चार पैसे बनने की उम्मीद होती है। आप चिन्ता ना करो मै दीदी से कह दूंगी । और फिर उसने दूसरा फोन अपनी दीदी को किया- दीदी इस बार राखी पर आप नही मै आ रहा हूँ , आप तो बस मेरे लड्डू बना दो । उसने घडी देखी ५ बजने वाले थे, फटाफट वो घर के लिये निकला , अभी उसको अपनी दीदी के लिये साडी भी तो लेनी थी और समय से घर भी पहुँचना था।

सोमवार, 23 जुलाई 2012

अनसुलझे उत्तर



तुम भी कमाल करती हो सुधा, एक हफ्ते से तुम अस्पताल मे हो और मुझको बताना जरूरी भी नही समझा , वो तो आज जब छुट्टियों के बाद मैं कालेज गया तब शिशिर ने मुझे बताया कि तुम बीमार हो । मुझसे अगर कोई गलती हुयी तो बता देती, आखिर किस बात की तुमने मुझे ये सजा दी  कहते कहते महिम का गला रूँध सा गया, आँखे छलक सी गयी । महिम तुमने कोई गलती नही की, प्लीज ऐसा क्यो सोचते हो , और फिर अगर मै अगर खुद को सभांल पाने की स्थिति में ना होती तो तुमको बुलाती ही,आखिर तुम्हारे सिवा और किसे बुलाती । तो तुमको लगता है कि इतने दिनों से तुम यूँ ही यहाँ एड्मिट हो , और मै बेकार ही तुम्हारी फिक्र कर रहा हूँ , और कहते कहते महिम कुछ नाराज सा हो गया, तो धीरे से सुधा ने महिम का हाथ थामते हुये कहा- महिम सच कहना क्या आधी रात अगर मै तुमसे कहती कि मै बीमार हूँ तो क्या वाकई तुम अपनी पत्नी को छोड कर मेरे पास आ पाते........... कहते  कहते उसने आँखे बन्द कर ली  मगर उसके हाथ की पकड इतनी मजबूत हो गयी थी जैसे कोई बच्ची अपनी नयी गुडिया को समेट कर सो जाती है , और महिम बस अपनी गुडिया को अपलक देखता रहा, क्योकि कहने के लिये शायद उसके पास भी कुछ नही था, और शायद सुधा को भी किसी उत्तर का इन्त्जार नही था, या शायद कुछ प्रश्नो के जवाब हो कर भी नही होते.............

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

जब से...............



हर चीज  खूबसूरत नजर आने लगी, जब से वो बसने लगे  मेरी निगाहों में,
मोहब्बत की रूह से रू-ब-रू हुये तब, जब कही हर बात उन्होने इशारों में।

देखा सुना पढा लिखा भी
यूं तो बहुत इश्क के बारे में....
मगर दिखा ना था अब तक
जो दिखता है अब हर नजारे में
हर बात भली सी लगने लगी जबसे, बसने लगे वो, मौसम के नजारों में,
मोहब्बत की रूह से रू-ब-रू हुये तब, जब कही हर बात उन्होने इशारों में।

महसूस हुआ है अब हमको
कितने तन्हा थे हम, खुद में
क्यो हुये ना थे खुश अब तक
जबकि खडे थे खुशियों के ढेरों में
क्या होता है साथ ये जाना, जब दो कदम साथ चले, सागर के किनारों में,
मोहब्बत की रूह से रू-ब-रू हुये तब, जब कही हर बात उन्होने इशारों में।

ना जाने कहाँ कैसे और कब
खो गया हर डर मेरे मन से
कुछ संवर गये, कुछ निखर गये
कहते है अब तो ये सब हमसे
दुनिया को सिमटते देखा , जब पाया खुद को, उनकी बाहों के सहारों में,
मोहब्बत की रूह से रू-ब-रू हुये तब, जब कही हर बात उन्होने इशारों में।

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