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सोमवार, 27 जनवरी 2020

तुम सचमुच याद आती हो

मां तुम अक्सर याद आती हो
कह नहीं पाती हरदम
पर याद बहुत आती हो
मां तुम अक्सर याद आती हो

सुबह सबेरे याद आता है
वो सिरहाने तेरे आना
और कहना उठना है या
कुछ देर और है सो जाना
वो गरम चाय की प्याली लिए
तुम हर सुबह याद आती हो
मां तुम अक्सर याद आती हो

गाजर मूली कसते कसते
उंगली जब काट लेती हूँ
भूल दर्द को, खुद पट्टी कर 
कामों में फिर लग लेती हूँ
तुरंत काम को छुडवाती
आंसू बहाती याद आती हो
मां तुम अक्सर याद आती हो 

सब  सुविधा सब खुशी मगर
खुद को खोया पाती हूँ
रसोई की मालकिन मगर
अपनी पसंद भूलती जाती हूँ
मेरी पसंद मेरी नापसंद का
ख्याल रखती याद आती हो
मां तुम अक्सर याद आती हो

चाहे जितना अब काम करुं
सब कुछ फर्ज मे शामिल है
है एक सुखी संसार जहाँ
स्वच्छंद हसीं ना हासिल है
काबलियत पर ढेरों बलैया लेती
मेरे हंसने पर हंसती याद आती हो
मां तुम अक्सर याद आती हो

आज समझ आता है कितना
मेरे अंतर उर में तुम रहती हो
टूटती बिखरती हूँ जब भी
तुम मुझको सम्बल देती हो
निराशाओं के घने जाल में
आशा की किरण बन जाती हो
मां तुम अक्सर याद आती हो

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

जूठा


जाडा इस बार अपने पूरे जोर पर था। पिछले तीन दिन से बारिश थी कि थमने का नाम ही न लेती थी। मगर गरीब के लिये क्या सर्दी क्या गरमी। काम न करे तो खाये क्या? बारिश में भीगने के कारण सर्दी बुधिया की हड्डियों तक जा घुसी थी। खांसती खखारती चूल्हे में रोटियां सेक रही थी, और कांपते शरीर को थोडी गरमी भी मिलती जा रही थी। वही पास में ही एक पुरानी सी बोरी में उसके कलेजे का टुकडा, करीब पाँच साल का कल्लू टूटे फूटे डिब्बों से खेल रहा था। कल्लू अचानक से बोरी पर से उठ कर माँ के पास आकर लिपट गया। 
बुधिया- क्या हुआ रे, जा खेल न जाके। तभी बुधिया की नजर कल्लू की आंखों में ठहर गई, माँ जान गई कि उसका बेटा कुछ ऐसा कहना चाह रहा है जो उसके लिये बहुत बडी बात है। लाड करते हुये बोली- क्या हुआ रे कल्लू, का कहना है बता।
कल्लू- (छोटा सा बच्चा जो कितनी देर से ये सोच रहा था कि अम्मा जाने मेरी बात को समझेगी कि नही, कल से आज तक में जाने कितनी बार वह सोच चुका था कि अम्मा से अपना सवाल पूंछ ले, पर हर बार सोचता अम्मा फिर कह देगीं क्या रे कलुआ, तू क्या फालतू बातें सोचता रहता है, इसी से उसको अपनी बात कहते झेंप हो रही थी, मगर पूंछना जरूरी भी तो था।) बडी गहन मुद्रा बनाते हुये बोला ताकि उसकी माँ उसकी बात को बहुत ध्यान से ले बोला- अम्मा पता है, कल न वो ऊंचे वाले बंगले में, अरे जिनके यहाँ सुबेरे आप सबसे पहले आप जाती हो, वो मेमसाहब न कल अपने लडके से कह रही थी कि किसी की जूठी चीज नही खाते, फिर थोडा रुक कर कुछ दुविधा जैसी मुद्रा में बोला - मगर अम्मा आप तो हमको रोज जूठा खिलाती हो।
बेचारी बुधिया को समझ नही आ रहा था कि वो कल्लू से क्या कहे, कैसे उसको समझाये। चूल्हे पर सेक रही रोटी को चूल्हे से निकाल कर, कल्लू को गोद में बिठाल ली, बालो में हाथ फिराते हुये अपनी पूरी ममता उडेलते हुये बोली- तुने कैसे समझा रे कि मै तुमको जूठा खिलाती हूँ, देख ये रोटी तेरे लिये गरमागरम बना रही हूँ न। कहाँ है ये रोटी जूठी।
कल्लू माँ की गोद से उतर कर थोडा सा तुनक कर बोला- आप झूठ बोलती हो। हमको पता है – वो मेमसाहब आपको जूठी दाल सब्जी देती है, वही तुम हमको खिलाती हो। अबसे मै भी नही खाऊंगा किसी का जूठा।
बेचारी बुधिया कैसे समझाती अपने लाल को कि किस तरह से वो दो रोटी का गुजारा कर पाती है, कहाँ से जुटाये वो अपने बेटे के लिये महंगी सब्जियां। क्या हुआ जो मेमसाहब लोगो का बचा खुचा ले आती है, और फिर मांगती तो नही, जब देतीं है तो रख लेती है। कम से कम अपने बच्चे को अच्छा खिला तो पाती है, मगर वो यह भी जानती थी कि अभी कल्लू की वो उमर नही जो इन बातों को समझ सके।थोडा धैर्य रखते हुये बोली- अच्छा रे तो तू इत्ता बडा हो गया कि माँ को झूठा बता सके, कल्लू को लगा जैसे उसने माँ से बहुत गलत बात कह दी, बेचारा रुआसा हो गया। उसकी बाल बुद्धि मे कुछ समझ न आया बस माँ की छाती से चिपक कर लाड करते हुये अपनी गलती को मिटाने लगा।
बुधिया ने भी उसको कस कर चिपका लिया, फिर माथा चूमते हुये बोली- बेटा जानता है जब भगवान ने दुनिया बनाई तो उसमें दो लोग बनाये, एक का नाम रखा अमीर और दूसरे का गरीब। जो गरीब लोग थे वो जूठा सच्चा नही देखते थे, वो सब खा लेते थे जैसे तू खा लेता है, और जो अमीर थे वो किसी का जूठा नही खाते थे, जैसे वो मेमसाहब का बेटा। फिर थोडा रुककर बोली- अच्छा कल्लू तुझे याद है मैने तुमको भगवान राम की बेर वाली कहानी सुनाई थी, जिसमे भगवान राम ने शबरी के जूठे बेर खाये थे।
कल्लू चहक उठा- हाँ अम्मा हमको पूरी कहानी याद है। अम्मा मै भी बिल्कुल राम जैसा बनूंगा। मै सबका जूठा खा लूंगा, फिर उसके मन में एक और समझ ने जन्म ले लिया, कोतुहलबस बोला- तो अम्मा, इसका मतलब राम जी गरीब लोग थे न, बुधिया के मन की पीडा का कोई पार न था उसने कल्लू को तो समझा दिया था पर अपने आसुंओं को नही समझा पा रही थी, उसके पास कहने को कुछ न था बस इतना बोली, हां बेटा राम जी तो सबके हैं, तेरे भी हैं मेरे भी हैं। कल्लू के मन की जिज्ञासायें शान्त हो चुकी थी इसलिये उसने सिर्फ हाँ ही सुना, अब उसको लग रहा था जैसे उसने सच में बहुत छोटी से बात ही तो पूँछी थी, बेकार ही वो कल से आज तक इत्ता परेशान रहा। अब वो निश्चिन्त होकर अपने टूटे फूटे डिब्बे जो उसके लिये किसी कीमती खिलौनों से कम न थे की तरफ खेलने चल दिया।

सोमवार, 6 जनवरी 2020

बात का प्रभाव


मै अक्सर
चुप रहती हूँ
कहती तो हूँ,
पर कम कहती हूँ।
बात में है
शीतलता
गंगाजल सी,
बात में हैं
ज्वलनता
अग्निकुंड सी,
बात में हैं
कोमलता
खिले पुष्प सी,
बात में है
कठोरता
नारियल सी,
बात ही तो है जो
बनाती है
हमारी छवि,
देती है हमारे
रिश्तों को मजबूती,
बनती है हमारे
व्यक्तित्व की पहचान,
जोडती है हदय से
हदय को,
प्रषित करती है
हमारी सोच की  धारा को,
बनती है सेतु
दो अनजबियों के बीच,
तभी सोचती हूँ
कहने से पहले
क्यों कहूँ,
कितना कहूँ,
किससे कहूँ,
कैसे कहूँ,
कब कहूँ,
क्या कहूँ,
जाँचती हूँ
टटोलती हूँ
कहने से पहले
धैर्य, साहस और चाहत
सुनने वाले के मन का।
कहती हूँ अपनी बात
जब कर लेती हूँ
निश्चित दो बातें,
एक
क्या सही अनुपात में
मिला सकीं हूँ
शब्द, सुर और भाव
और दो
आश्वस्ति इस बात की
कि नही उग आयेगी
एक नयी बात,
पूरी होने से पहले मेरी बात,
और जन्म ले लेगी
वो नयी बात
कहने की अकुलाहट
श्रोता की जिव्हा पर,
नही बन जायेगी मेरी बात
खरपतवार,
नही उगेंगे काँटे
सुनने वाले के हदय में
सुनने के बाद मेरी बात,
यदि सही अनुपात में
मिले ना हो
शब्द, सुर और भाव
तो हो जाता है
अर्थ का अनर्थ
यहाँ हर किसी का है
अपना प्रभाव
किसी एक का ही अभाव
काफी है
बात को बेबात बनाने को,
क्यूं न हो
बात कितनी भी सही
गलत समय
या गलत व्यक्ति
या गलत तरीके
या गलत जगह
पर कह देने से
बन जाती है शूल
जो जीत सकती थी हदय
भेद देती है हदय
बस इसीलिये
कहती तो हूँ,
पर कम कहती हूँ
मै अक्सर
चुप रहती हूँ

शनिवार, 4 जनवरी 2020

करीब

करीब हो
बहुत करीब
फिर भी करती हूँ
जतन हर पहर
तुम्हें और करीब लाने का
तुम्हें महसूस करने लगी हूँ
हथेलियों में
मगर फिर भी
ढूंढती हूँ 
लकीरें
जिनमें बाकी है अभी भी
पडना तुम्हारी छाप
हर आती जाती सांस को
टटोल लेती हूँ
कि कही कोई सांस
अनछुई तो नही 
तेरी खुशबू से
चाहती हूँ आना तेरे करीब
ठीक वैसे ही
जैसे करीब होती है
लिखावट पन्नों के
मिटाने से भी 
मिटती नहीं
जिसकी छाप 
चिरकाल तक
बन जाना चाहती हूँ
तेरी धरती
कि हर कदम 
रह सकूँ
तेरे साथ
तेरे करीब
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